Tuesday, 7 November 2017

1858 के बाद के धार्मिक और सामाजिक सुधार

राष्ट्रवाद तथा लोकतंत्र की वह उठती लहर, जिसने स्वतंत्रता के संघर्ष को जन्म दिया था उन आंदोलनों के रूप में भी सामने आई जिनका उद्देश्य सामाजिक संस्थाओं तथा भारतीय जनता के धार्मिक दृष्टिकोण का सुधार करना और उनका लोकतंत्रीकरण करना था। अनेक भारतीयों ने यह अनुभव किया कि सामाजिक और धार्मिक सुधार आधुनिक ढंग से देश का चौतरफा विकास करने तथा राष्ट्रीय एकता और एकजुटता को विकसित करने के लिए आवश्यक है। राष्ट्रवादी भावनाओं का विकास, नई आर्थिक शक्तियों का उदय, शिक्षा का प्रसार, आधुनिक पश्चिमी विचारों तथा संस्कृति का प्रभाव, तथा दुनिया के बारे में पहले से अधिक जानकारी_ इन सभी बातों ने भारतीय समाज के पिछड़ेपन तथा पतन के बारे में लोगों की चेतना को बढ़ाया ही नहीं बल्कि सुधार के संकल्प को और मजबूत किया।
इस तरह 1858 के बाद पहले की सुधारवादी प्रवृत्ति का आधार और व्यापक हुआ। राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे आरंभिक सुधारवादियों के काम को धार्मिक और सामाजिक सुधार के प्रमुख आंदोलनों ने और आगे बढ़ाया।
धार्मिक सुधार
विज्ञान, जनतंत्र तथा राष्ट्रवाद की आधुनिक दुनिया की आवश्यकताओं के अनुसार अपने समाज को ढालने की इच्छा लेकर तथा यह संकल्प करके कि इस रास्ते में कोई बाधा नहीं रहने दी जायेगी, विचारशील भारतीयों ने अपने पारंपरिक धर्मों के सुधार का काम आरंभ किया। कारण कि धर्म उन दिनों जनता के जीवन का एक अभिन्न अंग था और धार्मिक सुधार के बिना सामाजिक सुधार भी कुछ खास संभव नहीं था। अपने धर्मों के आधार के प्रति सच्चे रहकर भी उन्होंने उनको भारतीय जनता की नई आवश्यकताओं के अनुसार ढाला।
ब्रह्म समाजः राजा राम मोहन राय की ब्रह्म परंपरा को 1843 के बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने आगे बढ़ाया। उन्होंने इस सिद्धांत का भी खंडन किया कि वैदिक ग्रंथ अनुल्लंघनीय हैं। 1866 के बाद इस आंदोलन को केशवचन्द्र सेन ने आगे जारी रखा। ब्रह्म समाज ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों को हटाकर, उसे एक ईश्वर की पूजा पर आधारित करके, तथा वेदों को अनुल्लंघनीय न मानकर भी वेदों तथा उपनिषदों की शिक्षाओं के आधार पर उनमें सुधार लाने की कोशिश की। इसने आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के बेहतरीन तत्वों को अपनाने की भी कोशिश की। सबसे बड़ी बात यह है कि उसने अपना आधार मानव-बुद्धि को प्राचीन या वर्तमान धार्मिक सिद्धांतों और व्यवहारों में धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या के लिए पुरोहित वर्ग को भी ब्रह्म समाज ने अनावश्यक बताया। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार तथा क्षमता प्राप्त है कि वह अपनी बुद्धि की सहयता से यह देखे कि किसी धार्मिक ग्रंथ या सिद्धांत में क्या गलत है और क्या सही है। इस तरह ब्रह्म समाजी मूलतः मूर्तिपूजा तथा अंधविश्वासपूर्ण कर्मकांडों के, बल्कि पूरी ब्राह्मणवादी परंपरा के विरोधी थे। वे बिना किसी पुरोहित की मध्यस्थता के एक ईश्वर की पूजा करते थे।
ब्रह्म लोग महान समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने जाति-प्रथा तथा बाल-विवाह का जमकर विरोध किया। विधवा-पुनर्विवाह समेत स्त्री कल्याण के सभी उपायों के तथा स्त्री-पुरुषों के बीच आधुनिक शिक्षा के प्रसार के वे समर्थक थे।
ब्रह्म समाज अपने आंतरिक कलह के कारण उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कमजोर पड़ गया। इसके अलावा इसका प्रभाव अधिकांश नगरीय शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था। फिर भी 19वीं तथा 20वीं सदी में बंगाल तथा शेष भारत के बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
महाराष्ट्र में धार्मिक सुधारः बंबई प्रांत में धार्मिक सुधार-कार्य का आरंभ 1840 में परमहंस मंडली ने आरंभ किया। इसका उद्देश्य मूर्तिपूजा तथा जाति-प्रथा का विरोध करना था। पश्चिमी भारत के पहले धार्मिक सुधारक संभवतः गोपाल हरि देशमुख थे जिन्हें जनता ‘लोकहितवादी’ कहती थी। वे मराठी भाषा में लिखते थे। उन्होंने हिन्दू कट्टरपंथ पर भयानक बुद्धिवादी आक्रमण किये और धार्मिक तथा सामाजिक समानता का प्रचार किया।
उन्हाेंने यह भी कहाँ कि अगर धर्म सामाजिक सुधार की अनुमति नहीं देता तो उसे बदल दिया जाना चाहिए। क्योंकि धर्म को मनुष्य ने ही बनाया है और बहुत पहले लिखे गये धर्मग्रंथ हो सकता है कि बाद के काल के लिए प्रासंगिक न रह जाएं। बाद में आधुनिक ज्ञान के प्रकाश में हिंदू धार्मिक विचारों तथा व्यवहारों में सुधार लाने के लिए प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। इसने एक ईश्वर की पूजा का प्रचार किया तथा धर्म को जाति-प्रथा की रूढि़यों से और पुरोहितों के वर्चस्व से मुक्त करने का प्रयास किया। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान तथा इतिहासकार आर- जी- भंडारकर और महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) इसके प्रमुख नेता थे। इस पर ब्रह्म समाज का गहरा प्रभाव था तेलुगू सुधारक वीरेशलिंगम के प्रयासों से इसका प्रसार दक्षिण भारत में भी हुआ। इसी समय महाराष्ट्र में गोपाल गणेश आगरकर भी कार्यरत थे जो आधुनिक भारत के महानतम बुद्धिवादी विचारकों में से एक हैं। ये मानव बुद्धि की क्षमता के प्रचारक थे। परंपरा पर अंध-श्रद्धा तथा भारत के अतीत के झूठे महिमामंडल की भी उन्होंने कड़ी आलोचना की।
रामकृष्ण और विवेकानन्दः रामकृष्ण परमहंस (1834-1886) एक संत चरित्र व्यक्ति थे जो त्याग-ध्यान-भक्ति की पारंपरिक विधियों से धार्मिक मुक्ति पाने में विश्वास रखते थे। धार्मिक सत्य की खोज तथा स्वयं में ईश्वर का अनुभव करने के उद्देश्य से वे मुस्लिम तथा ईसाई दरवेशों के साथ भी रहे। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ईश्वर तक पहुंचने तथा मुक्ति पाने के कई मार्ग हैं, और यह कि मनुष्य की सेवा ईश्वर की सेवा है, क्योंकि मनुष्य ईश्वर का ही मूर्तिमान रूप है।
उनके धार्मिक संदेशों को उनके महान् शिष्य स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) ने प्रचारित किया तथा उनको समकालीन भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुसार ढालने का प्रयास किया। विवेकानन्द का सबसे अधिक जोर सामाजिक क्रिया पर था। उन्होंने कहा कि ज्ञान अगर वास्तविक दुनिया में जिसमें हम रहते हैं, कर्म से हीन हो तो व्यर्थ है। अपने गुरू की तरह उन्होंने भी सभी धर्मों की बुनियादी एकता की घोषणा की तथा धार्मिक बातों में संकुचित दृष्टिकोण की निंदा की। जैसा कि 1898 में उन्हाेंने लिखा थाः फ्हमारी अपनी मातृ भूमि के लिए ही दो महान् धर्मों-हिंदुत्व तथा इस्लाम- का संयोग ही----- एकमात्र आशा है।य् साथ ही वे भारतीय दर्शन-परंपरा के श्रेष्ठकर दृष्टिकोण में भी विश्वास रखते थे। वे खुद वेदांत के अनुयायी थे जिसे उन्होंने एक पूर्णतः बुद्धिसंगत प्रणाली बतलाया।
विवेकानन्द ने भारतीयों की आलोचना की कि बाकी दुनिया से कटकर वे जड़ तथा मृतप्राय हो गये हैं। उन्होंने लिखाः फ्दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रों से हमारे अलगाव ही हमारे पतन का कारण है और शेष दुनिया की धारा में समा जाना ही इसका एकमात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है।य्
विवेकानन्द ने जाति-प्रथा की तथा कर्मकांड, पूजा-पाठ और अंधविश्वास पर हिंदु धर्म के तत्कालीन जोर देने की निंदा की तथा जनता से स्वाधीनता, समानता तथा स्वतंत्र चिंतन की भावना अपनाने का आग्रह किया। अपने गुरू की तरह विवेकानन्द भी एक महान मानवतावादी थे।
मानवतावादी राहत-कार्य तथा समाज-कार्य को जारी रखने के लिए 1896 में विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में इस मिशन कीे अनेक शाखाएं थीं और इसने स्कूल, अस्पताल और दवाखाने, अनाथालय, पुस्तकालय, आदि खोलकर सामाजिक सेवा के कार्य किये। इस तरह इसका जोर व्यक्ति की मुक्ति नहीं बल्कि सामाजिक कल्याण और समाज सेवा पर था।
स्वामी दयानन्द और आर्यसमाजः उत्तर भारत में हिंन्दू धर्म के सुधार का बीड़ा आर्यसमाज ने उठाया। इसकी स्थापना 1875 में स्वामी दयानन्द (1824-1883) ने की थी। उनका मानना था कि तमाम झूठी शिक्षाओं से भरे पुराणों की सहायता से स्वार्थी व अज्ञानी पुरोहितों ने हिन्दू धर्म को भ्रष्ट कर रखा था। अपने लिए दयानंद ने वेदों से प्रेरणा प्राप्त की जिनको ईश्वर-कृत होने के नाते वे अनुल्लंघनीय तथा सभी ज्ञान का भंडार मानते थे। उन्होंने उन बाद के सभी धार्मिक विचारों को रद्द कर दिया जो वेदों से मेल नहीं खाते थे। वेदों तथा उनकी अनुल्लंघनीयता पर इस तरह की पूर्ण निर्भरता ने उनकी शिक्षाओं को रूढि़वादी रंग में रंग दिया क्योंकि उनकी अनुल्लंघनीयता का अर्थ यह है कि मानव-बुद्धि अंतिम निर्णायक नहीं रही।
फिर भी, इस दृष्टिकोण का एक बुद्धिसंगत पक्ष भी था। कारण कि ईश्वर-प्रदत्त होने के बावजूद वेदों की व्याख्या उन्हें तथा दूसरे मनुष्यों को ही बुद्धिसंगत ढंग से करनी होगी। वे मानते थे कि प्रत्येक को ईश्वर तक सीधे पहुंचने का अधिकार है। इसके अलावा, हिन्दू कट्टरपंथ का समर्थन करने की बजाए उन्होंने इस पर हमला किया तथा इसके खिलाफ एक विद्रोह छेड़ा। परिणामस्वरूप वेदों की अपनी व्याख्या से उन्होंने जो भी शिक्षाएं ग्रहण की वे दूसरे भारतीय सुधारकों द्वारा प्रचारित किये जा रहे धार्मिक व सामाजिक सुधारों से मिलती-जुलती थीं। वे मूर्तिपूजा, कर्मकांड और पुरोहितवाद के तथा खासकर जाति-प्रथा और ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित हिंदू धर्म के विरोधी थे। उन्होंने इसी वास्तविक जंगल में रह रहे मनुष्यों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया तथा दूसरी दुनिया में परंपरागत विश्वास से लोगों का ध्यान हटाया। वे पश्चिमी विज्ञानों के अध्ययन के भी समर्थक थे।
दिलचस्प बात यह है कि स्वामी दयानंद ने केशवचन्द्र विद्यासागर, जस्टिस रानाडे, गोपाल हरि देशमुख तथा दूसरे आधुनिक धर्म-समाज-सुधारकों से मिलकर उनसे वाद-विवाद भी किये थे। वास्तव में आर्यसमाज का इतवारी सभाओं का विचार ब्रह्म समाज तथा प्रार्थना समाज के व्यवहार से मिलता-जुलता था।
स्वामी दयानंनद के कुछ शिष्यों ने बाद में पश्चिमी ढंग की शिक्षा के प्रसार के लिए देश भर में स्कूलों तथा कॉलेजों का एक पूरा जाल-सा बिछा दिया। इस प्रयास में लाला हंसराज की एक प्रमुख भूमिका रही। दूसरी तरफ कुछ अधिक परंपरावादी शिक्षा के प्रसार के लिए स्वामी श्रद्धानन्द ने 1902 में हरिद्वार के निकट गुरूकुल की स्थापना की।
आर्यसमाजी सुधार के प्रखर समर्थक थे। स्त्रियों की दशा सुधारने तथा उनमें शिक्षा का प्रसार करने के लिए उन्होंने बहुत से काम किये। उन्होंने छुआछूत तथा वंश-परंपरा पर आधारित जाति-प्रथा की कठोरताओं का विरोध किया। इस तरह वे सामाजिक समानता के प्रचारक थे तथा उन्होंने सामाजिक एकता को मजबूत बनाया। उन्होंने जनता में आत्मसम्मान तथा स्वावलंबन की भावना भी जगाई। इससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला। साथ ही साथ, आर्यसमाज का एक उद्देश्य हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन से रोकना भी था। इसके कारण दूसरे धर्मों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ दिया। यह जेहाद बीसवीं सदी में भारत में साम्प्रदायिकता के प्रसार में सहायक एक कारण बन गया। आर्यसमाज के सुधार-कार्य ने समाज की बुराइयां खत्म करके जनता को एकबद्ध करने का प्रयास किया, मगर उसके धार्मिक कार्य में संभवतः अचेतन रूप में ही विकासमान हिंदुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों तथा ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने की ही प्रवृत्ति की। उसे यह बात स्पष्ट नहीं थी कि भारत में राष्ट्रीय एकता धर्मनिरपेक्ष आधार पर तथा धर्म से परे रहकर ही संभव है ताकि यह सभी धर्मों के लोगों को समेट सके।
थियोसोफिकल सोसायटीः थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना संयुक्त राज्य अमेरिकी में मैडल एच- पी- ब्लावात्सकी तथा कर्नल एच-एस- ओलकाट द्वारा की गई। बाद में ये भारत आ गये तथा 1886 में मद्रास के करीब अड्यैर में उन्होंने सोसायटी का हेडक्वार्टर स्थापित किया। 1893 में भारत आने वाली श्रीमती एनी बेसेंट के नेतृत्व में थियोसोफी आंदोलन जल्द ही भारत में फैल गया। थियोसोफिस्ट प्रचार करते थे कि हिंदुत्व, जरथुस्त्र मत (पारसी धर्म) तथा बौद्ध मत जैसे प्राचीन धर्मों, को पुनर्स्थापित तथा मजबूत किया जाये। उन्होंने आत्मा के पुनरागमन के सिद्धांत का भी प्रचार किया। धार्मिक पुनर्स्थापनावादियों के रूप में थियोसोफिस्टों को बहुत सफलता नहीं मिली। लेकिन आधुनिक भारत के घटनाक्रमों में उनका एक विशिष्ट योगदान रहा। यह पश्चिमी देशों के ऐसे लोगों द्वारा चलाया जा रहा एक आंदोलन था जो भारतीय धर्मों तथा दार्शनिक परंपरा का महिमांडन करते थे। इससे भारतीयों को अपना खोया आत्मविश्वास फिर से पाने में सहायता मिली, हालांकि अतीत की महान्ता का झूठा गर्व भी इसने उनके अंदर पैदा किया।
भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के प्रमुख कार्यों में एक था बनारस में केन्द्रीय हिन्दू विद्यालय की स्थापना जिसे बाद में मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया।
सैयद अहमद खान तथा अलीगढ़ आंदोलनः मुसलमानों में धार्मिक सुधार के आंदोलन कुछ देर से उभरे। उच्च वर्गों के मुसलमानों ने पश्चिमी शिक्षा व संस्कृति के संपर्क से बचने की ही कोशिशें की। केवल 1857 के महाविद्रोह के बाद ही धार्मिक सुधार के आधुनिक विचार उभरने शुरू हुए। इस दिशा में आरंभ 1863 में कलकत्ता में स्थापित मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी ने किया। इस सोसायटी ने आधुनिक विचारों के प्रकाश में धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया तथा पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए उच्च तथा मध्य वर्गों के मुसलमानों को प्रेरित किया।
मुसलमानों में सबसे प्रमुख सुधारक सैयद अहमद खान (1817-1898) थे। वे आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से काफी प्रभावित थे तथा जीवन भर इस्लाम के साथ उनका तालमेल करने के लिए प्रयत्नरत रहे। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले यह घोषित किया कि इस्लाम की एकमात्र प्रामाणिक पुस्तक कुरान है और सभी इस्लामी लेखन गौण महत्व का है। उन्होंने कुरान की व्याख्या भी समकालीन बुद्धिवाद तथा विज्ञान की रोशनी में की। उनके अनुसार कुरान की कोई भी व्याख्या अगर मानव-बुद्धि, विज्ञान या प्रकृति से टकरा रही है तो वह वास्तव में गलत व्याख्या है। उन्होंने कहा कि धर्म के तत्व भी अपरिवर्तनीय नहीं है। धर्म अगर समय के साथ नहीं चलता तो वह जड़ हो जायेगा जैसा कि भारत में हुआ है। जीवन भर वे परंपरा के अंध अनुकरण, रिवाजों पर भरोसा, अज्ञान तथा अबुद्धिवाद के खिलाफ संघर्ष करते रहे। उन्होंने लोगों से आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा विचार की स्वतंत्रता अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने घोषणा की कि फ्जब तक विचार की स्वतंत्रता विकसित नहीं होती, सभ्य जीवन संभव नहीं है।य् उन्होंने कट्टरपंथ, संकुचित दृष्टि तथा अलग-थलग रहने के खिलाफ भी चेतावनी दी, तथा छात्रें और दूसरे लोगों से खुले दिल वाला तथा सहिष्णु बनने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि बंद दिमाग सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ेपन की निशानी है।
सैयद अहमद खान का विश्वास था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन आधुनिक, पाश्चात्य, वैज्ञानिक ज्ञान तथा संस्कृति को अपनाकर ही सुधर सकता है। इसलिए आधुनिक शिक्षा का प्रचार जीवन-पर्यन्त उनका प्रथम ध्येय रहा। एक अधिकारी के रूप में उन्होंने अनेक नगरों में विद्यालय स्थापित किये थे और अनेक पश्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद कराया था। उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना पाश्चात्य विज्ञान तथा संस्कृति का प्रचार करने वाले एक केन्द्र के रूप में की। बाद में इस कालेज का विकास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में हुआ।
सैयद अहमद खान धार्मिक सहिष्णुता के पक्के समर्थक थे। उनका विश्वास था कि सभी धर्मों में एक बुनियादी एकता मौजूद है जिसे व्यावहारिक नैतिक कहा जा सकता है। वे मानते थे कि धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है और इसलिए वे वैयक्तिक संबंधों में धार्मिक कट्टरता की निंदा करते थे। वे साम्प्रदायिक टकराव के भी विरोधी थे।
इसके अलावा एक कॉलेज के कोष में हिन्दुओं, पारसियों और ईसाइयों ने भी जी खोलकर दान दिया, और इसके दरवाजे भी सभी भारतीयों के लिए खुले थे। उदाहरण के लिए, 1898 में इस कॉलेज में 64 हिन्दू और 285 मुसलमान छात्र थे। सात भारतीय अध्यापकों में दो हिन्दू थे और इनमें एक संस्कृत का प्रोफेसर था। मगर अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपने अनुयायियों को उभरते राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए सैयद अहमद खान हिन्दुओं के सर्वस्व की शिकायतें करने लगे थे। यह दुर्भाग्य की बात थी। फिर भी वे यह चाहते थे कि मध्य तथा उच्च वर्गों के मुसलमानों का पिछड़ापन खत्म हो। उनकी राजनीतिक उनके इस दृढ़ विश्वास की उपज थी कि ब्रिटिश सरकार को आसानी से नहीं हटाया जा सकता और इसलिए तात्कालिक राजनीतिक प्रगति संभव नहीं है। दूसरी तरफ, अधिकारियों की जरा सी भी शत्रुता शिक्षा-प्रसार के प्रयास के लिए घातक हो सकती थी जबकि वे इसे वक्त की जरूरत समझते थे। उनका विश्वास था कि जब भारतीय भी विचार व कर्म में अंग्रेज जितने आधुनिक बन जायेंगे, केवल तभी वे सफलता के साथ विदेशी शासन को ललकार सकेंगे। इसलिए उन्होंने सभी भारतीयों तथा खासकर शैक्षिक रूप से पिछड़े मुसलमानों को सलाह दी कि वे कुछ समय के लिए राजनीति से दूर रहें। उनके अनुसार राजनीति का समय अभी नहीं आया था।
वास्तव में वे अपने कॉलेज तथा शिक्षा-प्रसार के उद्देश्य के प्रति इस तरह समर्पित हो चुके थे कि इसके लिए अन्य सभी हितों का बलिदान करने को तैयार थे। परिणामस्वरूप, रूढि़वादी मुसलमानों को कॉलेज का विरोध करने से रोकने के लिए उन्होंने धार्मिक सुधार के आंदोलन को भी लगभग त्याग दिया था। इसी कारण से वे कोई ऐसा काम नहीं करते थे कि सरकार रूष्ट हो तथा दूसरी ओर, सांप्रदायिकता और अलगाववाद को प्रोत्साहन देने लगे थे। निश्चित ही यह एक गंभीर राजनीतिक त्रुटि थी जिसके बाद में हानिकारक परिणाम निकले। इसके अलावा उनके कुछ अनुयायी उनकी तरह खुले दिल वाले नहीं रहे और वे बाद में इस्लाम का तथा उसके अतीत का महिमामंडन करने लगे तथा दूसरे धर्मों की आलोचना करने लगे।
सैयद अहमद ने सामाजिक सुधार की काम में भी उत्साह दिखाया। उन्होंने मुसलमानों से मध्य कालीन रीति-रिवाज तथा विचार व कर्म की पद्धतियों को छोड़ देने का आग्रह किया। उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के बारे में लिखा तथा पर्दा छोड़ने तथा स्त्रियों में शिक्षा प्रसार का समर्थन किया। उन्होंने बहुविवाह प्रथा तथा मामूली-मामूली बातों पर तलाक के रिवाज की भी निंदा की।
सैयद अहमद खान को सहायता उनके कुछ वफादार अनुयायी किया करते थे। इन्हें सामूहिक रूप से अलीगढ़ समूह कहा जाता है। चिराग अली, उर्दू शायर अल्ताफ हुसैन हाली, नजीर अहमद तथा मौलानी शिबली नुमानी अलीगढ़ आंदोलन के कुछ और प्रमुख नेता थे।
मुहम्मद इकबालः आधुनिक भारत के महानतम कवियों में एक, मुहम्मद इकबाल (1876-1938) ने भी अपनी कविता द्वारा नौजवान मुसलमानों तथा हिंदुओं के दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रभाव डाला। स्वामी विवेकानंद की तरह उन्होंने भी निरंतर परिवर्तन तथा अबाध कर्म पर बल दिया और चिराग, ध्यान एवं एकांतवास की निंदा की। उन्होंने एक गतिमान दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह किया जो दुनिया को बदलने में सहायक हों। वे मूलतः एक मानवतावादी थे। वास्तव में उन्होंने मानव कर्म को प्रमुख धर्म की स्थिति तक पहुंचा दिया। उन्होंने कहा कि मनुष्य को प्रकृति या सत्ताधीशों के अधीन नहीं होना चाहिए बल्कि निरंतर कर्म द्वारा इस विश्व को नियंत्रित करना चाहिए। उनके विचार में स्थिति को निष्क्रिय रूप से स्वीकार करने से बड़ा पाप कोई नहीं है। कर्मकांड, चिराग तथा दूसरी दुनिया में विश्वास की प्रवृत्ति की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि मनुष्य को इसी जीती-जागती दुनिया में सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी आरंभिक कविता में उन्होंने देशभक्ति के गीत गाये हैं हालांकि बाद में उन्होंने मुस्लिम अलगाववाद का समर्थन किया।
पारसियों में धार्मिक सुधारः पारसी लोगों में धार्मिक सुधार का आरंभ बंबई में 19वीं सदी के आरंभ में हुआ। 1851 में रहमानी मज्दायासन सभा (रिलीजस रिफार्म एसोसिएशन) का आरंभ नौरोजी फरदूनजी, दादाभाई नौरोजी, एस- एच- बंगाली तथा अन्य लोगों ने किया। इन सभी ने धर्म के क्षेत्र में हावी रूढि़वाद के खिलाफ आंदोलन चलाया, और स्त्रियों की शिक्षा तथा विवाह और कुल मिलाकर स्त्रियों की साामजिक स्थिति के बारे में पारसी सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण का आरंभ किया। कालांतर में पारसी लोग सामाजिक क्षेत्र में पश्चिमीकरण की दृष्टि से भारतीय समाज के सबसे अधिक विकसित अंग बन गये।
सिखों में धार्मिक सुधारः सिख लोगों में धार्मिक सुधार का आरंभ 19वीं सदी के अंत में हुआ जब अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई। लेकिन सुधार के प्रयासों को बल 1920 के बाद मिला जब पंजाब में अकाली आंदोलन का आरंभ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरूद्वारों के प्रबंध का शुद्धिकरण करना था। इन गुरूद्वारों को भक्त सिखों की ओर से भारी मात्र में जमीनें और धन मिलते थे, परंतु इनका प्रबंध भ्रष्ट तथा स्वार्थी महंतों द्वारा मनमाने ढंग से किया जा रहा था। अकालियों के नेतृत्व में 1921 में सिख जनता ने इन महंतों तथा इनकी सहायता करने वाली सरकार के खिलाफ एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया।
जल्द ही अकालियों ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह एक सिख गुरूद्वारा कानून बनाये। यह कानून 1922 में बना और 1925 में इसमें संशोधन किये गये। कभी-कभी इस कानून की सहायता से मगर अधिकतर सीधी कार्यवाही के द्वारा सिखों ने गुरूद्वारों से भ्रष्ट महंतों को धीरे-धीरे बाहर खदेड़ दिया, हालांकि इस आंदोलन में सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।
आधुनिक युग के धार्मिक सुधार के आंदोलन में एक बुनियादी समानता पाई जाती है। ये सभी आंदोलन बुद्धिवाद तथा मानवतावाद के दो सिद्धांतों पर आधारित थे, हालांकि अपनी ओर लोगों को खींचने के लिए कभी-कभी वे आस्था तथा प्राचीन ग्रंथों का सहारा भी लेते थे। इसके अलावा, उन्होंने उभरते हुए मध्य वर्ग आधुनिक शिक्षा-प्राप्त प्रबुद्ध लोगों को सबसे अधिक प्रभावित किया। उन्होंने बुद्धिविरोधी धार्मिक कठमुल्लापन तथा अंध श्रद्धा से मानव बुद्धि की तर्क-विचार की क्षमता को मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने भारतीय धर्मों में कर्मकांडी, अंधविश्वासी, बुद्धिविरोधी तथा पुराणपंथी पक्षों का विरोध किया। उनमें से अनेक ने, किसी ने कम और किसी ने अधिक, धर्म को अंतिम सत्य का भंडार मानने से इंकार कर दिया तथा किसी भी धर्म या उसके ग्रंथों में उपस्थित सत्य को तर्क, बुद्धि तथा विज्ञान की कसौटी पर परखा।
इनमें से कुछ धर्मसुधारकों ने परंपरा का सहारा लिया और यह दावा किया कि वे केवल अतीत के वास्तविक सिद्धांतों, मान्यताओं और व्यवहारों को ही पुनर्जीवित कर रहे हैं। पर वास्तव में अतीत को पुनर्जीवित नहीं किया जा सका। प्रायः अतीत के बारे में सबकी समझ भी एक जैसी न थी। अतीत का सहारा लेने पर जो समस्याएं उठती हैं उनका वर्णन जस्टिस रानाडे ने किया है, हालांकि खुद उन्होंने अक्सर जनता से आग्रह किया कि वह अतीत की बेहतरीन परंपराओं को पुनर्जीवित करें।
फिर रानाडे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समाज एक निरंतर परिवर्तनशील जीवित सत्ता है और कभी अतीत की ओर नहीं पलट सकती। फ्मृत तथा दफनाए या जलाए जा चुके लोग हमेशा के लिए मरकर दफनाए या जलाए जा चुके हैं, और इसलिए मुर्दा अतीत को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता,य् ऐसा उन्होंने लिखा है। अतीत का नाम लेने वाले प्रत्येक सुधारक ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की कि वह उसके द्वारा सुझाए गये सुधारों के अनुरूप लगे। सुधार तथा उनके दृष्टिकोण प्रायः नवीन होते थे, अतीत के नाम पर केवल उनको उचित ठहराया जाता था। अनेक विचारों को जो आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान से मेल नहीं खाते थे, यह कहा गया कि ये बाद में जोड़े गये हैं यह गलत व्याख्या के परिणाम हैं। चूंकि रूढि़वादी लोग इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं होते थे इसलिए उनसे सामाजिक सुधारकों का टकराव हुआ, और ये सुधारक कम से कम आरंभिक चरण में धार्मिक और सामाजिक विद्रोहियों के रूप में सामने आये।
इसी तरह सैयद अहमद खान को भी परंपरावादियों के गुस्से का शिकार होना पड़ा। उन्हें गालियां दी गई, उनके खिलाफ फतवे जारी किये गये, तथा जान से मारने की धमकियां तक दी गई।
धार्मिक सुधार के आंदोलनों मे मानवतावादी चरित्र की अभिव्यक्ति पुरोहितवाद तथा कर्मकांड पर उनके हमलों में तथा मानव कल्याण तथा मानव बुद्धि की दृष्टि से धर्मग्रंथों की व्याख्या के व्यक्ति के अधिकार पर दिये गये जोर में हुई। इस मानवतावाद की एक खास बात एक नई मानवतावादी नैतिकता थी। इसमें यह धारणा भी शामिल थी कि मानवता प्रगति कर सकती और करती रही है और अंततः वे ही मूल्य नैतिक मूल्य हैं जो मानव-प्रगति में सहायक हों। सामाजिक सुधार के आंदोलन इस नई, मानवतावादी नैतिकता के मूर्त रूप थे।
हालांकि सुधारकों ने अपने-अपने धर्मों में ही सुधार लाने के प्रयत्न किये, मगर सामान्य दृष्टिकोण सर्वव्यापकतावादी था। राममोहन रॉय विभिन्न धर्मों को एक ही सर्वव्यापी ईश्वर तथा एक धार्मिक सत्य के विशिष्ट रूप समझते थे। सैयद अहमद खान ने कहा कि सभी पैगम्बर का एक ही धर्म या दीन था, और अल्लाह ने हर कौम को अपना एक पैगम्बर भेजा है। इसी बात को केशवचंद्र सेन इस प्रकार रखते हैंः ‘‘हमारा मत यह नहीं है कि सत्य सभी धर्मों में पाए जाते हैं, बल्कि यह है कि सभी स्थापित धर्म सत्य हैं।’’
शुद्ध रूप से धार्मिक विचारों के अलावा धर्म-सुधार के इन आंदोलनों ने भारतीयों के आत्मविश्वास, आत्मसम्मान तथा अपने देश पर उनके गर्व को बढ़ाया। उनके धार्मिक अतीत की आधुनिक बुद्धिवादी शब्दों से अनेक भ्रामक तथा बुद्धिविरोधी तत्वों को बाहर अधिकारियों के इस व्यंग्य का उत्तर देने योग्य बनाया कि यहां के धर्म व समाज पतनशील और हीन हैं।
धर्म-सुधार के आंदोलनों ने अनेक भारतीयों को इस योग्य बनाया कि वे आधुनिक विश्व से तालमेल बिठा सकें। वास्तव में उनका जन्म ही पुराने धर्मों को एक नए, आधुनिक सांचे में ढालकर उनको समाज के नए वर्गों की अवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए हुआ था। इस तरह अतीत पर गर्व करके भी भारतीयों ने आम तौर पर आधुनिक विज्ञान की मूलभूत श्रेष्ठता को मानने से इनकार नहीं किया।
यह सही है कि कुछ लोग ने दावा किया कि वे केवल मूल, प्राचीनतम धर्मग्रंथों का सहारा ले रहे हैं, और इन ग्रंथों की उन्होंने समुचित व्याख्या की। सुधारमूलक दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप अनेक भारतीय जाति-धर्म के विचारों पर आधारित एक संकुचित दृष्टिकोण की जगह एक आधुनिक, इहलौकिक, धर्मनिरपेक्ष तथा राष्ट्रीय अपनाने लगे, हालांकि पहले के संकुचित दृष्टिकोण एकदम समाप्त नहीं हो सके। इसके अलावा अधिकाधिक संख्या में लोग अपने भाग्य को निष्क्रिय रहकर स्वीकार करने तथा मरकर दूसरे जीवन के सुधारने की आशा लगाने के बजाए इसी दुनिया में अपने भौतिक व सांस्कृतिक कल्याण की बाते सोचने लगे। इन आंदोलनों नो बाकी दुनिया से भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अलगाव को भी कुछ भी हद तक खत्म किया और विश्वव्यापी विचारों में भारतीयों को भागीदार बनाया। साथ ही साथ, वे पश्चिम की हर बात के रोब में नहीं आए और जो लोग आंखे मूंदकर पश्चिम की नकल करते थे उनकी खुलकर हंसी उड़ाई गई।
वास्तव में परंपरागत धर्मों व सांस्कृति के पिछड़े तत्वों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर तथा आधुनिक संस्कृति के सकारात्मक तत्वों का स्वागत करके भी, अधिकांश धर्म-सुधारकों ने पश्चिम की अंधी नकल का विरोध भी किया और पश्चिमी संस्कृति व विचार परंपरा के उपनिवेशीकरण के खिलाफ एक विचारधारात्मक संघर्ष चलाया। यहां समस्या दोनों पक्षों के बीच संतुलन स्थापित करने की थी। कुछ लोग आधुनिकीकरण की दिशा में बहुत आगे बढ़ गए तथा संस्कृति और संस्थाओं का पक्ष लेते और उनका महिमामंडन करते थे, और आधुनिक विचारों और सांस्कृति के समावेश का विरोध कर रहे थे। सुधारकों में जो श्रेष्ठ थे उनका तर्क यह था कि आधुनिक विचारों तथा संस्कृति को अच्छी तरह तभी अपनाया जा सकता है जब उन्हें भारतीय सांस्कृतिक धारा का अंग बना लिया जाए।
धर्म-सुधार के आंदोलनों के दो नकारात्मक पक्षों को भी ध्यान में रखना चाहिए। प्रथम, ये सभी समाज के एक बहुत छोटे भाग की यानि नगरीय उच्च और मध्य वर्गों की आवश्यकताएं पूरी करते थे। इनमें से कोई भी बहुसंख्य किसानों तथा नगरों की गरीब जनता तक नहीं पहुंचा, और ये लोग अधिकांशतः परंपरागत रीति रिवाजों के में ही जकड़े रहे। कारण यह है कि ये आंदोलन मूलतः भारतीय समाज के शिक्षित व नरगरीय भागाें की आकांक्षाओं को ही प्रतिबिंबित करते थे।
इनकी दूसरी कमी तो आगे चलकर एक प्रमुख नकारात्मक प्रवृत्ति बन गई। यह कभी पीछे घूमकर अतीत की महानता का गुणगान करने तथा धर्मग्रंथों को आधार बनाने की प्रवृत्ति थी। यह बात इन आंदोलनों की अपनी सकारात्मक शिक्षाओं की विरोधी बन गयी। इसने मानव-बुद्धि तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण की श्रेष्ठता के विचार को ही धक्का पहुंचाया। इससे नए-नए रूपों में रहस्यवाद तथा नकली वैज्ञानिक चिंतन को बल मिला। अतीत की महानता के गुणगान ने एक झूठे तथा दंभ को बढ़ावा दिया। अतीत में एक स्वर्ण युग पाने की इच्छा के करण आधुनिक विज्ञान को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सका, और वर्तमान को सुधारने के प्रयत्नों में बाधा पड़ी।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे हिन्दू, मुसलमान, सिख और पारसी फूट के शिकार होने लगे। ऊंची तथा नीची जातियों के हिन्दुओं में भी दरार पड़ने लगी। अनेक धर्मों वाले एक देश में धर्म पर जरूरत से ज्यादा जोर देने से फूट की प्रवृत्ति बढ़नी स्वाभाविक थी। इसके अलावा, सुधारकों ने सांस्कृति धरोहर के धार्मिक दार्शनिक पक्षों पर एकतरफा जोर दिया। फिर ये पक्ष सभी लोगों की साझी धारोहर भी नहीं थे। दूसरी तरफ कला, स्थापत्य, साहित्य, संगीत, विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि पर पूरा जोर नहीं दिया गया, हालांकि इनमें जनता के सभी भागों की बराबर भूमिका रही थी। इसके अलवा हर एक हिन्दू सुधारक ने भारतीय अतीत के गुणगान को प्राचीन काल तक सीमित रखा। स्वामी विवेकानंद जैसे खुले दिमाग के व्यक्ति तक ने भारत की आत्मा या भारत की उपलब्धियों की चर्चा केवल इसी अर्थ में की। ये सुधारक भारतीय इतिहास के मध्य काल को मूलतः पतन का काल मानते थे। यह विचार अनैतिहासिक ही नहीं था बल्कि सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से हानिकारक भी था। इससे दो कौमों की धारणा पनपी। इसी तरह प्राचीन काल और प्रचीन धर्मों की अनौपचारिक प्रशंसा को निचली जातियों के लोग भी पचा नहीं सके जो सदियों से उसी विध्वंस जाति-प्रथा के दमन के शिकार रहे जो ठीक उसी प्रचीन काल की उपज थी।
इन सबका परिणाम यह हुआ कि सभी भारतीय अतीत की भौतिक सांस्कृतिक उपलब्धियों पर समान रूप से गर्व करें और उससे प्रेरणा प्राप्त करें, इसके बजाय अतीत कुछेक लोगो की संपत्ति बनकर रह गया। इसके अलावा अतीत भी अनेक खंडों में विभाजित होने लगा। मुस्लिम मध्य वर्ग के अनेक लोगों ने तो अपनी परंपरा और अपनी धरोहर पश्चिमी एशिया के इतिहास में खोजना आरंभ कर दिया। हिन्दू, मुसलमान, सिख और पारसी तथा बाद में निचली जाति के हिन्दू-ये सब सुधार आंदालोनों से प्रभवित हुए थे, मगर अब ये एक दूसरे से कटने लगे। दूसरी तरफ, सुधार  आंदोलनों के प्रभाव से दूर रहकर परंपरागत रीति-रिवाजों को मानने वाले हिन्दूआें और मुसलमानों में आपसी भाईचारा बना रहा, हालांकि वे अपने-अपने कर्मकांड का पालन करते रहे।
एक समन्वित संस्कृति के विकास की यह प्रक्रिया जो सदियों से चली आ रही थी, उस पर इस कारण से कुछ अंकुश लगा, हालांकि दूसरे क्षेत्रें में भारतीय जनता के राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। इस प्रवृत्ति का दुष्परिणाम तब स्पष्ट हो गया जब यह पाया गया कि मध्य वर्गों में राष्ट्रीय चेतना की तीव्र विकास के साथ-साथ एक और चेतना, अर्थात् सांप्रदायिक चेतना, का विकास भी हो रहा था। आधुनिक काल में सांप्रदायिकता के विकास के अनेक दूसरे कारण भी थे, परंतु अपनी प्रकृति के कारण धर्म-सुधार के आंदोलनों ने निश्चय ही इसमें कुछ योगदान किया।
सामाजिक सुधार
उन्नीसवीं सदी के राष्ट्रीय जागरण का प्रमुख प्रभाव सामाजिक सुधार के क्षेत्र में देखने को मिला। नवशिक्षित लोगों ने बढ़-बढ़कर जड़ सामाजिक रीतियों तथा पुरानी प्रथाओं से विद्रोह किया। वे अब बुद्धिविरोधी और अमानवीयकारी सामाजिक व्यवहारों को और सहने को तैयार न थे। उनका विद्रोह सामाजिक समानता तथा सभी व्यक्तियों की समाज क्षमता के मानवतावादी आदर्शों से प्रेरित था।
समाज सुधार के आंदोलन में लगभग सभी धर्म-सुधारकों का योगदान रहा। कारण यह कि भारतीय सामज के पिछड़ेपन की तमाम निशानियों जैसे जाति प्रथा या स्त्रियों की असमानता को अतीत में धार्मिक मान्यता प्राप्त रही है। साथ ही सोशल कांफ्रेन्स, भारत सेवक समाज जैसे कुछ अन्य संगठनों तथा ईसाई मिशनरियों ने भी समाज सुधार के लिए जमकर काम किया। ज्योतिबा, गोबिन्द फूले, गोपाल हरि देशमुख, जस्टिस रनाडे, के-टी- तेलंग, बी-एन- मालबारी, डी-के- कर्वे, शशिपद बनर्जी, विपिन चन्द्र पाल, वीरेशलिंगम, ई- वी- रामास्वामी नायकर पेरियार और भीमराव अम्बेडकर तथा दूसरे प्रमुख व्यक्तियों की भी एक प्रमुख भूमिका रही। बीसवीं सदी के और खासकर 1919 के बाद राष्ट्रीय आंदोलन समाज सुधार का प्रमुख प्रचारक बन गया। जनता तक पहुंचने के लिए सुधारकों ने प्रचार कार्य में भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक सहारा लिया। उन्होंने अपने विचारों को फैलाने के लिए उपन्यासों, नाटकों, काव्य, लघु कथाओं प्रेस तथा 1930 के दशक में फिल्मों का भी उपयोग किया।
उन्नीसवीं सदी में कुछ मामलों में समाज सुधार का र्काय धर्म-सुधार से जुड़ा था, मगर बाद के वर्षों में यह अधिकाधिक धर्मनिरपेक्ष होता गया। इसके अलावा रुढि़वादी धार्मिक दृष्टिकोण वाले अनेक व्यक्तियों ने भी इसमें भाग लिया। इसी तरह आरंभ में समाज-सुधार बहुत कुछ ऊंची जातियों के नवशिक्षित भारतीयों द्वारा अपने सामाजिक व्यवहार का आधुनिक पश्चिमी संस्कृति व मूल्यों के साथ तालमेल बिठाने के प्रयासों का परिणाम था। लेकिन धीरे-धीरे इसका क्षेत्र व्यापक होकर समाज के निचले वर्गों तक फैल गया और यह सामाजिक क्षेत्र की क्रांतिकारी पुनर्रचना व आदर्शों को लगभग सार्वजनिक मान्यता मिली तथा आज वे भारतीय संविधान के अंग हैं।
समाज-सुधार के आंदोलनों ने मुख्यतः दो लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयास किएः (अ) स्त्रिें की मुक्ति तथा उनको समान अधिकार देना तथा (ब) जाति प्रथा की जड़ताओं को समाप्त करना तथा खासकर छुआछूत का खात्मा।
स्त्रियों की मुक्ति- भाारत में स्त्रियां अनगिनत सदियों से पुरुषों की अधीन तथा सामाजिक उत्पीड़न का शिकार रही है। भारत प्रचलित विभिन्न धर्मों व उन पर आधारित गृहस्थ-नियमों ने स्त्रियों को पुरुषों से ही स्थान दिया। इस संबंध में उच्च वर्गों की स्त्रियों की स्थिति किसान औरतों से भी बदतर थी। चूंकि किसान स्त्रियों अपने पुरुषों के साथ खेतों में काम करती थीं, इसलिए उनको बाहर आने-जाने की कुछ अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, और परिवार में उनकी स्थिति उच्च वर्गों की स्त्रियों से कुछ मामलों में बेहतर थी। उदाहरण के लिए, वे शायद को पुनर्विवाह के अधिकार प्राप्त थे।
पारंपरिक विचारधारा में पत्नी और माँ की भूमिका में स्त्री की प्रशंसा तो की गई है मगर व्यक्ति के रूप में उसे बहुत हीन सामाजिक स्थान दिया गया है। अपने पति से अपने संबंधों से अलग उसका भी एक प्रतिभा या इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए घरेलू महिला से भिन्न कोई अन्य भूमिका उसे प्राप्त न थी। वास्तव में, उसे पुरुष का पुछल्ला मात्र माना गया। उदाहरण के लिए हिन्दूओं में किसी स्त्रि का एक ही विवाह संभव था, मगर किसी पुरुष को अनेक पत्नियों रखने की अधिकार था। मुसलमानों में यह बहुपत्नी-प्रथा प्रचलित थी। देश के काफी बड़े भाग में स्त्रियों को पर्दे में रखा जाता था। बाल-विवाह की प्रथा आम थी_ आठ-नौ वर्ष के बच्चे भी ब्याह दिए जाते थे। विधवाएं पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं और उन्हें त्यागी व बंदी जीवन बिताना पड़ता था। देश के अनेक भागों में सती-प्रथा प्रचलित थी जिसमें एक विधवा स्वयं को पति की लाश के साथ जला लेती थी।
हिन्दू स्त्री को उत्तराधिकारी में संपत्ति पाने का हक नहीं था, न उसे अपने दुखमय विवाह को रद्द करने को कोई अधिकार था। मुस्लिम स्त्री को संपत्ति में अधिकार मिलता तो था, मगर पुरुषों का केवल आधा और तलाक के बारे में स्त्री और पुरुष के बीच सैद्धांतिक समानता भी न थी। वास्तव में, मुस्लिम स्त्रियों तलाक से भयभीत रहती थीं। हिन्दू व मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक स्थिति तथा उनके मान-सम्मान भी मिलते-जुलते थे। इसके अलावा, दोनों ही सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पुरुषों पर पूरी तरह निर्भर थीं। अंतिम बात यह कि शिक्षा के लाभ उनमें से अधिकांश को प्राप्त नहीं थे। साथ ही, स्त्रियों का अपनी  दासता को स्वीकार कर लेने, बल्कि इसे सम्मान का प्रतीक समझने के पाठ भी पढ़ाए जाते थे। यह सही है कि भारत में कभी-कभी रजिया सुल्ताना, चांद बीवी तथा अहिल्याबाई होलकर अपवाद हैं और इनसे सामान्य स्थिति में कोई अंतर नहीं आता।
उन्नीसवीं सदी के मानवतावाद व समानतावादी विचारों से प्रेरित होकर समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए एक शक्तिशाली आन्दोलन छेड़ा। कुछ सुधारकों ने व्यक्तिवाद तथा समानता के सिद्धांतों का सहारा लिया, तो दूसरों ने घोषणा की कि हिन्दू धर्म,  इस्लाम या जरथुष्ट मत स्त्रियों की हीन स्थिति के प्रचारक नहीं है और वह कि सच्चा धर्म उन्हें एक ऊंचा सामाजिक दर्जा देता है।
अनेकानेक व्यक्तियों, सुधार समितियों तथा धार्मिक संगठनों  ने स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने, विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने, विधवाओं की दशा सुधारने, बाल-विवाह रोकने, स्त्रियों के पर्दे से बाहर लाने, एक पत्नी प्रथा प्रचलित करने और मध्यवर्गीय स्त्रियों को व्यवसाय या सरकारी रोजगार में जाने के योग्य बनाने के लिए कड़ी मेहनत की। 1880 के दशक में तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड डफरिन की पत्नी लेडी डफरिन के नाम पर जब डफरिन अस्पताल खोले गए तो आधुनिक औषधियों तथा प्रसव को आधुनिक तकनीकों के लाभ भारतीय स्त्रियों को उपलब्ध कराने के प्रयास भी किए गए।
बीसवीं सदी में जुझारू राष्ट्रीय आंदोलन के उदय से स्त्री मुक्ति के आंदोलन को बहुत बल मिला। स्वतंत्रता के संघर्ष में स्त्रियों ने एक सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका होम रूल आंदोलन में उन्होंने बड़ी संख्या में भाग लिया। 1918 के बाद वे राजनीतिक जुलूसों में भी चलने लगी, विदेशी वस्त्र और शराब बेचने वाली दुकानों पर धरने देने लगीं, और खादी बुनने तथा उसका प्रचार करने लगीं। असहयोग आंदोलनों में वे जेल गई तथा जन प्रदर्शनों में उन्होंने लाठी, आंसू-गैस और गोलियां भी झेलीं। उन्होंने क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। वे विधानमंडलों के चुनावाें में वोट देने तथा उम्मीदवारों के रूप में खड़ी भी होने लगीं। प्रसिद्ध कवियत्री सरोजिनी नायडू राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता बनीं। अनेक स्त्रियां 1937 में बनी जनप्रिय सरकारों में मंत्री या संसदीय सचिव बनीं।
उनमें से सैकड़ों नगरपालिकाओं तथा स्थानीय शासन की दूसरी संरचनाओं की सदस्यता तक बनीं। 1920 के दशक में जब ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन खड़े हुए तो अक्सर स्त्रियां उनकी पहली पंक्तियों में दिखाई देतीं। भारतीय स्त्रियों की जागृति तथा मुक्ति में सबसे महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का रहा। कारण कि जिन्होंने ब्रिटिश जेलों तथा गोलियों को झेला था उन्हें ही भला कौन कह सकता था और उन्हें अब कब तक घरों में कैद रखकर गुडि़या या दासी के जीवन से बहलाया जा सकता था? मनुष्य के रूप में अपने अधिकारी का दावा उन्होंने करना ही करना था।
एक और प्रमुख घटनाक्रम देश में महिला आंदोलन का जन्म था। 1920 के दशक तक प्रबुद्ध पुरुषगण स्त्रियों के कल्याण के लिए कार्यरत रहे। अब आत्मचेतन तथा आत्माविश्वास प्राप्त स्त्रियों ने यह काम संभाला। इस उद्देश्य से उन्होंने अनेक संस्थाओं और संगठनों को खड़ा किया। इनमें सबसे प्रमुख था आल इंडिया वूमेन्स कांफ्रेन्स जो 1927 में स्थापित हुआ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष में बहुत तेजी आई। भारतीय संविधान (1950) की धारा 14 वे 15 में स्त्री व पुरुष की पूर्ण समानता की गारंटी दी गई है। 1956 के हिन्दू उत्तराधिकारी कानून ने पिता की संपत्ति में बेटी को बेटे के बराबर अधिकार दिया। 1955 के हिन्दू विवाह कानून में कुद विशिष्ट आधारों पर विवाह-संबंध भंग करने की छूअ दी गई। स्त्री पुरुष दोनों के लिए एक विवाह अनिवार्य बना दिया गया। लेकिन दहेज लेने और देने, दोनों पर प्रतिबंध है। संविधान स्त्रियों को भी काम करने तथा सरकारी संस्थाओं में नौकरी करने के समान अधिकार देता है। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत में स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धांत भी शामिल हैं। स्त्रियों की समानता के सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने में अभी भी निश्चित ही अनेक स्पष्ट और अस्पष्ट बाधाएं हैं। इसके लिए एक समुचित सामाजिक वातावरण का निर्माण आवश्यक है। फिर भी समाज-सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम, स्त्रियों के अपने आंदोलन तथा स्वतंत्र भारत के संविधान ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किए हैं।
जाति-प्रथा के विरुद्ध संघर्ष-जाति व्यवस्था समाज-सुधार आंदोलन के हमले का एक और प्रमुख निशाना थी। इस समय हिन्दू अनगिनत जातियों में बंटे थे। कोई व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसी के नियमों के उसके जीवन का एक बड़ा भाग संचालित होता था। व्यक्ति किससे विवाह करे तथा किसके साथ भोजन करे इसका निर्धारण  उसकी जाति से ही होता था। उसके पेशे तथा उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता का निर्धारण भी बहुत कुछ इसी से होता था। इसके अलावा जातियों को भी सावधानीपूर्वक अनेक ऊंचे-नीचे दर्जे में रखा गया था। इन व्यवस्था में सबसे नीचे अछूत आते थे जो हिन्दू आबादी का लगभग 20 प्रतिशत भाग थे_ इन्हीं को बाद में अनुसूचित जातियां कहा गया। ये अछूत अनेकों कठोर निर्योग्यताओं और प्रतिबंधों से पीडि़त थे जो विभिन्न जगहों में भिन्न-भिन्न थीं। उनके स्पर्श मात्र से किसी व्यक्ति को अपवित्र माना जाता था।
देश के कुछ भागों में और खासकर दक्षण में लोग उनकी छाया तक से बचते थे और इसलिए किसी ब्राह्मण को आता जनकर इन अछूतों को बहुत दूर हट जाना पड़ता था। अछूतों के खाने-पहनने और रहने के स्थान पर भी कड़े प्रतिबंध थे। वह ऊंची जातियों के कुओं, तालाबों से पानी नहीं ले सकता था, इसके लि अछूतों के लिए कुछ  तालाब और कुएं निश्चित होते थे। जहां ऐसे कुएं और तालाब न होते वहां उनको पोखरों और सिंचाई की नालियों का गंदा पानी पीना होता था। वे हिन्दू मंदिरों में जा नहीं सकते और न शास्त्र पढ़ सकते थे। अक्सर उनके बच्चे ऊंची जातियों के बच्चों के स्कूल में नहीं जा पाते थे। पुलिस तथा सेना जैसी सरकारी नौकरियां उनके लिए नहीं थी। अछूतों को अपवित्र समझे जाने वाले गंदे काम, जैसे-झाडू़-बुहारु, जूते, बनाना, मुर्दे उठाना, मुर्दा जानवरों की खाल निकालना, खालों तथा चमड़ों को पकाना-कमाना, आदि काम करने पड़ते थे। वे जमीन के मालिक नहीं बन सकते थे और उनमें से अनेकों को बंटाईदारी या खेल-मजदूरी करनी पड़ती थी।
जाति-प्रथा की एक और बुराई भी थी। यह अपमानजनक, अमानवीय और जन्मत असमानता के जनतंत्र-विरोधी सिद्धांत पर आधारित तो थी ही, साथ ही यह सामाजिक विघटन का कारण भी थी। इसने लोगों को अनेकों समूहों में बांटकर रख दिया गया था। आधुनिक काल में यह प्रथा एकता की राष्ट्रीय भावना के विकास और जनतंत्र के प्रसार में एक प्र्रमुख बाधा रही है। यहां यह भी कह दिया जाए कि जातिगत चेतना, खासकर विवाह-संबंधों के बारे में, मुसलमान, ईसाइयों तथा सिखों में भी रही है, तथा वे भी कम उग्र रूप में ही सही छुआछूत का पालन करते रहे हैं।
ब्रिटिश शासन ने ऐसी अनेक शक्तियों को जन्म दिया जिन्होंने धीरे-धीरे जाति-प्रथा की जड़ों को कमजोर किया। आधुनिक उद्योेगों, रेलों व बसों के आरंभ से तथा बढ़ते नगरीकरण के कारण खासकर शहरों में विभिन्न जातियों के लोगों के बीच संपर्क को अपरिहार्य बना दिया है। आधुनिक व्यापार-उद्योग ने आर्थिक कार्यकलाप के नए क्षेत्र सभी के लिए पैदा किए हैं। उदाहरण के लिए एक ब्रह्मण या किसी और ऊंची जाति का व्यापारी चमड़े या जूते के व्यापार का अवसर भी शायद ही छोड़े और न ही वह डॉक्टर या सैनिक बनने का अवसर छोड़ेगा। जमीन की खुली बिक्री ने अनेक गांवों में जातीय संतुलन को बिगाड़कर रख दिया है। एक आधुनिक औद्योगिक समाज में जाति और व्यवसाय का पुराना संबंध चल सकना कठिन है क्योंकि इस समाज में मुनाफा प्रमुख प्रेरणा बनता जा रहा है।
प्रशासन के क्षेत्र में, अंग्रेजों ने कानून के सामने सबकी समानता का सिद्धांत लागू किया, जातिगत पंचायतों से उनके न्यायिक काम छीन लिए, और प्रशासकीय सेवाओं के दरवाजे धीरे-धीरे सभी जातियों के लिए खोल दिए। इसके अलावा नई शिक्षा प्रणाली पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है और इसलिए वह मूलतः जातिगत भेदों तथा जातिगत दृष्टिकोण की विरोधी है।
जब भारतीयों के बीच आधुनिक जनतांत्रिक व बुद्धिवादी विचार फैले तो उन्होंने जाति-प्रथा के खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया। ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफी, सोशल कांफ्रेंस तथा उन्नीसवीं सदी के लगभग सभी महान सुधारकों ने इस पर हमले किए। हालांकि उनमें से बहुतों ने चार वर्णों की प्रथा का पक्ष भी लिया, मगर वे भी जाति-प्रथा के आलोचक थे। उन्होंने खास तौर पर छुआछूत की अमानवीय प्रथा की निंदा की। उन्होंने यह भी महसूस किया कि राष्ट्रीय एकता तथा राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रें में राष्ट्रीय प्रगति तब तक असंभव है जब तक कि लाखों-लाख लोग सम्मान से जीने के अधिकार से वंचित हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन के विकास ने भी जाति-प्रथा को कमजोर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय आंदोलन उन तमाम संस्थाओं का विरोधी था जो भारतीय जनता को बांटकर रखती थीं। जन-प्रदर्शनों, विशाल जनसभाओं तथा सत्याग्रह के संघर्षों में सबकी भागीदारी ने भी जातिगत चेतना को कमजोर  बनाया। कुछ भी हो, वे लोग जो स्वाधीनता और स्वतंत्रता के नाम पर विदेशी शासन से मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, जाति-प्रथा का समर्थन नहीं कर सकते थे, क्योंकि यह उन सिद्धांतों की विरोधी थी। इस तरह आरंभ से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, बल्कि पूरे राष्ट्रीय आंदोलन ने जातिगत विशेषाधिकारी का विरोध किया और जाति लिंग के भेदभाव के बिना व्यक्ति के विकास के लिए समान नागरिक अधिकारों तथा समान स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते रहे।
गांधीजी अपनी सार्वजनिक गतिविधियों में छुआछूत के खात्में को जीवन भर एक प्रमुख काम मानते रहे। 1932 में उन्होंने इस उद्देश्य से अखिल भारतीय हरिजन संघ की स्थापना की। अस्पृश्यता का जड़-मूल से उन्मूलन का उनका आंदोलन मानवतावाद और बुद्धिवाद पर आधारित था। उनका तर्क कि हिन्दू शास्त्रें में छुआछूत को कोई मान्यता नहीं दी गई है। लेकिन अगर कोई शास्त्र छूआछूत का समर्थन करे तो उसे नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह तब मानव सम्मान के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि सत्य किसी पुस्तक के पन्नों तक सीमित नहीं होता।
उन्नीसवीं सदी के मध्य से अनेक व्यक्तियों व संगठनों ने अछूतों के बीच शिक्षा प्रसार का काम आरंभ किया (इन अछूतों को बाद में कमजोर वर्ग या अनुसूचित जातियां कहा गया)। इनके लिए स्कूलों तथा मंदिरों के दरवाजे खुलवाने, सार्वजनिक कुओं और तालाबों से उन्हें पानी भरने का अधिकार दिलाने तथा उनको उत्पीडि़त करने वाली अन्य सामाजिक निर्योग्यताओं और भेदभावों को नष्ट करने के प्रयास किए गए।
शिक्षा तथा जागृति फैली तो निचली जातियों में भी हलचल होने लगी। वे अपने मूल मानव अधिकारों को प्रति सचेत हुए तथा उनकी रक्षा के लिए उठकर खड़े होने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने ऊंची जातियों के परंपरागत उत्पीड़न के खिलाफ एक शक्तिशाली आंदोलन खड़ा किया। महाराष्ट्र में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में एक निचली जाति में जन्में ज्योतिबा फूले में ब्राह्मणों की धार्मिक सत्ता के खिलाफ जीसन भर आंदोलन चलाया। यह ऊंची जातियों के प्रभुत्व के खिलाफ उनके संघर्ष का एक अंग था वे आधुनिक शिक्षा को निचली जातियों की मुक्ति का सबसे शक्तिशाली अस्त्र समझते थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने निचली जातियों की लड़कियों के लिए अनेक स्कूल खोले। डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने जो खुद एक अनुसूचित जाति के थे, अपना पूरा जीवन जातिगत अत्याचार विरोधी संघर्ष को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ की स्थापना की। अनुसूचित जातियों के दूसरे अनेक नेताओं ने अखिल भारतीय वंचित वर्ग संघ स्थापना की।
केरल में श्री नारायण गुरू ने जाति-प्रथा के खिलाफ जीवन भर संघर्ष चलाया। उन्होंने ही मानव जाति के लिए एक धर्म, एक जाति और एक ईश्वर का प्रसिद्ध नारा दिया। दक्षिण में ब्राह्मणों द्वारा लादी गई निर्योग्यताओं का मुकाबला करने के लिए गैर-ब्राह्मणों ने 1920 के दशक में एक आत्मसम्मान आंदोलन चलाया। पूरे भारत में मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मानाही तथा दूसरे प्रतिबंधों के खिलाफ ऊंची तथा निलची जातियों के लोगों ने मिलकर अनेक सत्याग्रह आंदोलन चलाए।
फिर भी, छुआछूत विरोधी संघर्ष विदेशी शासन में पूरी तरह सफल नहीं हो सकता था। विदेशी सरकार समाज के रुढि़वादी तत्वों की शत्रुता मोल लेने से डरती थी। समाज के मूलभूत सुधार का काम केवल स्वतंत्र भारत की सरकार कर सकती थी। इसके अलावा, सामाजिक कल्याण का काम राजनीतिक-आर्थिक कल्याण से गहराई से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, कमजोर वर्गों की सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए आर्थिक प्रगति आवश्यक है_ शिक्षा तथा राजनीतिक अधिकारों के प्रसार के साथ भी यही बात है। इस बात को भारतीय नेताओं ने अच्छी तरह समझा था।
1950 के संविधान ने अंततः छुआछूत के खात्मे के लिए एक कानूनी आधार तैयार किया। इसने घोषणा की कि अस्पृश्यता समाप्त की जा चुकी है और किसी रूप में इसका पालन मना है। छुआछूत के आधार पर किसी पर कोई भी निर्योग्यता लादना एक अपराध होगा जिसके लिए कानून के अनुसार दंड दिया गया। संविधान कुओं, तालाबों या नहाने के घाटों के उपयोग पर या दुकानों, रेस्तराओं, होटलों और सिनेमाघरों में किसी के प्रवेश पर रोक लगाने से भी मना करता है। इसके अलावा भावी सरकारों के मार्गदर्शन के लिए जो नीति-निर्देशक सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं उनमें से एक में यह बात कही है कि ‘‘राज्य जनकल्याण को प्रोत्साहित करने का प्रयास करेगा, और इसके लिए जितने प्रभावी ढंग से संभव हो सके, एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था लाने तथा उसकी रक्षा करने का प्रयास करेगा जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं का आधार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हो।’’ फिर भी जाति प्रथा की बुराइयों के खिलाफ संघर्ष, खासकर ग्रामीण क्षेत्रें, में, अभी भी भारतीय जनता का एक प्रमुख कार्यभार है।

संवैधाानिक विकास (1773-1950)

1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट
ईस्ट इंडिया कम्पनी पर संसदीय नियं=ण की शुरूआत।
बम्बई प्रेसीडेंसी को कलकता प्रेसीडेंसी के अधाीन कर दिया गया। जिसका प्रमुख गवर्नर जनरल होता था।
गवर्नर जनरल की कौंसिल में चार पार्षद होते थे, इनका कार्य काल पांच वर्ष का होता था।
गवर्नर जनरल इन कौंसिल को कम्पनी के सम्पूर्ण राज्य क्षे= के बेहतर शासन के लिए नियम, अधयादेश तथा विनिमय बनाने की शक्तियां प्रदान की गई थीं।
कलकता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इस न्यायालय में प्रधाान न्यायाधाीश के अतिरिक्त तीन न्यायाधाीश थे।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
1781 का बंगाल न्यायालय अधिानियम
रेग्यूलेटिंग एक्ट की =ुटियों को दूर करने के लिए लाया गया।
सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों एवं न्यायाधिाकार की व्याख्या की गई।
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के ऊपर अपने प्रभाव को और मजबूत करने के लिए 1784 का पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया।
पिट्स इंडिया एक्ट के विवाद को लेकर ही लार्ड नार्थ एवं फ़ाक्स की मिली जुली सरकार को त्याग प= देना पडा। यह पहला और अन्तिम अवसर था जब किसी भारतीय मामले पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी हो।
कम्पनी के वाणिज्य संबंधाी विषयों को छोडकर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधाी मामलों को एक नियं=ण बोर्ड के अधाीन कर दिया गया।
भारत में प्रशासन गवर्नर जनरल तथा उसकी चार के स्थान पर तीन सदस्यों वाली परिषद के हाथों दे दिया गया।
भारत में कम्पनी द्वारा अधिाड्डत प्रदेशों को पहली बार ब्रिटिश अधिाड्डत भारतीय प्रदेश का नाम दिया गया।
ब्रिटिश सरकार में एक अलग विभाग खोला गया जिसका एकमा= प्रकार्य कंपनी के निदेशकों तथा भारतीय प्रशासन पर नियं=ण रखना था।
इस अधिानियम द्वारा दोहरी शासन प्रणाली की शुरूआत हुई जो 1858 तक चलती रही - एक कंपनी के द्वारा तथा दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेंसियां भी गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधाीन कर दी गई।
1793 का चार्टर एक्ट
इस अधिानियम द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिाकारों को 20 वर्ष के लिए बढा दिया गया।
मुख्य सेना पति को गवर्नर जनरल की परिषद का स्वतः ही सदस्य होने का अधिाकार समाप्त हो गया।
1813 का चार्टर एक्ट
इस एक्ट द्वारा कम्पनी का भारतीय व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया यद्यपि उसके चीन के तथा चाय के व्यापार का एकाधिाकार चलता रहा।
प्रथम बार अंग्रेजों की भारत पर संवैधाानिक स्थिति स्पष्ट की गई थी।
1813 के अधिानियम से नियं=ण बोर्ड की अधाीक्षण तथा निर्देशन की शक्ति को न केवल परिभाषित अथवा स्पष्ट किया गया अपितु उसका पर्याप्त रूप से विस्तार किया गया।
जिस बात ने इस एक्ट को महत्वपूर्ण बना दिया वह था शिक्षा के मद में 1 लाख रूपए वार्षिक खर्च करना।
1833 का चार्टर एक्ट
1833 के चार्टर एक्ट पर इंगलैण्ड की औद्योगिक क्रांति, उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फ़ेयर के सिद्धांत की छाप थी।
नियं=ण बोर्ड के सचिव मेकाले तथा बेंथम के शिष्य जेम्स मिल का प्रभाव 1833 के चार्टर एक्ट पर स्पष्ट रूप से प्रतिधवनित होता है।
इस अधिानियम ने कम्पनी को 20 वर्षो के लिए नया जीवन दिया तथा उसे एक ट्रस्टी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
कम्पनी के व्यापारिक अधिाकार समाप्त कर दिए गए और उसे भविष्य में केवल राजनैतिक कार्य ही करने थे।
इस अधिानियम से कम्पनी के डायरेक्टर के संरक्षण को कम कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा भारत के प्रशासन का केन्द्रीकरण कर दिया गया।
बंगाल का गवर्नर जनरल भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
सपरिषद् गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियं=ण, निरीक्षण तथा निर्देशन सौंप दिया गया।
बम्बई, मद्रास तथा बंगाल एवं अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियं=ण में दे दिए गए।
सभी कर गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही लगाए जाने थे और उसे ही इसके व्यय का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने की शक्ति का भी केन्द्रीकरण कर दिया गया अब केवल सपरिषद गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में एक विधिा सदस्य चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित कर लिया गया। सैद्वांतिक रूप से उसे केवल कानून बनाते समय परिषद की बैठक में भाग लेने तथा मत देने का अधिाकार था।
सर्वप्रथम मैकाले को विधिा सदस्य के रूप में गवर्नर जनरल की परिषद में शामिल किया गया।
इस एक्ट की धाारा 87 के अनुसार नियुक्तियों के लिए योग्यता संबंधाी मापदंड अपनाकर भेदभाव को समाप्त किया गया।
कम्पनी के भारतीय चाय तथा चीन के व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा दासता को अवैधा घोषित किया गया।
कम्पनी के ऋणों की जिम्मेदारी भारत सरकार ने अपने ऊपर ले ली।
1853 का चार्टर एक्ट
भारत के लिए एक पृथक विधाान परिषद की स्थापना की गई, इस परिषद की कार्यप्रणाली अंग्रेजी संसद के अनुसार निश्चित की गई।
डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें 6 क्राउन द्वारा मनोनीत किए जाने थे।
भारत में प्रशासकीय सेवाओं में नियुक्तियों को शासित करने के लिए नियम एवं विनियम तैयार करने के लिए नियं=क मंडल को अधिाड्डत किया गया।
सिविल सेवा परीक्षा भारतीय लोगों के लिए खोल दी गई और एक खुली प्रतियोगिता के माधयम से इस सेवा में प्रवेश संभव बनाया गया।
विधिा सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
विधाान सभा द्वारा पारित विधोयक को गवर्नर जनरल विटो कर सकता था।
परिषद में वाद-विवाद का रूप मौखिक था। परिषद का कार्य गोपनीय नहीं अपितु सार्वजनिक होता था।
विधाान परिषद एक प्रकार का एंग्लो इंडियन का हाउस ऑफ़ कामन्स बन गया।
1858 का अधिानियम
इस एक्टको एक्ट फ़ॉर द बेटर गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, नाम दिया गया।
1857 की क्रांति के दमन के बाद ब्रिटिश संसद ने इस अधिानियम को पारित किया।
इस अधिानियम द्वारा भारत का शासन कम्पनी से हटाकर क्राउन को हस्तांतरित कर दिया गया।
भारत का प्रशासन भारत विषयक मं=ी अथवा भारत राज्य सचिव जो कि ब्रिटिश कैबिनेट मंत्रियों में से एक था, को सौंप दी गई।
भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों वाली एक परिषद (8 की नियुक्ति क्राउन द्वारा तथा 7 की नियुक्ति बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा) का गठन किया गया।
अब तक निदेशक मंडल या नियं=ण मंडल द्वारा प्रयोग की जा रही समस्त शक्तियां भारत राज्य सचिव को सौंप दी गई।
इस प्रकार 1784 के पिटस इंडिया एक्ट के द्वारा लागू दोहरी शासन व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
भारत राज्य सचिव तथा उसके परिषद के खर्च का वहन भारतीय राजस्व से किया जाना था।
परिषद की भूमिका केवल परामर्शदाता की थी और प्रायः बहुत से मामलों में राज्य सचिव का निर्णय ही अन्तिम होता था।
गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधिा दी गई। वह क्राउन का सीधाा प्रतिनिधिा बन गया।
संभावित जानपद सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी जिसके लिए राज्य सचिव ने जानपद सेवा आयुक्तों की सहायता से नियम बनाए।
भारत के राज्य सचिव को निगम निकाय घोषित किया गया।
राज्य सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
1861 का भारतीय परिषद अधिानियम
1861 के अधिानियम ने भारत में प्रतिनिधिा संस्थाओं को जन्म दिया।
वायसराय की कार्यकारी परिषद में एक पांचवा सदस्य सम्मिलित कर दिया गया जो एक विधिावेता था।
वायसराय की परिषद को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई जिसके तहत लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरूआत की।
कैनिंग ने भिन्न-भिन्न विभाग भिन्न सदस्यों को दे दिए। इस प्रकार भारत सरकार की मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव रखी गई।
वायसराय की कार्यकारी परिषद का विस्तार किया गया। न्यूनतम संख्या 6 और अधिाकतम संख्या 12 निर्धाारित की गई।
इनको वायसराय मनोनीत करेगा और वे दो वर्षो तक अपने पद पर बने रहेंगे। इनमें से कम से कम आधो सदस्य गैर सरकारी होंगे।
विधाान परिषद का कार्य केवल कानून बनाना था, इसको प्रशासन अथवा वित अथवा प्रश्न इत्यादि पूछने का कोई अधिाकार नहीं था।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रांतों को अपने लिए कानून बनाने तथा उनमें संशोधान करने का अधिाकार दे दिया गया।
इन प्रांतीय परिषदों द्वारा बनाए गए कोई भी कानून उस समय तक वैधा नहीं माने जाएंगे जब तक कि वह गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त न कर ले।
गवर्नर जनरल को संकटकालीन अवस्था में विधाान परिषद की अनुमति के बिना ही अधयादेश जारी करने का अधिाकार दे दिया गया।
ये अधयादेश अधिाक से अधिाक छः महीने लागू रह सकते थे।
1892 का भारतीय परिषद अधिानियम
इस अधिानियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।
केन्द्रीय विधाान परिषद में न्यूनतम 10 तथा अधिाकतम सदस्य संख्या 16 निर्धाारित की गई।
वायसराय के सदस्यों के नामांकन का अधिाकार सुरक्षित रखा गया।
परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिाकार मिला।
सदस्य पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों को बम्बई तथा मद्रास में इस अधिानियम द्वारा न्यूनतम 8 तथा अधिाकतम 20 अतिरिक्त सदस्याें द्वारा बढ़ा दिया गया।
केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषद के सदस्यों को सार्वजनिक हितों के मामलों में 6 दिन की सूचना देकर प्रश्न पूछने का अधिाकार दिया गया।
इस अधिानियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधाान चुनाव पद्वति की शुरूआत करनी थी।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अधिाकारियों के अतिरिक्त 5 गैर सरकारी सदस्य होते थे, जिन्हें चार प्रांतों के प्रांतीय विधाान मण्डल के गैर सरकारी सदस्य तथा कलकता के वाणिज्य मंडल के सदस्य निर्वाचित करते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों के सदस्यों को नगरपालिकाएं, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय तथा वाणिज्य मंडल निर्वाचित करते थे।
निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी तथा निर्वाचित सदस्यों को मनोनीत की संज्ञा दी जाती थी।
1909 का भारतीय परिषद एक्ट (मॉरले-मिण्टो सुधाार)
मॉरले - भारत राज्य सचिव
मिण्टो - गवर्नर जनरल
फ़रवरी 1909 में पारित
1909 के अधिानियम द्वारा भारतीयों को विधिा निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधिात्व प्रदान किया गया।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अतिरिक्त सदस्यों की अधिाकतम संख्या 60 कर दी गई।
इनमें 37 शासकीय तथा 32 अशासकीय वर्ग के थे।
शासकीय सदस्यों में 9 पदेन सदस्य थे तथा 28 सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए गए जाते थे।
32 अशासकीय सदस्यों में 5 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए जाते थे और शेष 27 निर्वाचित होते थे।
निर्वाचक मंडल को तीन भागों में बांटा गया था - साधाारण निर्वाचक मंडल, वर्गीय निर्वाचन मंडल तथा विशिष्ट निर्वाचक मंडल।
इस अधिानियम द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिाकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रें की स्थापना की गई।
इस अधिानियम द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के साथ-साथ प्रांतीय कार्यकारी परिषदों में भी एक भारतीय व्यक्ति की नियुक्ति का प्रावधाान किया गया था।
बंगाल, मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी संख्या बढाकर 4 कर दी गई।
परिषद के सदस्यों को विदेशी संबंधाों तथा देशी राजाओं से संबंधाों, कानून के सामने निर्णय के लिए आए प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं थी।
एक्ट पर विचार
महात्मा गांधाी - मॉरले मिण्टो सुधाारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया।
के- एम- मुंशी - इन्होंने उभरते हुए प्रजातं= को मार डाला।
मॉरले - पृथक निर्वाचन मंडल स्थापित करके हम नाग के दांत बो रहे हैं और इसका फ़ल भीषण होगा।
मजूमदार - 1909 के सुधाार केवल चन्द्रमा की चांदनी के समान हैं।
1919 का भारत सरकार अधिानियम (मॉटफ़ोर्ड या मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधाार)
इस अधिानियम में पहली बार उतरदायी शासन शब्द का प्रयोग किया गया।
प्रांतों में आतंरिक उतरदायी शासन तथा द्वैधा शासन की स्थापना की गई।
1793 से भारत राज्य सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था अब वह अंग्रेजी राजस्व से मिलना था।
केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिाक प्रभावशाली भूमिका दी गई। वायसराय की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किए गए और उन्हें विधिा, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा उद्योग आदि विभाग सौंपे गए।
इस अधिानियम के अनुसार सभी विषयां को केन्द्र तथा प्रांतों में बांट दिया गया।
केन्द्र सूची के विषय - विदेशी मामले, रक्षा, डाक-तार सार्वजनिक ऋण आदि।
प्रांतीय सूची के विषय - स्थानीय स्वशासन, शिक्षा चिकित्सा, भूमिकर, ड्डषि, अकाल सहायता आदि।
सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास थीं।
क्ेन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गई - एक सदन राज्य परिषद तथा दूसरा केन्द्रीय विधाान सभा।
राज्य परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निश्चित की गई (34 निर्वाचित तथा 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत)।
केन्द्रीय विधाान सभा में सदस्यों की संख्या 145 निर्धाारित की गई (104 निर्वाचित तथा 41 मनोनीत, मनोनीत सदस्यों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय)।
द्विसदनीय केन्द्रीय विधाान मंडल को पर्याप्त शक्तियां दी गई। यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी।
सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी। प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पर कोई रोक नहीं थी। सदस्यों को बोलने का अधिाकार तथा स्वतं=ता थी।
इस विधोयक के तहत प्रांतों में द्वैधा शासन प्रणाली लागू की गई।
प्रांतीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - आरक्षित तथा हस्तांतरित।
आरक्षित विषयों पर प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था जिन्हें वह मनोनीत करता था।
हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल निर्वाचित सदस्यों के द्वारा करता था।
1919 के अधिानियम के द्वारा पंजाब में सिक्खों को कुछ प्रांतों में यूरोपीयनों, एंग्लों इंडियन को पृथक प्रतिनिधिात्व दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गई और मताधिाकार 3 प्रतिशत से बढाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया।
भारत शासन अधिानियम 1935
सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गई।
संघ के अधाीन तीन इकाइयां रखी गई थीं
क) ब्रिटिश भारतीय प्रांत ख) चीफ़ कमीश्नरों के प्रांत
ग) देशी रियासतें
इस अधिानियम द्वारा प्रांतों में द्वैधा शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैधा शासन लागू किया गया।
संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - संरक्षित और हस्तांतरित।
संरक्षित विषय - प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धाार्मिक विषय और जनजातीय मामले।
इस अधिानियम की सबसे बड़ी विशेषता प्रांतीय स्वायतता की स्थापना थी।
इस अधिानियम के अन्तर्गत प्रांतीय विधाान मंडलों का विस्तार किया गया।
इस अधिानियम द्वारा बर्मा को भारत से पृथक कर दिया गया।
दो नए प्रांतों सिंधा तथा उडीसा का निर्माण हुआ, प्रशासन के लिए बरार को मधय प्रांत का अंग बना दिया गया।
गवर्नर जनरल के सभी कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह से होते थे। इंडिया कौंसिल का अन्त कर दिया गया।
मताधिाकार का विस्तार किया गया, प्रांतों के करीब 11 प्रतिशत जनता को मतदान का अधिाकार दिया गया।
1935 के अधिानियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया -
1- संघ सूची 2- प्रांतीय सूची
3- समवर्ती सूची
संघ सूची में 59 विषय थे, प्रांतीय सूची में 54 विषय थे तथा समवर्ती सूची में 36 विषय थे।
अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनाएगा।
इस अधिानियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
संघीय न्यायालय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा कसती थी। संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिाकारिता प्राप्त थी।
प्रारंभिक, अपीलीय, तथा परामर्शदा=ी।
प्रारंभिक अधिाकारिता के अन्तर्गत संघीय न्यायालय संविधाान के उपबंधाों का निर्वाचन करता था या उससे संबंधिात विवादाेंं का।
अपीलीय अधिाकारिता के अन्तर्गत संघ न्यायालय भारत स्थित उच्च न्यायालयों के विनिश्चयों से अपील की सुनवाई करता था।
संघीय न्यायालय को सिविल तथा दांडिक मामलों में अपीलीय अधिाकारिता नहीं दी गई।
परामर्शदा=ी अधिाकारिता के अन्तर्गत गवर्नर जनरल को विधिा एवं तथ्य के किसी विषय पर सलाह देने का अधिाकार प्राप्त था।
नेहरू ने 1935 के अधिानियम के बारे में कहा कि ‘यह अनेक ब्रेकों वाला इंजन रहित गाड़ी के समान है।’

1857 का विद्रोह

सन् 1857 ई- में उत्तरी और मध्य भारत में एक शक्तिशाली जनविद्रोह उठ खड़ा हुआ और उसने ब्रिटिश शासन की जड़ें तक हिलाकर रख दी। इसका आरंभ तो कंपनी की सेना के भारतीय सिपाहियों से हुआ, लेकिन जल्द ही एक व्यापक क्षेत्र के लोग भी इसमें शामिल हो गये। लाखों-लाख किसान, दस्तकार तथा सिपाही एक साल से अधिक समय तक बहादुरी से लड़ते रहे और अपनी मिसाली वीरता और बलिदानों से उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नया शानदार अध्याय जोड़ा।
सामान्य कारण
1857 का विद्रोह सिपाहियों के असंतोष का परिणाम मात्र नहीं था। वास्तव में यह औपनिवेशिक शासन के चरित्र, उसकी नीतियों, उसके कारण कंपनी के शासन के प्रति जनता के संचित असंतोष का और विदेशी शासन के प्रति उनकी घृणा का परिणाम था। एक शताब्दी से अधिक समय तक अंग्रेज इस देश पर धीरे-धीरे अपना अधिकार बढ़ाते जा रहे थे, और इस काल में भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में विदेशी शासन के प्रति जन-असंतोष तथा घृणा में वृद्धि होती रही। यही वह असंतोष था जो आखिर एक जनविद्रोह के रूप में भड़क उठा।
जन-असंतोष का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कारण अंग्रेजों द्वारा देश का आर्थिक शोषण तथा देश के परंपरागत आर्थिक ढांचे का विनाश था। इन दोनों बातों ने बहुत बड़ी संख्या में किसानों, दस्तकारों तथा हस्त-शिल्पियों को, और साथ ही बड़ी संख्या में परंपरागत जमींदारों तथा मुखिया लोगों को निर्धनता के मुंह में झोंक दिया। अंग्रेजों की जमीन और राजस्व संबंधी नीतियां तथा कानून और प्रशासन की व्यवस्था इस असंतोष के अन्य सामान्य कारण रहे। खासकर जमीन की बहुत अधिक लगान के कारण जमीन का मालिकाना अधिकार बहुत सारे किसानों के हाथ से निकलकर व्यापारियों तथा सूदखोरों के हाथों में चला गया और वे कर्ज के भारी बोझ तले दबकर रह गये। ये नए जमींदार उन परंपराओं से अपरिचित थे जो पुराने जमींदारों को किसानों से जोड़कर रखती थीं, और इसलिए उन्होंने लगान को बेपनाह बढ़ाकर किसानों को तबाह कर दिया। जो किसान लगान अदा नहीं कर सके, उनसे जमीनें छीन ली गईं। किसानों की इस तबाही का नतीजा उन 12 बड़े तथा अनेक छोटे अकालों के रूप में सामने आया जो 1770 और 1857 के बीच में फूटे। इसी तरह अनेक जमींदार भी भूराजस्व की मांगबढ़ाने के कारण परेशान हुए और उन्हें खतरा पैदा हो गया कि उनकी जमींदारी की जमीनें तथा अधिकार जब्त हो जायेंगे तथा गांव में उनकी स्थिति घट जायेगी। जब अधिकारियों, व्यापारियों तथा सूदखोरों जैसे शुद्ध रूप से बाहरी लोगों ने उनकी जगह ले ली तब अपनी स्थिति में गिरावट पर उनका असंतोष और बढ़ गया। इसके अलावा निचले स्तरों पर प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार ने साधारण जनता को बुरी तरह प्रभावित किया। पुलिस, छोटे अधिकारी तथा निचली अदालतें भ्रष्टाचार के मामले में बहुत बदनाम रहे। विद्रोह के कारणों की चर्चा करते हुए 1859 में एक ब्रिटिश अधिकारी, विलियम एडवर्ड ने लिखा है कि पुलिस को फ्जनता कोढ़-समान समझती थीय् और पुलिस का दमन और लूट-खसोट हमारी सरकार के प्रति जनता के असंतोष का एक प्रमुख कारण था। छोटे अधिकारी रैयत तथा जमींदारों को सताकर अपना घर भरने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। न्याय की पेचीदा प्रणाली का लाभ उठाकर धनी लोग गरीबों का दमन करते रहे। लगान भू-राजस्व या कर्ज पर चढ़ने वाले सूद का बकाया वसूल करने के लिए किसानों को कोड़े से पीटना, कष्ट देना या जेल भेज देना आम बातें थीं। अपनी बढ़ती गरीबी के कारण लोग हताश हो गये, तथा अपनी स्थिति में सुधार की आशा में आम विद्रोह में शामिल हो गये।
समाज के मध्य तथा उच्च वर्ग, खासकर उत्तर भारत में, प्रशासन के अच्छी आय वाले ऊंचे पदों में शामिल नहीं किये जाते थे। इसका उन पर बुरा असर पड़ा। एक के बाद एक देशी रजवाड़ों के नष्ट होने का नतीजा यह हुआ कि जो भारतीय इन रजवाड़ों के प्रशासन और अदालतों में ऊंचे पदों पर थे। वे जीविका के साधन खो बैठे। अंग्रेजों का अधिकार जमने के कारण जो लोग सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिए जीविका कमाते थे, वे भी बर्बाद हो गये। भारतीय शासक कला और साहित्य के संरक्षक थे और विद्वानों, धर्मगुरूओं तथा फकीरों आदि की सहायता करते रहे। जब इन शासकों के अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी ने छीन लिये तो यह संरक्षण भी एकाएक समाप्त हो गया और जो लोग इस पर निर्भर थे, वे गरीबी के चंगुल में जा फंसे। धर्मोपदेशकों, पंडितों और मौलवियों ने, जो यह महसूस कर रहे थे कि उनका पूरा भविष्य खतरे में है, विदेशी शासन के प्रति घृणा पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रिटिश सरकार की अलोकप्रियता का एक प्रमुख कारण उसका विदेशी होना भी था। अंग्रेज भारत में लगातार परदेशी ही बने रहे। उनके और भारतीय लोगों के बीच कोई संबंध या संपर्क नहीं रहा। पहले के विदेशी शासकों की तरह अंग्रेजों ने उच्च वर्गों के भारतीयों से भी सामाजिक मेल-जोल नहीं बढ़ाया। उल्टे, वे प्रजातीय श्रेष्ठता के नशे में चूर रहे तथा भारतीयों के साथ अपमानजनक और धृष्टतापूर्ण बर्ताव करते रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि अंग्रेज भारत में बसने, इसे अपना घर बनाने नहीं आये थे। उनका प्रमुख उद्देश्य धन कमाना तथा उस धन को लेकर ब्रिटेन लौटना होता था। भारत की जनता अपने नये शासकों के इस मूल विदेशी चरित्र को अच्छी तरह पहचानती थी। उन्होंने कभी भी अंग्रेजों को अपना शुभचिंतक नहीं माना और उनके एक-एक क्रियाकलाप को शंका की दृष्टि से देखते रहे। इस तरह उनके अंदर एक धुंधली-सी ब्रिटिश-विरोधी भावना पहले से मौजूद थी जो 1857 के विद्रोह से पहले भी अनेक अंग्रेज-विरोधी जनविद्रोहों में अभिव्यक्त होती रही।
जनता के बीच बढ़ते असंतोष के इस काल में कुछ ऐसी घटनाएं भी हुईं जिनसे अंग्रेज सेनाओं की अपराजेयता का भ्रम टूट गया और लोगों में यह विश्वास पनपने लगा कि ब्रिटिश शासन के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं। पहले अफगान युद्ध (1838-42), पंजाब के युद्धों (1845-49) तथा क्रीमियाई युद्ध (1854-56) में अंग्रेज सेनाओं की बुरी तरह पराजय हुई। 1855-56 में बिहार और बंगाल के संथाल कबीलों के लोग कुल्हाड़े तथा तीर-धनुष लेकर विद्रोह पर उतर आये और अपने क्षेत्र से कुछ समय के लिए ब्रिटिश शासन का सफाया करके उन्होंने एक जनविद्रोह की क्षमताओं को स्पष्ट कर दिया। हालांकि इन युद्धों में जीत आखिरकार अंग्रेजों की ही हुई और उन्होंने संथाल विद्रोह को भी कुचल डाला, फिर भी प्रमुख मुकाबलों में हुए नुकसानों से स्पष्ट हो गया कि एक एशियाई सेना भी डटकर लड़े तो अंग्रेज सेना को हरा सकती है। वास्तव में, अंग्रेजों की शक्ति को कम समझकर भारतीयों ने इस समय एक बड़ी राजनीतिक भूल की। इस भूल की एक बड़ी कीमत 1857 के विद्रोहियों को चुकानी पड़ी। परंतु साथ ही इस कारण के ऐतिहासिक महत्व को नहीं भूलना चाहिए। जनता केवल इसलिए विद्रोह नहीं करती कि वह अपने शासकों को उखाड़ फेंकना चाहती है_ इसके साथ्ा ही उसमें यह भरोसा भी होना चाहिए कि यह काम वह कामयाबी के साथ कर सकती है।
1856 में लार्ड डलहौजी ने अवध को ब्रिटिश शासन में मिला लिया। पूरे भारत में तथा खास तौर पर अवध में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। विशेष रूप से, इसके कारण अवध में और कंपनी की सेना में विद्रोह का वातावरण बन गया। डलहौजी के इस काम से कंपनी के सिपाही नाराज हो गये_ इन सिपाहियों में 75,000 अवध के थे। अखिल भारतीय भावना के अभाव में इन सिपाहियों ने बाकी भारत को जीतने में अंग्रेजों की सहायता की थी। लेकिन उनके अंदर क्षेत्रीय और स्थानीय निष्ठा थी और उन्हें यह बात बुरी लगी कि उनका अपना प्रांत विदेशी अधिकार में आ गया था। इसके अलावा, अवध के अधिग्रहण के कारण सिपाहियों की आय पर भी बुरा असर पड़ा। अब अवध में उनके परिवारों के पास जो जमीनें थीं उन पर उन्हें अधिक टैक्स देने पड़ रहे थे।
अवध के अधिग्रहण के लिए डलहौजी ने जो तर्क दिया था, वह यह था कि वह जनता को नवाब के कुप्रबंध से तथा तालुकदारों के दमन से मुक्ति दिलाना चाहता था। परंतु वास्तव में जनता को कोई राहत नहीं मिली। उल्टे, साधारण जनता को अब पहले से अधिक भू-राजस्व तथा खाने-पीने की वस्तुओं, मकानों, खोमचों तथा ठेलों, अफीम और न्याय पर अधिक टैक्स देने पड़ रहे थे। नवाब का प्रशासन तथा सेना भंग होने से हजारों कुलीन तथा भद्र लोग, अधिकारी तथा उनके साथ-साथ उनके अमले के लोग तथा सिपाही बेरोजगार हो गये। लगभग हर किसान के घर में कोई न कोई बेरोजगार हुआ। इसी तरह जो व्यापारी, दुकानदार तथा दस्तकार अवध के दरबार तथा कुलीनों की सेवा करते थे, उनकी भी जीविका चली गई। इसके अलावा, अधिकांश तालुकदारों तथा जमींदारों की जागीरें भी अंग्रेजों ने जब्त कर लीं। संपत्तिहीन बने इन तालुकदारों की संख्या लगभग 21,000 थी। अपनी खोई जागीरों और सामाजिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए बेचैन ये लोग ब्रिटिश शासन के सबसे खतरनाक दुश्मन बन गये।
डलहौजी द्वारा अवध तथा कई अन्य राज्यों के अधिग्रहण ने देशी रजवाड़ों के शासकों में खलबली मचा दी। अब उन्हें पता चला कि अंग्रेजों के प्रति उनके झुक-झुककर वफादारी जताने के बाद राज्य फैलाने की अंग्रेजों की भूख शांत नहीं हुई। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि अंग्रेजों की राजनीतिक प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा धक्का लगा। कारण कि भारतीय शासकों के प्रति अपने मौखिक या लिखित वादों तथा समझौतों को उन्होंने बार-बार तोड़ा था, उनका राज्य हड़पा था, या उनको अपना अधीन बनाकर उनके सरों पर अपने आदमी बिठा दिये थे। राज्य हड़पने या उन्हें अधीन बनाने की यह नीति नानासाहब, झांसी की रानी तथा बहादुरशाह जैसे अनेक शासकों को अंग्रेजों का कट्टर दुश्मन बनाने के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार थी। नानासाहब आखिरी पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। अंग्रेज बाजीराव द्वितीय को जो पेंशन दे रहे थे, वह नानासाहब को देने से इनकार कर दिया और उनको अपनी पैतृक राजधानी पूना से बहुत दूर, कानुपर में रहने पर बाध्य किया। इसी तरह झांसी को हड़पने की अंग्रेजों की जिद ने स्वाभिमानी रानी लक्ष्मीबाई का गुस्सा भड़काया। रानी की इच्छा यही थी कि उनकी स्वर्गीय पति के सिंहासन पर उनका दत्तक पुत्र बैठे। 1849 में डलहौजी ने मुगल वंश की प्रतिष्ठा पर यह घोषणा करके चोट की थी कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़कर दिल्ली  के बाहर कुतुबमीनार के पास एक बहुत छोटे निवास स्थान में रहना होगा। और 1856 में कैनिंग ने यह घोषणा की कि बहादुरशाह की मृत्यु के बाद मुगलों से सम्राट की पदवी छीन ली जायेगी और वे सिर्फ राजा ही कहे जायेंगे।
ब्रिटिश शासन के विरोध में जनता के खड़े होने का प्रमुख कारण यह भय भी था कि इस शासन के कारण धर्म खतरे में है। इस भय का प्रमुख कारण उन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां थीं जो फ्हर जगह स्कूलों, अस्पतालों, जेलों और बाजरों-में देखे जाते थे।य् ये मिशनरी लोगों को ईसाई बनाने के प्रयास करते तथा हिन्दू धर्म और इस्लाम पर सार्वजनिक रूप से तीखा और भोंडा प्रहार करते थे। वह जनता की पुरानी और प्रिय परंपराओं और मान्यताओं की खुलकर हंसी उड़ाते और उनकी निंदा करते थे। साथ ही, उन्हें पुलिस का संरक्षण प्राप्त था। उन्होंने जब कुछ लोगों का सचमुच धर्म-परिवर्तन कराया तो जनता को अपने धर्म के सामने उपस्थित खतरे का जीता-जागता प्रमाण मिल गया। जनता को आशंका थी कि विदेशी सरकार इन मिशनरियों की गतिविधियों को संरक्षण देती है। सरकार के कुछ कामों तथा बड़े अधिकारियों की कुछ गतिविधियों से इस आशंका को और बल मिला। 1850 में सरकार ने एक कानून बनाया जिसके अनुसार धर्म बदलकर ईसाई बनने वालों को अपनी पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया। इसके अलावा, सरकार अपने खर्च पर सेना में ईसाई उपदेशक या पादरी रखती थी। अनेक नागरिक और सैनिक अधिकारी मिशनरी प्रचार को प्रोत्साहन देना तथा सरकारी स्कूलों और जेलों तक में ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था करना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते थे।
अनेक लोगों की रूढि़वादी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं उन मानवतावादी उपायों के कारण भी भड़कीं जो सरकार ने भारतीय सुधारकों की सलाह पर किये। उनका मत था कि एक विदेशी ईसाई सरकार को उनके धर्म और उनकी परंपराओं में हस्तक्षेप करने का कोई हक नहीं था। सती-प्रथा का उन्मूलन, विधवा-पुनर्विवाह संबंधी कानून, तथा लड़कियों के लिए पश्चिमी शिक्षा की व्यवस्था इन लोगों को ऐसे ही अनाधिकार हस्तक्षेप की तरह लगे। पहले के भारतीय शासकों ने मंदिरों और मस्जिदों से जुड़ी जमीन को, उनके पुजारियों या सेवा-संस्थाओं को कर से मुक्त रखा था। अब इनसे कर वसूल करने की सरकारी नीति से भी लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट लगी। इसके अलावा, इन जमीनों पर निर्भर अनेक ब्राह्मण और मुस्लिम परिवार गुस्से से उबल उठे और यह प्रचार करने लगे कि अंग्रेज उनके धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
1857 का विद्रोह कंपनी के सिपाहियों के विद्रोह से आरंभ हुआ। इसलिए हमें यह देखना होगा कि ये सिपाही जिन्होंने अपनी निष्ठापूर्ण सेवा से कंपनी को भारत-विजय में समर्थ बनाया था और जिन्हें अपनी प्रतिष्ठा तथा आर्थिक सुरक्षा प्राप्त थी, क्यों एकाएक विद्रोही हो उठे। यहां पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि ये सिपाही कुछ भी हों, भारतीय समाज के अंग थे और इसलिए दूसरे भारतीयों पर जो कुछ गुजरती हो उसे ये भी कुछ हद तक महसूस करके दुखी होते थे। समाज के दूसरे वर्गों, खासकर किसानों की आशाएं, इच्छाएं और दुख-दर्द इन सिपोहियों के बीच भी प्रतिबिंबित होते थे। यह सिपाही दरअसल ‘वर्दीधारी किसान’ ही थे। अगर ब्रिटिश शासन के विनाशकारी आर्थिक कृत्यों से उनके निकट संबंधी पीडि़त होते थे तो उस पीड़ा को ये सिपाही भी महसूस करते थे। वे भी इस सामान्य विश्वास से ग्रस्त थे कि अंग्रेज उनके धर्मों में दखलअंदाजी कर रहे थे और सभी भारतीयों को ईसाई बनाने पर आमादा थे। उनके अपने अनुभव भी इस विश्वास को बल देते थे। वे जानते थे कि सेना में राज्य के खर्च पर ईसाई धर्मोपदेशक मौजूद थे। इसके अलावा कुछ ब्रिटिश अधिकारी भी धार्मिक जोश में आकर सिपाहियों के बीच ईसाई धार्मिक प्रचार किया करते थे। सिपाहियों की अपनी धार्मिक या जातिगत शिकायतें भी थीं। उन दिनों भारतीय लोग जाति के नियमों आदि का कड़ाई से पालन करते थे। सैनिक अधिकारियों की तरफ से सिपाहियों का जाति या पंथ के चिन्हों के उपयोग पर, दाढ़ी रखने या पगड़ी पहने पर प्रतिबंध था। 1856 में एक कानून बना जिसके अनुसार हर नए भर्ती होने वाले सिपाही को आवश्यकता हो तो समुद्र पार जाकर भी सेवा करने की जमानत देनी पड़ती थी। इससे भी सिपाहियों की भावनाओं को चोट लगी, क्योंकि उस समय की हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र-यात्र पाप थी और इसके दंड में किसी को जाति-बाहर भी कर दिया जाता था।
सिपाहियों को अनेक दूसरे शिकायतें भी थीं। अधिकारियों तथा सिपाहियों के बीच एक बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई थी, तथा ब्रिटिश अधिकारी सिपाहियों से अक्सर अपमान का व्यवहार करते थे। एक तत्कालीन ब्रिटिश प्रेक्षक ने लिखा है कि फ्अधिकारी और सिपाही परस्पर मित्र नहीं, बल्कि एक दूसरे के लिए अजनबी ही रहे हैं। सिपाही को एक हीन प्राणी माना जाता है। उसे डांटा-फटकारा जाता है। उसके साथ बुरा बर्ताव होता है उसे ‘नीग्रो’ जैसा समझा जाता है। उसे ‘सुअर’ कहकर पुकारा जाता है। ---छोटे अधिकारी--- उसे एक हीन प्राणी मानकर व्यवहार करते हैं।य् अगर भारतीय सिपाही अपने अंग्रेज समकक्ष जितना श्रेष्ठ योद्धा हो तो भी उसे कम पैसा दिया जाता था और अंग्रेज सिपाही से भी बुरे ढंग से रखा या खिलाया-पिलाया जाता था। इसके अलावा, उसको उन्नति की आशाएं भी नहीं के बराबर थीं। कोई भी भारतीय 60-70 रूपये मासिक पाने वाले सूबेदार से ऊपर नहीं उठ सकता था। वास्तव में, सिपाही का जीवन ही कठिनाइयों से भरा था। स्वाभाविक था कि सिपाही इस बनावटी तथा उन पर लादी गई हीनता से खुश नहीं थे।
सिपाहियों में असंतोष का एक और भी तात्कालिक कारण, हाल में जारी वह आदेश था कि सिंध या पंजाब में तैनाती के समय उन्हें विदेश सेवा भत्ता (बट्टा) नहीं मिलेगा। इस आदेश के कारण सिपाहियों की बहुत अधिक संख्या के वेतन में बड़ी कटौती हुई। अवध अनेक सिपाहियों का घर था, उसके हड़पे जाने ने उनकी भावनाओं को आग की तरह भड़का दिया।
वास्तव में, सिपाहियों के असंतोष के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। बंगाल में बहुत पहले, 1764 में ही एक सिपाही विद्रोह घटित हो चुका था। अधिकारियों ने 30 सिपाहियों को तोपों के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया था और इस प्रकार विद्रोह को दबा दिया था। 1806 में वेल्लूर में सिपाहियों ने विद्रोह किया था, मगर भयानक हिंसा का सहारा लेकर इसे दबा दिया गया था और कई सौ सिपाही युद्ध में मारे गये थे। 1824 में बैरकपुर में सिपाहियों की 47वीं रैजीमेंट ने समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इनकार कर दिया था यह रेजीमेंट तोड़ दी गई थी, इसके निहत्थे सिपाहियों पर तोपखाने से गोले बरसाये गये थे, और सिपाहियों के नेताओं को फांसी दे दी गई थी। 1844 में वेतन और बट्टों के सवाल पर सात बटालियनों ने विद्रोह किया। इसी तरह अफगान युद्ध से कुछ ही पहले अफगानिस्तान में तैनात सिपाही विद्रोह करने ही वाले थे। सेना में व्याप्त असंतोष को व्याप्त करने के लिए एक मुसलमान और एक हिन्दू सूबेदार को गोली मार दी गई थी। सिपाहियों में असंतोष इस कदम व्यापक हो चुका थाकि 1858 में बंगाल के लेफ्रिटनेंट गवर्नर, फ्रेडरिक हैलीडे, को कहना पड़ा था कि बंगाल की फौज फ्कमोबेश बागी और हमेशा विद्रोह के लिए तैयार थी और यह है कि कभी न कभी अगर संयोगवश उत्तेजना तथा अवसर मिले तो वह विद्रोह कर बैठती।य्
इस तरह बड़ी तादात में भारतीय जनता तथा कंपनी के सिपाहियों के बीच विदेशी शासन के प्रति व्यापक और तीखी नापसंदगी बल्कि घृणा भी मौजूद थी। आगे चलकर सैयद अहमद खान ने अपनी पुस्तक ‘कॉलेज ऑफ दि इंडियन म्यूटिनी’ में इस भावना को व्यक्त किया।
1857 का विद्रोह ब्रिटिश नीतियों और साम्राज्यवादी घोषणा के प्रति जन-असंतोष का उभार था। परंतु यह आकस्मिक घटना नहीं थी। लगभग एक शताब्दी तक पूरे भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध तीव्र जन-प्रतिरोध होते रहे थे। बंगाल और बिहार में जैसे ही ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, सशस्त्र विद्रोह शुरू हो गये, और जैसे-जैसे यह नए क्षेत्रें को जीतता गया, वहां भी ये विद्रोह फूटते गये। देश के किसी न किसी भाग में सशस्त्र विरोध के बिना शायद ही कोई साल या एक बड़े विद्रोह के बिना शायद ही कोई दशक गुजरा हो। 1763 और 1856 के बीच 40 से अधिक बड़े विद्रोह और सैकड़ों छोटे विद्रोह हुए। इन विद्रोहों का नेतृत्व अकसर राजे, नवाब, जमींदार, भूस्वामी और पोलीगार करते थे, मगर लड़ने वाली फौजों में किसान, दस्तकार और पदच्युत भारतीय शासकों या जागीर और शस्त्रगार से वंचित कर दिये गये जमींदारों और पोलीगारों के भूतपूर्व सैनिक होते थे। ये लगभग निरंतर चलने वाले विद्रोह कुल मिला कर बहुत भयानक होते थे, मगर अपने प्रसार में ये पूरी तरह स्थानीय तथा एक-दूसरे से असंबद्ध होते थे। उनके प्रभाव भी स्थानीय ही होते थे।
तात्कालीन कारण
1857 ई- तक विद्रोह के लिए बारूद जमा हो चुका था, केवल इसमें एक जलती तीली पड़ने की देर थी। चर्बी मिले कारतूसों की घटना ने यह चिनगारी भी बारूद को दिखा दी और सिपाहियों के विद्रोह पर उतर आने पर साधारण जनता भी उठ खड़ी हुई। नए एनफील्ड राइफल का उपयोग सबसे पहले सेना में ही आरंभ किया गया। इसके कारतूसों पर चर्बी सने कागज का खोल चढ़ा होता था और कारतूस को राइफल में भरने से पहले उसके सिरे को दांतों से काटना पड़ता था। कुछ उदाहरणों में इस खोल में गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया गया था। इससे हिंदू और मुसलमान सिपाही, दोनों भड़क उठे। उन्हें लगा कि चर्बीदार कारतूसों का प्रयोग उनके धर्म को भ्रष्ट कर देगा। इनमें से अनेकों का विश्वास था कि सरकार जान-बूझकर उनके धर्म को नष्ट करने के तथा उन्हें ईसाई बनाने के प्रयत्न कर रही है। बगावत का वक्त आन पहुंचा था।
विद्रोह का आरंभ
1857 का विद्रोह स्वतः स्फूर्त और अनियोजित था या यह किसी सावधानीपूर्वक तथा गुप्त रूप से किये गये संगठन-कार्य का परिणाम था? निश्चित रूप से इस सवाल का जवाब दे सकना कठिन है। 1857 के विद्रोह के इतिहास का एक अजीब पहलू यह है कि इसका अध्ययन लगभग पूरी तरह ब्रिटिश दस्तावेजों पर आधारित है। विद्रोही अपने पीछे कोई दस्तावेज नहीं छोड़ गये। चूंकि वे गैर कानूनी ढंग से काम कर रहे थे, इसलिए शायद वे कोई लिखित दस्तावेज नहीं रखते थे। फिर यह भी कि वे हरा दिये गये तथा कुचल दिये गये और घटनाकों के बारे में उनके विवरण उनके साथ ही नष्ट हो गये। अंतिम बात यह कि बाद में भी वर्षों तक अंग्रेज विद्रोह के बारे में किसी भी सहानुभूतिपूर्ण उल्लेख को दबाते रहे तथा जो भी विद्रोहियों का पक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करता उसके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करते रहे।
इतिहासकारों तथा लेखकों के एक वर्ग का दावा है कि यह विद्रोह एक व्यापक तथा सुसंगठित षड्यंत्र का परिणाम था। इसके सबूत में वे चपातियों तथा लाल कमल के फूलों के गांव-गांव पहुंचने की घटनाओं तथा घुमक्कड़, सन्यासियों, फकीरों तथा मदारियों के प्रचार का उल्लेख करते हैं। दूसरे लेखक इतने ही दावे के साथ इस बात से इनकार करते हैं कि विद्रोह के पीछे कोई सुनियोजित तैयारी थी। उनका कहना है कि विद्रोह से पहले या बाद में भी रद्दी कागज का एक टुकड़ा तक ऐसा नहीं मिला जिससे सुसंगठित षड्यंत्र का संकेत मिलता हो। किसी गवाह तक ने इस तरह का कोई दावा कभी नहीं किया।
विद्रोह का आरंभ 10 मई, 1857 को दिल्ली से 36 मील दूर मेरठ में हुआ। फिर यह तेजी से बढ़ता हुआ पूरे उत्तर भारत में फैल गया। जल्द ही उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बिहार से लेकिर पश्चिम में राजस्थान तक एक विस्तृत भू-भाग इसकी चपेट में आ गया।
मेरठ में विद्रोह के भड़कने से पहले भी बैरकपुर में मंगल पांडे शहीद हो चुके थे। वे एक नौजवान सिपाही थे जिनको अकेले विद्रोह करने तथा अपने अधिकारियों पर हमला करने के कारण 29 मार्च, 1857 को फांसी दे दी गई थी। ये तथा ऐसी ही अनेक घटनाएं इस बात का संकेत थीं कि सिपाहियों में असंतोष तथा विद्रोही भाव पक रहे थे। फिर इसके बाद मेरठ में विस्फोट हुआ। 24 अप्रैल को तीसरी देशी घुड़सवार सेना के 90 लोगों ने चर्बीदार कारतूस लेने से इंकार कर दिया। उनमें से 85 को 9 मई को बर्खास्त करके दस-दस साल की बामशक्कत सजाएं दी गई और जंजीरों में जकड़ दिया गया। इससे मेरठ में तैनात भारतीय सिपाहियों में एक आम विद्रोह भड़क उठा। फिर अगले ही दिन, 10 मई को उन्होंने अपने कैदी साथियों को छुड़ा लिया, अपने अधिकारियों को मार डाला तथा विद्रोह का झंडा बुलंद कर लिया। फिर जैसे कि कोई चुंबक उनको खींच रहा हो, वे सूर्यास्त के बाद दिल्ली की ओर चल पड़े। मेरठ के सिपाही जब अगले सुबह दिल्ली में दिखाई पड़े तो वहां की पैदल सेना आकर उनके साथ मिल गई। उन्होंने यूरोपीय अधिकारियों को मार डाला और शहर को घेर लिया। बागी सिपाहियों ने बूढ़े और शक्तिहीन बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। दिल्ली जल्द ही इस महान विद्रोह का केन्द्र बन गई तथा बहादुरशाह इसके महान प्रतीक बन गये। इस अंतिम मुगल बादशाह को जिस तरह स्वतःस्फूर्त ढंग से देश का नेता बना दिया गया, वह इस तथ्य का प्रमाण था कि मुगल खानदान के लंबे शासन ने इस खानदान को भारत की राजनीतिक एकता का प्रतीक बना दिया था। केवल इस एक कार्य के द्वारा सिपाहियों ने एक फौजी विद्रोह को एक क्रांतिकारी युद्ध में बदल दिया। यही कारण था कि पूरे देश के विद्रोही सिपाहियों के कदम अपने आप दिल्ली की ओर मुड़ गये, और विद्रोह में भाग लेने वाले सभी भारतीय राजाओं ने मुगल सम्राट के प्रति अपनी वफादारी घोषित करने में कतई देर नहीं लगाई। फिर सिपाहियों के कहने पर या संभवतः उनके दबाव में बहादुरशाह ने भारत के सभी राजाओं और सरदारों को पत्र लिखा और उसने आग्रह किया कि ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने और उसको हटाने के लिए वे भारतीय राज्यों का एक महासंघ स्थापित करें।
जल्द ही बंगाल की पूरी सेना विद्रोह में शामिल हो गई और यह तेजी से फैल गया। अवध, रूहेलखंड, दोआब, बुंदेलखंड, मध्य भारत, बिहार का एक बड़ा भाग, और पूर्वी पंजाब इन सभी जगहों पर ब्रिटिश साम्राज्य चरमरा उठा। अनेक रजवाड़ों में शासक तो अंग्रेेज मालिकों के प्रति वफादार बने रहे, मगर उनकी फौजों में विद्रोह भड़क उठा या भड़कने के करीब आ गया। इंदौर के अनेक फौजी विद्रोह करके सिपाहियों से आ मिले। इसी तरह ग्वालियर के 20,000 से अधिक फौजी तात्या टोपे और झांसी की रानी के साथ चले गये। राजस्थान तथा महाराष्ट्र के अनेक छोटे सरदार अपनी जनता का भरोसा पाकर विद्रोही बन गये_ उनकी यह जनता अंग्रेजों की कट्टर दुश्मन थी। हैदराबाद तथा बंगाल में भी छिटपुट विद्रोह हुए।
यह विद्रोह जितना अधिक व्यापक था उतनी ही इसमें गहराई भी थी। पूरे उत्तरी और मध्य भारत में सिपाहियों के विद्रोह में नागरिक जनता को भी आम विद्रोह के लिए प्रेरित किया। सिपाहियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के समाप्त किये जाने के बाद साधारण जनता भी हथियार लेकर उठ खड़ी हुई और अकसर बल्लमों, कुल्हाड़ों, तीर-धनुष, लाठियों और हंसियों, तथा देशी बंदूकों के साथ लड़ती रही। लेकिन अनेक जगहों पर सिपाहियों से भी पहले या जहां कोई फौज तैनात नहीं थी, वहां भी जनता ने विद्रोह का आरंभ किया। किसानों, दस्तकारों, दुकानदारों, दिहाड़ी वाले मजदूरों और जमींदारों की व्यापक भागीदारी ऐसी चीज थी जिसने विद्रोह को उसकी वास्तविक शक्ति दी तथा इसे जन-विद्रोह का चरित्र भी दिया, खासकर उन क्षेत्रें में जो आज उत्तर प्रदेश तथा बिहार में शामिल हैं। इस क्षेत्र में किसानों तथा जमींदारों ने सूदखोरों तथा अपनी जमीन से बेदखल करने वाले नए जमींदारों पर हमले करके अपनी तकलीफों को खुलकर जाहिर किया।
विद्रोह का लाभ उठाकर उन्होंने सूदखोरों की खाता-बहियों तथा कर्जों के दस्तावेजों को नष्ट कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा स्थापित अदालतों, तहसील कार्यालयों, मालगुजारी के दस्तावेजों तथा थानों पर हमले किये। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि अनेक लड़ाइयों में सामान्य जनता की संख्या सिपाहियों से कहीं बहुत ज्यादा थी। एक अनुमान के अनुसार अवध में अंग्रेजों से लड़ते हुए मरने वाले लगभग 1,50,000 लोगों में 1,00,000 से अधिक सामान्य नागरिक थे।
यह भी ध्यान रहे कि जहां जनता विद्रोह में शामिल नहीं हुई, वहां भी लोगों ने विद्रोहियों के साथ बहुत सहानुभूति का व्यवहार किया। वे विद्रोहियों की हर जीत पर खुश होते रहे तथा अंग्रेजों के वफादार रहने वाले सैनिकों का सामाजिक बहिष्कार करते रहे। उन्होंने ब्रिटिश सेना के साथ सक्रिय शत्रुता का व्यवहार किया, उसे सहायता या सूचना देने से इनकार कर दिया, और उसे गलत सूचना देकर गुमराह तक किया।
1857 के विद्रोह का जन चरित्र उस समय भी स्पष्ट हुआ जब अंग्रेजों ने इसे कुचलने की कोशिश की। उन्होंने विद्रोही सिपाहियों को ही नहीं दबाया, बल्कि दिल्ली, अवध, पश्चिमोत्तर प्रांत, आगरा, मध्य भारत और पश्चिम बिहार की जनता के खिलाफ भी एक भरपूर और निमर्म लड़ाई उसको लड़नी पड़ी। पूरे के पूरे गांव जला दिये गये, तथा ग्रामीण और नगरीय जनता का कत्ले-आम किया गया। अंग्रेजों को एक-एक करके गांवों से लड़ना पड़ा तथा उत्तरी भारत के अनेक भागों को फिर से जीतना पड़ा। लोगाें को बिना किसी मुकदमें के फांसी देना तथा फांसी के बाद सबके सामने पेड़ों से लटकाना पड़ा। इन सबसे पता चलता है कि इन क्षेत्रें में विद्रोह कितना फैल चुका था।
1857 के विद्रोह की शक्ति बहुत कुछ हिन्दु-मुस्लिम एकता में निहित थी। सैनिक तथा जनता हो या नेता, हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच पूरा-पूरा सहयोग देखा गया। सभी विद्रोहियों ने एक मुसलमान बहादुरशाह को अपना सम्राट स्वीकार कर लिया था। मेरठ के हिन्दू सिपाहियों के मन में पहला विचार दिल्ली की ओर कूच करने का ही आया। हिन्दू और मुसलमान विद्रोही और सिपाही एक दूसरे की भावनाओं का पूरा-पूरा सम्मान करते थे। उदाहरण के लिए, विद्रोह जहां भी सफल हुआ वहीं हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करते हुए फौरन ही गौ-हत्या बंद करने के आदेश जारी कर दिये गये। इसके अलावा, नेतृत्व में हर सतह पर हिन्दुओं तथा मुसलमानों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त था। विद्रोह में हिन्दू-मुस्लिम एकता की भूमिका का परोक्ष रूप से एक वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी, एचिंसन ने स्वीकार किया है। बहुत कड़वे मन से वह लिखता हैः फ्इस मामले में हम मुसलमानों को हिन्दुओं से नहीं लड़ा सकते।य् वास्तव में, 1857 की घटनाओं से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मध्य काल में तथा 1858 से पहले भारत की जनता और राजनीति अपने मूल रूप में सांप्रदायिक नहीं थी।
1857 के विद्रोह के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेली, झांसी तथा आरा (बिहार) थे। दिल्ली में प्रतीक रूप में कहने को विद्रोह के नेता सम्राट बहादुरशाह थे, परन्तु वास्तविक नियंत्रण एक सैनिक समिति के हाथों में था जिसके प्रमुख जनरल बख्त खान थे। इन्होंने ही बरेली के सैनिकों का नेतृत्व किया था तथा उनको दिल्ली ले आये थे। ब्रिटिश सेना में वे तोपखाने के एक मामूली सूबेदार थे। बख्त खान विद्रोह के प्रमुख केन्द्र में साधारण तथा निम्नवर्गीय जनता के प्रतिनिधि थे। विद्रोह के नेतृत्व की जंजीर में सबसे कमजोर कड़ी शायद सम्राट बहादुरशाही ही थे। उनका कमजोर व्यक्तित्व, उनकी अधिक आयु और नेतृत्व के गुणों का अभाव-इनके कारण विद्रोह के प्रमुख केन्द्र में ही राजनीतिक दुर्बलता आई तथा इससे विद्रोह को अकथनीय हानि पहुंची।
कानपुर में विद्रोह के नेता नानासाहब थे जो अंतिम पेशवा, बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। सिपाहियों की सहायता से अंग्रेजों को कानपुर से खदेड़कर नानासाहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया। साथ ही साथ बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित करके उन्होंने अपने को उनका प्रतिनिधि घोषित किया। नानासाहब की ओर लड़ने का भार मुख्यतः उनके विश्वसनीय सेवक तात्यां टोपे के सिपाहियों पर था। अपनी देशभक्ति, शौर्यमय युद्ध तथा कुशल छापामार कार्यवाहियों के कारण तात्या टोपे अमर हो चुके हैं। नानासाहब के एक और विश्वसनीय सेवक अजीमुल्लाह थे। वे राजनीतिक प्रचार-कार्य के माहिर थे। दुर्भाग्य से, नानासाहब ने कानपुर में अंग्रेजों को सुरक्षित निकाल देने का वादा करने के बावजूद उन्हें धोखे से मारकर अपनी बहादुरी पर कलंक का टीका लगा दिया।
लखनऊ में विद्रोह का नेतृत्व अवध की महारानी बेगम हजरतमहल कर रही थीं। उन्होनें अपने नाबालिग बेटे बिरजीश कदर को अवध का नवाब घोषित कर दिया। लखनऊ के सिपाहियों तथा अवध के किसानों और जमींदारों की सहायता से बेगम ने अंग्रेजों के खिलाफ चौतरफा युद्ध छेड़ दिया। जब अंग्रेज शहर छोड़ने के लिए मजबूर हो गये तो उन्होंने रेजीडेंसी की इमारत में शरण ले ली। आखिर में रेजीडेंसी का घेरा कामयाब नहीं हुआ क्योंकि छोटी सी ब्रिटिश सेना उदाहरणीय धैर्य तथा बहादुरी से लड़ती रही।
1857 के विद्रोह के महान नेताओं में से भारतीय इतिाहस की महानतम वीरांगनाओं में से एक थीं-झांसी की युवा महारानी लक्ष्मीबाई। जब अंग्रेजों ने झांसी की गद्दी के लिए एक उत्तराधिकारी गोद लेने के रानी के अधिकार को नहीं माना, उनके राज्य का अपहरण कर लिया तथा उन्हें धमकी दी कि झांसी के सैनिकों को विद्रोह के लिए भड़काने के लिए उन्हें उत्तरदायी माना जायेगा, तब रानी विद्रोहियों से आ मिलीं। रानी कुछ समय तक अनिश्चय की स्थिति में रही। लेकिन जब उन्होंने विद्रोहियों का साथ देने का फैसला कर लिया तब बहुत बहादुरी के साथ उन्होनें अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। तब से लेकर आज तक उनके शौर्य, साहस तथा सैनिक कुशलता की गाथाएं देशवासियों को प्रेरणा देती आ रही हैं। अग्रेंजों के साथ उनकी एक भयानक लड़ाई हुई जिसमें फ्स्त्रियां तक तोपें चलाते और गोला-बारूद बांटती देखी गई।य् उसके बाद रानी को झांसी से बाहर भागना पड़ा तब उन्होंने अपने अनुयायियों को शपथ दिलाई कि फ्हम अपने हाथों अपनी आजाद शाही (स्वतंत्र राज्य) की कब्र नहीं खोदेंगे। (तात्या टोपे तथा अपने अफगान रक्षकों की सहायता से उन्होंने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों के वफादार महाराज सिंधिया ने रानी से लड़ने की कोशिश की, मगर उनके अधिकांश सैनिक रानी से जा मिले। सिंधिया ने आगरा जाकर अंग्रेजों की शरण ली। यह बहादुर रानी सिपाही के वेश में, एक घोड़े पर सवार होकर लड़ते हुए 17 जून, 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई। उनके साथ एक मुस्लिम लड़की भी शहीद हो हुई जो उनकी बचपन की साथी थी।
बिहार में विद्रोह के प्रमुख नेता कुंवरसिंह थे जो आरा के पास जगदीशपुर के एक तबाह और असंतुष्ट जमींदार थे। लगभग 80 वर्ष के होते हुए भी वे विद्रोह के संभवतः सबसे प्रमुख सैनिक नेता तथा रणनीतिज्ञ थे। फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह विद्रोह के एक और प्रमुख नेता थे। वे मद्रास के रहने वाले थे और वहीं से उन्होंने सशस्त्र विद्रोह का प्रचार कार्य शुरू कर दिया था। जनवरी 1857 में वे उत्तर में फैजाबाद आ गये। यहां उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों की उस कंपनी से एक भीषण लड़ाई लड़ी जो उनको राजद्रोह के प्रचार से रोकने के लिए भेजी गई थी। जब मई में आम बगावत भड़क उठी तो वे अवध में इसके एक मान्य नेता के रूप में उभरे।
विद्रोह के सबसे महान वीर सिपाही ही थे। इनमें से अनेकों ने युद्धक्षेत्र में अद्भुत साहस का परिचय दिया। हजारों सैनिकों ने निःस्वार्थ भाव से अपने प्राणों का होम कर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सैनिकों का दृढ़ निश्चय तथा बलिदान ही था जिसने अंग्रेजों को भारत से लगभग खदेड़ ही दिया था। इस देशभक्तिपूर्ण संघर्ष में उन्होंने अपने मन में गहरे बैठे धार्मिक पूर्वाग्रहों की भी कुर्बानी दे दी। उन्होंने विद्रोह तो किया था चर्बीदार कारतूसों के सवाल पर, मगर घृणित विदेशियों को बाहर भगाने की धुन में लड़ाइयों में जमकर इन्हीं चर्बीदार कारतूसों का प्रयोग करते रहे।
विद्रोह की कमजोरियां और उसका दमन
1857 का विद्रोह बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था और जनता का व्यापक समर्थन इसे प्राप्त था, फिर भी यह पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी अंगों तथा वर्गों को अपनी लपेट में नहीं ले सका। यह दक्षिण भारत तथा पूर्वी तथा पश्चिमी भारत के अधिकांश भागों में नहीं फैल सका क्योंकि इन क्षेत्रें में पहले अनेकों विद्रोह हो चुके थे। भारतीय रजवाड़ों के अधिकांश शासक तथा बड़े जमींदार पक्के स्वार्थी तथा अंग्रेजों की शक्ति से भयभीत थे और वे विद्रोह में शामिल नहीं हुए। इसके विपरीत ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के राजा तथा दूसरे राजपूत शासक, भोपाल के नवाब, पटियाला, नाभा और जींद के सिख शासक तथा पंजाब के दूसरे सिख सरदार, कश्मीर के महाराजा, नेपाल के राणा तथा दूसरे अनेक सरदारों और अनेकों बड़े जीमदारों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की। वास्तव में भारतीय शासकों में एक प्रतिशत से अधिक विद्रोह में शामिल नहीं हुए। गवर्नर-जनरल कैनिंग ने बाद में टिप्पणी की, इन शासकों तथा सरदारों ने फ्तूफान के आगे बांध की तरह काम किया_ वर्ना यह तूफान एक ही लहर में हमें बहा ले जाता है।य् मद्रास, बंबई, बंगाल तथा पश्चिमी पंजाब में जनता विद्रोहियों में हमदर्दी रखती थी, फिर भी ये प्रांत अप्रभावित रहे। इसके अलावा, असंतुष्ट तथा बेदखल जमींदारों को छोड़कर उच्च तथा मध्य वर्गों के अधिकांश लोग विद्रोहियों के आलोचक थे। सम्पन्न वर्गों के अधिकांश लोग विद्रोहियों के प्रति ठंडे बने रहे या उनका सक्रिय विरोध किया। यहां तक कि विद्रोह में शामिल अवध के बहुत से तालुकदारों (बड़े जमींदारों) ने, अंग्रेजों से यह आश्वासन पाकर कि उनकी जागीरें उन्हें वापस दे दी जायेंगी, विद्रोह से किनारा कर लिया। इससे एक लंबा खिंचता हुआ छापामार संघर्ष चला सकना अवध के किसानों और सिपाहियों के लिए बहुत कठिन हो गया।
ग्रामीण जनता के हमलों का खास निशाना सूदखोर थे। इसलिए वे स्वाभाविक तौर पर विद्रोह के शत्रु थे। लेकिन धीरे-धीरे व्यापारी भी इसके शत्रु बन गये। युद्ध का खर्च जुटाने के लिए विद्रोहियों को उन पर भारी कर लगाने पड़े थे या सेना को भोजन देने के लिए उनके अनाज-गोदामों पर कब्जा करना पड़ा था। व्यापारी प्रायः अपनी दौलत और माल छिपा देते थे तथा विद्रोहियों को मुफ्रत में सामान देने से मना कर देते थे। बंगाल के जमींदार भी अंग्रेजों के वफादार बने रहे। आखिरकार वे अंग्रेजों की ही पैदावार थे। इसके अलावा, बिहार में जमींदारों के प्रति किसानों की शत्रुता ने बांगल के जमींदारों को भी डरा दिया था। इसी तरह बंबई, कलकत्ता तथा मद्रास के बड़े व्यापारियों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया। कारण कि उनका अधिकांश मुनाफा अंग्रेज व्यापारियों के साथ होने वाले विदेशी व्यापार तथा आर्थिक संबंधों से होता था।
आधुनिक शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने भी विद्रोह का साथ नहीं दिया। विद्रोही जिस प्रकार अंधविश्वासों का उपयोग करते या प्रगतिशील सामाजिक उपायों का विरोध करते थे, उससे ये भारतीय बिदककर दूर हो गये। जैसा कि हमने देखा है, शिक्षित भारतीय देश का पिछड़ापन समाप्त करना चाहते थे। उनके मन में यह गलत विश्वास भरा था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण के ये काम पूरा करने में उनकी सहायता करेंगे, जबकि जमींदारों, पुराने शासकों और सरदारों, तथा दूसरे सामंती तत्वों के नेतृत्व में लड़ने वाले विद्रोही देश को पीछे ले जायेंगे। कुछ समय बाद ही शिक्षित भारतीयों ने अपने अनुभवों से जाना कि विदेशी शासन देश का आधुनिकीकरण करने में न सिर्फ असमर्थ साबित हुआ, बल्कि उसने उसे गरीब और पिछड़ा बनाए रखा। इस मामले में 1857 के क्रांतिकारी अधिक दूरदर्शी सिद्ध हुए। उन्हें विदेशी शासन की बुराईयों तथा उससे मुक्ति पाने की आवश्यकता की कहीं बेहतर और सहज समझ हासिल थी। दूसरी ओर, शिक्षित लोगों की तरह उन्होंने यह बात नहीं समझी कि देश विदेशियों के चंगुल में ठीक इसीलिए फंसा था कि वह सड़े-गले रिवाजों, परंपराओं तथा संस्थाओं से चिपका हुआ था। वे यह समझ सकने में असफल रहे कि देश की मुक्ति पुराने सामंती राजतंत्र की ओर पलटने में नहीं बल्कि आगे बढ़कर एक आधुनिक समाज, आधुनिक अर्थव्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा तथा आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं को गले लगाने से ही संभव थी, कुछ भी हो, यह नहीं कहा जा सकता कि शिक्षित भारतीय राष्ट्रद्रोही या विदेशी शासन के भक्त थे। जैसा कि 1858 के बाद की घटनाओं ने दिखाया, जल्द ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक शक्तिशाली और आधुनिक आंदोलन का नेतृत्व उन्होंने संभाल लिया।
भारतीयों में एकता के अभाव के चाहे जो कारण रहे हों, यह विद्रोह के लिए घातक सिद्ध हुआ। लेकिन विद्रोहियों के लक्ष्य को धक्का पहुंचाने वाली यह अकेली कमजोरी नहीं थी। उनके पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्रें तथा अन्य युद्ध सामग्री की भी कमी थी। अधिकांश तो भालों और तलवारों जैसे पुराने हथियारों से ही लड़ रहे थे। उनका संगठन भी ठीक नहीं था। सिपाही बहादुर तथा स्वार्थरहित तो थे मगर उनमें अनुशासन की कमी भी थी। कभी-कभी तो वे अनुशासित सेना की बजाए दंगाई भीड़ की तरह व्यवहार करते। विद्रोह इकाइयों के पास सैनिक कार्यवाही की साझी योजनाओं, अधिकार सम्पन्न प्रमुखों या केन्द्रीकृत नेतृत्व का भी अभाव था। देश के विभिन्न भागों में हो रहे विद्रोहों के बीच कोई तालमेल नहीं था। विदेशी शासन के प्रति एक साझी घृणा को छोड़कर और कोई संबंध-सूत्र नेताओं के बीच नहीं था। किसी क्षेत्र विशेष से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद उन्हें पता भी नहीं होता था कि उसकी जगह किस प्रकार की राजनीति सत्ता या संस्थाएं स्थापित की जाएं। वे एक-दूसरे के प्रति शंकित तथा ईर्ष्याग्रस्त थे और अकसर आत्मघाती झगड़ों में उलझ पड़ते थे। इसी तरह किसान मालगुजारी के दस्तावेजों तथा सूदखोरों के बही-खातों को नष्ट करने तथा नए जमींदारों को खदेड़ चुकने के बाद समझ नहीं पाते थे कि आगे क्या करें, और इसलिए निष्क्रिय हो जाते थे।
वास्तव में विद्रोह की कमजोरियां व्यक्तियों की कमियों से भी कहीं अधिक गहराई में निहित थीं। इस आंदेालन को भारत को गुलाम बनाने वाले उपनिवेशवाद की या आधुनिक विश्व की कोई खास समझ नहीं थी। इसके पास एक भविष्योन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य या भावी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि का अभाव था। विद्रोह सत्ता पर अधिकार के बाद लागू किये जाने वाले किसी सामाजिक विकल्प से रहित था। इस तरह इस आंदोलन में तरह-तरह के तत्व शामिल थे जो केवल ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी घृणा द्वारा ही जुड़े हुए थे। इनमें से हरेक की अपनी-अपनी शिकायतें थीं और स्वतंत्र भारत की राजनीति की अपनी-अपनी धारणाएं थीं। एक आधुनिक, प्रगतिशील कार्यक्रम के अभाव में प्रतिक्रियावादी राजा और जमींदार क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व हथियाने में सफल हो गये। लेकिन विद्रोह के सामंती चरित्र पर हमें बहुत जोर नहीं देना चाहिए। सिपाही तथा साधारण जनता धीरे-धीरे एक भिन्न प्रकार का नेतृत्व विकसित कर रहे थे। विद्रोह को सफल बनाने का प्रयास भी उन्हें नए प्रकार का संगठन तैयार करने का प्रयास भी कर रहा था। उदाहरण के लिए, दिल्ली में प्रशासकों की एक समिति बनाई गई थी जिसके दस सदस्यों में छः सिपाही तथा चार नागरिक थे। इनमें सभी निर्णय बहुमत द्वारा लिये जाते थे। यह समिति सभी सैनिक तथा प्रशासकीय निर्णय सम्राट के नाम पर करती थी। नई सांगठनिक संरचनाएं तैयार करने की इस तरह की कोशिशें विद्रोह के दूसरे केन्द्रों में भी की गई। बेंजामिन डिजराइली ने उस समय ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी थी कि अगर समय रहते विद्रोह नहीं कुचला गया तो फ्रंगमंच पर भारतीय राजाओं के अलावा कुछ और पात्र भी दिखाई देंगे तथा उनसे भी उन्हें (अंग्रेजों को) जूझना पड़ेगा।य्
भारतीयों में एकता का यह अभाव भारतीय इतिहास के इस चरण में संभवतः अपरिहार्य था। भारत अभी आधुनिक राष्ट्रवाद से अपरिचित था। देशप्रेम का मतलब अपनी छोटी-सी बस्ती, क्षेत्र या अधिक से अधिक अपनी राजसत्ता के प्रति प्रेम था। सांझे अखिल भारतीय हितों का तथा इस चेतना का कि ये हित सभी भारतीयों को पदस्पर जोड़ते हैं, अभी उदय नहीं हुआ था। वास्तव में 1857 के विद्रोह ने भारतीय जनता को एक साथ जोड़ने में तथा उनमें एक देश का वासी होने की चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अंत में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद जिसके पास एक विकासमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था थी, जो दुनिया भर में शक्ति के शिखर पर बैठा था, तथा जिसे अधिकांश भारतीय शासकों तथा सरदारों का सहयोग प्राप्त था, सैनिक दृष्टि से विद्रोहियों से अधिाक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। ब्रिटिश सरकार ने देश में भयानक संख्या में सेना, धन तथा अस्त्र-शस्त्रें को झोंक दिया, हालांकि खुद अपने इस दमन के लिए भारतीयों को बाद में पूरी-पूरी कीमत चुकानी पड़ी। विद्रोह कुचल दिया गया। मात्र साहस एक ऐसे शक्तिशाली तथा दृढ़ निश्चय शत्रु के आगे नहीं ठहर सका जिसका हर कदम नियोजित था। विद्रोहियों को बहुत पहले ही एक भारी धक्का तब लगा जब अंग्रेजों ने एक लंबे तथा भयानक युद्ध के बाद 20 सितंबर, 1857 को दिल्ली पर दोबारा कब्जा कर लिया। बूढ़े सम्राट बहादुरशाह को बंदी बना लिया गया। उनके राजकुमार पकड़कर वहीं मार डाले गये। सम्राट पर मुकदमा चला तथा उन्हें निर्वासित कर रंगून भेज दिया गया। वहीं अपनी किस्मत पर आंसू बहाते हुए कि उन्हें उनकी जन्मभूमि से बहुत दूर कर दिया गया था, वे 1862 में स्वर्गवासी हुए। इस तरह महान मुगल वंश आखिरकार पूरी तरह नष्ट हो गया।
दिल्ली के पतन के साथ विद्रोह का केन्द्र बिन्दु नष्ट हो गया। विद्रोह के दूसरे नेता बहादुरी से यह असमान युद्ध लड़ते रहे, मगर अंग्रेजों ने उनके खिलाफ एक शक्तिशाली हमला केन्द्रित कर दिया था। जॉन लॉरेंस, आउट्रम, हेवलॉक, नील, कैंपबेल और ह्यूरोज कुछ ऐसे ब्रिटिश कमानदार थे जिन्होंने इस युद्ध में सैनिक ख्याति प्राप्त की। विद्रोह के सभी महान नेता एक के बाद एक खेत रहे। नानासाहब की कानपुर में हार हुई। अंत में हार न मानकर तथा आत्मसमर्पण से इनकार करके वे 1859 के आरंभ में नेपाल की ओर कूच कर गये, और फिर उनका कोई पता नहीं चला। तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में जा छिपे और वहीं से एक भयानक और शानदार छापामार युद्ध चलाते रहे, जब तब कि अप्रैल 1859 में वे सोते समय एक जमींदार दोस्त की गद्दारी के कारण पकड़े नहीं गये। जल्दी-जल्दी उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें 15 अप्रैल, 1859 को मौत की सजा दे दी गई। झांसी की रानी पहले ही, 18 जून, 1858 को युद्धभूमि में लड़ते हुए शहीद हो चुकी थीं। 1859 तक कुंवरसिंह, बख्त खान, बरेले के खान बहादुरखान, नानासाहेब के भाई रावसाहब और मौलवी अहमदुल्लाह सभी स्वर्गवासी हो चुके थे जबकि अवध की बेगम हजरतमहल मजबूर होकर नेपाल में जा छिपी थीं।
1859 के अंत तक भारत पर ब्रिटिश सत्ता पूरी तरह पुनर्स्थापित हो चुकी थी। परंतु विद्रोह व्यर्थ नहीं गया। यह हमारे इतिहास का एक शानदार पड़ाव है। यह पुराने ढंग के भारत को तथा उसके परंपरागत नेतृत्व को बचाने का एक हताशपूर्ण प्रयास तो था ही, परंतु यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए भारतीय जनता का पहला महान संघर्ष भी था। इसने एक आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन के विकास का आधार तैयार कर दिया। 1857 के वीरतापूर्ण तथा देशभक्तिपूर्ण विद्रोह ने तथा उसके पहले के अनेकों विद्रोहों ने भारतीय जनता के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रतिरोध की शानदार स्थानीय परंपराएं कायम कीं तथा आगे के स्वाधीनता संग्राम में भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का एक अक्षुण्ण स्रोत प्रदान किया। इस विद्रोह के वीरों की गाथाएं जल्द ही घर-घर में गूंजने लगीं, भले ही उनके नामों के उच्चारण मात्र से शासक बौखलाते रहे हों।

An Introduction to Internal Security of India

The term national security in broad terms, including military and non-military dimensions of security. It must also clearly state the objectives of the strategy. These might be: protecting and defending the territorial integrity and national sovereignty of the country; protecting the core values of the nation as enshrined in the Indian Constitution; and ensuring the socio-economic development of the country. India’s goal should be to play a positive and effective role in global and regional affairs.

Let me first make some very brief comments about the concept of ‘Security’. The traditional view of security focussed on the application of force at the state level and was therefore a fairly narrow view, hinging on military security. It is now widely acknowledged that there is more to security than purely military factors. Today’s definition of security acknowledges political, economic, environmental, social and human among other strands that impact the concept of security. In the most basic terms, the concern for security of the lowest common denominator of every society, namely the ‘human being’, has resulted in the development of the concept of ‘human security’, which focuses on the individual.
Therefore, the definition of security is defnitely broad – and is related to the ability of the state to perform the function of protecting the wellbeing of its people. This formulation hark back to the days of Ancient Civilizations. In a democracy, it is for the elected government to provide this priority and focus, as only after this, a coherent National Security Strategy can be articulated.
Four types, internal threats should be taken care of immediately, for internal troubles these are internal, external, externally-aided internal, and internally-aided external.
Destabilising a country through internal disturbances is more economical and less objectionable, particularly when direct warfare is not an option and international borders cannot be violated. External adversaries, particularly the weaker ones, find it easier to create and aid forces which cause internal unrest and instability. India’s history is full of such experiences. Since Independence, we have faced many such situations, initiated by China, Pakistan and others in the Northeast and even in the western sectors of the country since the mid-60s.

Presently, almost all the countries of  Asia and Africa  are experiencing internal security problems, due to insurgency movements, ethnic conflicts, religious fundamentalism, or just cussed political polarisation.
India has a unique centrality in the South Asian security zone. It has special ties with each of its neighbours: ties of ethnicity, religion, language, culture, common historical experience, and of shared access to vital natural resources. However, apart from the advantages that these special ties offer, they often make it easier for external forces to exploit any internal dissent. Within the country, these special ties also tend to encourage Indian secessionist groups in establishing safe sanctuaries across the borders in neighbouring states; trans-border illegal migration, gun-running and drug-trafficking. Situated as we are between the ‘Golden Crescent’ and the ‘Golden Triangle’, secessionist groups taking to violence find little difficultyin indulging in drug trade and obtaining small arms within the country.
The people of the country speak 16 major languages, in over 200 dialects. There are about one dozen ethnic groups, seven major religion communities with several sects and sub-sects, and 68 socio-cultural subregions. When a socio-political and socioeconomic equilibrium is maintained in such a scenario, there is unity in diversity. But if there is even the slightest imbalance, we have more diversity and less unity.
Some specific issues that we are faced with, which have an impact on our internal security are:
 Problems of national assimilation and integration,particularly of the border areas in the North and Northeast.
Porous borders with Nepal, Bhutan, Myanmar,Bangladesh, and Sri Lanka, which enable illegal trans-border movements and smuggling of weapons and drugs. It is presumed that erecting fences on the international borders can stop all illegal trans-border movements. That is not so. First, it is not possible to guard or police every metre of the land, sea and air borders. Second, the construction of a fence along land borders is expensive and requires a tremendous amount of manpower for effective surveillance. Border fencing can assist in checking infiltration to an extent, but it does not and cannot eliminate it.
Weak governance including an ineffective law and order machinery and large-scale corruption. An ever-increasing section of the population is getting disenchanted with social justice, or the lack thereof. There is a continuous decay of the political, administrative, and security institutions of the country. Efforts to stem the rot have failed so far. Declining political and public values have led to consistent and persistent political interference.

Nexus between crime, insurgency and politics.

Thursday, 2 November 2017

भारत में प्रेस का विकास

भारत में पुर्तगाली पहले लोग थे जिन्होंने मुद्रणालय की स्थापना की। 1557 में पहली पुस्तक छपी।
भारत में आधाुनिक प्रेस का प्रारंभ 1766 में विलियम वोर्डस द्वारा प= निकालने की योजना और 1780 में जेम्स आगस्टस हिक्की द्वारा बंगाल गजट के प्रकाशन से हुआ। किसी भारतीय द्वारा प्रकाशित पहला समाचार प= गंगाधार भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित बंगाल गजट था जिसका प्रकाशन 1816 में हुआ। 1821 में बंगाली में संवाद कौमुदी और 1822 में फ़ारसी में मिरातउल अखबार के प्रकाशन के साथ प्रगतिशील राष्ट्रीय प्रड्डति वाली समाचार पत्रें का प्रकाशन हुआ।
राज राममोहन राय ने ब्रह्मनिकल मैगजीन, चंद्रिका जैसे पत्रें की भी शुरूआत की। इन्होंने ही द्वारिकानाथ टैगोर के साथ 1830 में बंगदत्त की स्थापना की। उधार 1822 में बंबई से भारत का पहला दैनिक समाचार प= ‘बंबई समाचार’ गुजराती भाषा में निकलने लगा। बंबई से ही गुजराती में 1821 में जानेजमशेद एवं 1851 में रास्तगाफ़ेतार तथा अखबार-ए-सोदागर का प्रकाशन आरंभ हुआ। रास्तगाफ़ेतार का संपादन दादाभाई नौरोजी करते थे।
(अन्य समाचार पत्रें का विवरण अलग से सारणी में है)
अंग्रेजी प्रशासन ने प्रारंभ से ही प्रेस पर नियं=ण रखने का प्रयास किया। शासन द्वारा पारित प्रमुख अधिानियमों में थे।
सेंसरसिप ऑफ़ प्रेस एक्ट (1799) - लार्ड वेलेजली के काल में इस अधिानियम के अंतर्गत समाचार पत्रें पर युद्वकालीन सेंसर लागू किया गया।
लाइसेंसिंग रेगुलेसन ऑफ़ 1823
1823 में जॉन एडम्स के द्वारा इस अधिानियम को समाचार पत्रें के प्रकाशन के पूर्व लाइसेंस को अनिवार्य बनाने के लिए लागू किया गया। इस अधिानियम के कारण मिरातउल अखबार का प्रकाशन बंद हो गया।
लिबरेशन ऑफ़ इंडियन प्रेस (1825)
चार्ल्स मैटकाफ़ के द्वारा इस अधिानियम के माफऱ्त पुराने अधिानियमों को निरस्त किया गया। इसके अनुसार प्रकाशकों को केवल प्रकाशन के स्थान की सूचना देनी होती थी।
लाइसेंसिंग एक्ट ऑफ़ 1857
इसके माधयम से समाचार पत्रें में लाइसेंसिंग को पुनः अनिवार्य बनाया गया।
रजिस्ट्रेशन एक्ट ऑफ़ 1867
इस अधिानियम के माधयम से समाचार पत्रें के प्रकाशन को नियमित करने का प्रयास किया गया। 1869-70 में इसमें संशोधान कर इंडियन पिनल कोड में राजद्रोह के विरूद्व धाारा 124 जोडी गई।
वर्नायूलर प्रेस एक्ट 1878
लिटन के काल में बडी संख्या में स्थापित भारतीय प्रेस को सरकार की आलोचना करने से रोकने के लिए इसे पारित किया गया। इसे मुंहबंद करने वाला अधिानियम भी माना जाता है।
यह अधिानियम सोमप्रकाश जैसे अखबारों को केन्द्र में रखकर पारित किया गया था। 1882 में इस अधिानियम को लार्ड रिपन ने रद्द कर दिया।
न्यूजपेर एक्ट 1908
यह अधिानियम कर्जन द्वारा कांग्रेस के उग्रवादी विचारधाारा के समर्थक पत्रें के विरूद्व लाया गया। इसके अनुसार सरकार को आपत्तिजनक सामग्रीयों के प्रकाशन पर किसी भी प= के ंपजीकरण को रद्द कर देने का अधिाकार था।
इंडियन प्रेस एक्ट 1910
इस अधिानियम के अंतर्गत पंजीकरण की राशि को बढाकर 2000 रूपए किया गया। साथ ही लिटन के 1878 के अधिानियम की शर्तो को पुर्नजीवित किया गया।
इंडियन प्रेस (इमरजेंसी पावर) एक्ट 1931
तेज बहादुर स्प्रू की अधयक्षता में 1910 की अधिानियम के रद्द होने के बाद इस अधिानियम के माधयम से 1910 की अधिानियम को पुर्नजीवित किया गया।
स्वतं=ता के बाद 1950 में नये संविधाान के लागू होने के बाद सरकार ने 1951 की         अधिानियम के तहद आपत्तिजनक सामग्रियों के प्रकाशन पर समाचार पत्रें की पंजीकरण को रद्द करने से संबंधिात कुछ नये नियम बनाये।

आदिवासी आन्दोलन

जनजातीय एवं आदिवासी लोग देश के पश्चिमी, मधयवर्ती एवं उत्तरपूर्वी हिस्सों के विशाल क्षे= के निवासी थे। इनकी विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्ड्डतिक परिस्थितियों के कारण औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में इन्होंने अपनी संस्ड्डति में हो रहे अनावश्यक हस्तक्षेप का  विरोध किया। 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक हुए इन आन्दोलनों के प्रमुख कारणों में
सामूहिक स्वामित्व की प्रथा पर हस्तक्षेप
ईसाई धार्म प्रचारकों की गतिविधिायां
वन क्षेत्रें में बढता सरकारी नियं=ण
आदिवासियों को सामान्य कानून के अंतर्गत लाया जाना।
आदिवासियों के सांस्ड्डतिक व धाार्मिक जीवन में हस्तक्षेप
आदिवासियों का आर्थिक शोषण, इत्यादि थे।
आदिवासी आन्दोलनों को तीन चरणों में बांटा जा सकता हैं प्रथम (1795-1860), दूसरा (1860-1920), तीसरा (1920 स्वतं=ता तक)। इन चरणों के अंतर्गत हुए आन्दोलनों को हम निम्नानुसार देख सकते हैं।
प्रथम चरण के आन्दोलन
आंदोलन नेतृत्वकर्ता कारण/उद्देश्य
1- पहाडिया आन्दोलन (1778) तंर उंींस पहाडिया क्षे= में अतिक्रमण
2- खोंड विद्रोह (1837-56) चक्रबिसोई मानव बलि प्रथा बंद करने एवं साहूकारों के प्रवेश के विरूद्व
3- कोल एवं हो विद्रोह अंग्रेजों द्वारा इनके क्षेत्रें
(1827-30) में अतिक्रमण
4- संथाल विद्रोह सिद्वू, कान्हू दीकुओ (बाहरी लोगों) द्वारा
(1855-56) आर्थिक शोषण के विरूद्व
5- खेखाड विद्रोह भागीरथ आर्थिक शोषण के विरूद्व
(1835)
द्वितीय चरण के आन्दोलन
1- खाखाड़ विद्रोह (1870) लगान बंदोबस्ती के विरूद्व एकेश्वरवाद एवं आतंरिक    सुधाारों का प्रचार)
2- खोण्डा डोरा विद्रोह कोर्रा मल्लया अंग्रेजों के शोषण के विरूद्व
(1900) (इसने पाण्डवों का
अवतार होने का
दावा किया)
3- नैकदा आन्दोलन अंग्रेज अधिाकारियों एवं सवर्ण हिन्दुओं के विरूद्व धर्मराज स्थापित करना उद्देश्य
4- भील विद्रोह गोविन्द गुरू बंधा आ मजदूरी के विरूद्व
(1911-1913) भीलराज स्थापित करना उद्देश्य
5- भुयान और जुआंग रत्ननायक आदिवासियों का आत्मसम्मान
विदा्रह (1867-68) आहतकरना एवं आर्थिक शोषण
1891-1893)
6- बस्तर का विद्रोह वन अधिानियमों का क्रियान्वयन
(1910) एवं सामन्तीकरारोपण
7- कोया विद्रोह टोम्भा सोरा आदिवासियों के परम्परागत
(1803-1880) अधिाकारों में हस्तक्षेप, साहूकारी
शोषण के विरूद्व
8- मुण्डा विद्रोह बिरसा मुण्डा मुण्डारी प्रथा रोकने व सामन्ती
(1899-1900) शोषण के विरूद्व

तृतीय चरण के आन्दोलन
ताना भगत आन्दोलन आर्थिक कमजोरी के लिए
(1920-30) सांस्ड्डतिकरण को लेकर
चेंचू आन्दोलन चरवाही शुल्क एवं जंगल कानून
(1920-30) के विरूद्व
रम्पा विद्रोह अल्लूरी सीताराम राजू साहूकारी शोषण एवं वन
(1916-24) कानून के विरूद्व