1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट
ईस्ट इंडिया कम्पनी पर संसदीय नियं=ण की शुरूआत।
बम्बई प्रेसीडेंसी को कलकता प्रेसीडेंसी के अधाीन कर दिया गया। जिसका प्रमुख गवर्नर जनरल होता था।
गवर्नर जनरल की कौंसिल में चार पार्षद होते थे, इनका कार्य काल पांच वर्ष का होता था।
गवर्नर जनरल इन कौंसिल को कम्पनी के सम्पूर्ण राज्य क्षे= के बेहतर शासन के लिए नियम, अधयादेश तथा विनिमय बनाने की शक्तियां प्रदान की गई थीं।
कलकता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इस न्यायालय में प्रधाान न्यायाधाीश के अतिरिक्त तीन न्यायाधाीश थे।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
1781 का बंगाल न्यायालय अधिानियम
रेग्यूलेटिंग एक्ट की =ुटियों को दूर करने के लिए लाया गया।
सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों एवं न्यायाधिाकार की व्याख्या की गई।
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के ऊपर अपने प्रभाव को और मजबूत करने के लिए 1784 का पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया।
पिट्स इंडिया एक्ट के विवाद को लेकर ही लार्ड नार्थ एवं फ़ाक्स की मिली जुली सरकार को त्याग प= देना पडा। यह पहला और अन्तिम अवसर था जब किसी भारतीय मामले पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी हो।
कम्पनी के वाणिज्य संबंधाी विषयों को छोडकर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधाी मामलों को एक नियं=ण बोर्ड के अधाीन कर दिया गया।
भारत में प्रशासन गवर्नर जनरल तथा उसकी चार के स्थान पर तीन सदस्यों वाली परिषद के हाथों दे दिया गया।
भारत में कम्पनी द्वारा अधिाड्डत प्रदेशों को पहली बार ब्रिटिश अधिाड्डत भारतीय प्रदेश का नाम दिया गया।
ब्रिटिश सरकार में एक अलग विभाग खोला गया जिसका एकमा= प्रकार्य कंपनी के निदेशकों तथा भारतीय प्रशासन पर नियं=ण रखना था।
इस अधिानियम द्वारा दोहरी शासन प्रणाली की शुरूआत हुई जो 1858 तक चलती रही - एक कंपनी के द्वारा तथा दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेंसियां भी गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधाीन कर दी गई।
1793 का चार्टर एक्ट
इस अधिानियम द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिाकारों को 20 वर्ष के लिए बढा दिया गया।
मुख्य सेना पति को गवर्नर जनरल की परिषद का स्वतः ही सदस्य होने का अधिाकार समाप्त हो गया।
1813 का चार्टर एक्ट
इस एक्ट द्वारा कम्पनी का भारतीय व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया यद्यपि उसके चीन के तथा चाय के व्यापार का एकाधिाकार चलता रहा।
प्रथम बार अंग्रेजों की भारत पर संवैधाानिक स्थिति स्पष्ट की गई थी।
1813 के अधिानियम से नियं=ण बोर्ड की अधाीक्षण तथा निर्देशन की शक्ति को न केवल परिभाषित अथवा स्पष्ट किया गया अपितु उसका पर्याप्त रूप से विस्तार किया गया।
जिस बात ने इस एक्ट को महत्वपूर्ण बना दिया वह था शिक्षा के मद में 1 लाख रूपए वार्षिक खर्च करना।
1833 का चार्टर एक्ट
1833 के चार्टर एक्ट पर इंगलैण्ड की औद्योगिक क्रांति, उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फ़ेयर के सिद्धांत की छाप थी।
नियं=ण बोर्ड के सचिव मेकाले तथा बेंथम के शिष्य जेम्स मिल का प्रभाव 1833 के चार्टर एक्ट पर स्पष्ट रूप से प्रतिधवनित होता है।
इस अधिानियम ने कम्पनी को 20 वर्षो के लिए नया जीवन दिया तथा उसे एक ट्रस्टी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
कम्पनी के व्यापारिक अधिाकार समाप्त कर दिए गए और उसे भविष्य में केवल राजनैतिक कार्य ही करने थे।
इस अधिानियम से कम्पनी के डायरेक्टर के संरक्षण को कम कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा भारत के प्रशासन का केन्द्रीकरण कर दिया गया।
बंगाल का गवर्नर जनरल भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
सपरिषद् गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियं=ण, निरीक्षण तथा निर्देशन सौंप दिया गया।
बम्बई, मद्रास तथा बंगाल एवं अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियं=ण में दे दिए गए।
सभी कर गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही लगाए जाने थे और उसे ही इसके व्यय का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने की शक्ति का भी केन्द्रीकरण कर दिया गया अब केवल सपरिषद गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में एक विधिा सदस्य चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित कर लिया गया। सैद्वांतिक रूप से उसे केवल कानून बनाते समय परिषद की बैठक में भाग लेने तथा मत देने का अधिाकार था।
सर्वप्रथम मैकाले को विधिा सदस्य के रूप में गवर्नर जनरल की परिषद में शामिल किया गया।
इस एक्ट की धाारा 87 के अनुसार नियुक्तियों के लिए योग्यता संबंधाी मापदंड अपनाकर भेदभाव को समाप्त किया गया।
कम्पनी के भारतीय चाय तथा चीन के व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा दासता को अवैधा घोषित किया गया।
कम्पनी के ऋणों की जिम्मेदारी भारत सरकार ने अपने ऊपर ले ली।
1853 का चार्टर एक्ट
भारत के लिए एक पृथक विधाान परिषद की स्थापना की गई, इस परिषद की कार्यप्रणाली अंग्रेजी संसद के अनुसार निश्चित की गई।
डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें 6 क्राउन द्वारा मनोनीत किए जाने थे।
भारत में प्रशासकीय सेवाओं में नियुक्तियों को शासित करने के लिए नियम एवं विनियम तैयार करने के लिए नियं=क मंडल को अधिाड्डत किया गया।
सिविल सेवा परीक्षा भारतीय लोगों के लिए खोल दी गई और एक खुली प्रतियोगिता के माधयम से इस सेवा में प्रवेश संभव बनाया गया।
विधिा सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
विधाान सभा द्वारा पारित विधोयक को गवर्नर जनरल विटो कर सकता था।
परिषद में वाद-विवाद का रूप मौखिक था। परिषद का कार्य गोपनीय नहीं अपितु सार्वजनिक होता था।
विधाान परिषद एक प्रकार का एंग्लो इंडियन का हाउस ऑफ़ कामन्स बन गया।
1858 का अधिानियम
इस एक्टको एक्ट फ़ॉर द बेटर गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, नाम दिया गया।
1857 की क्रांति के दमन के बाद ब्रिटिश संसद ने इस अधिानियम को पारित किया।
इस अधिानियम द्वारा भारत का शासन कम्पनी से हटाकर क्राउन को हस्तांतरित कर दिया गया।
भारत का प्रशासन भारत विषयक मं=ी अथवा भारत राज्य सचिव जो कि ब्रिटिश कैबिनेट मंत्रियों में से एक था, को सौंप दी गई।
भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों वाली एक परिषद (8 की नियुक्ति क्राउन द्वारा तथा 7 की नियुक्ति बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा) का गठन किया गया।
अब तक निदेशक मंडल या नियं=ण मंडल द्वारा प्रयोग की जा रही समस्त शक्तियां भारत राज्य सचिव को सौंप दी गई।
इस प्रकार 1784 के पिटस इंडिया एक्ट के द्वारा लागू दोहरी शासन व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
भारत राज्य सचिव तथा उसके परिषद के खर्च का वहन भारतीय राजस्व से किया जाना था।
परिषद की भूमिका केवल परामर्शदाता की थी और प्रायः बहुत से मामलों में राज्य सचिव का निर्णय ही अन्तिम होता था।
गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधिा दी गई। वह क्राउन का सीधाा प्रतिनिधिा बन गया।
संभावित जानपद सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी जिसके लिए राज्य सचिव ने जानपद सेवा आयुक्तों की सहायता से नियम बनाए।
भारत के राज्य सचिव को निगम निकाय घोषित किया गया।
राज्य सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
1861 का भारतीय परिषद अधिानियम
1861 के अधिानियम ने भारत में प्रतिनिधिा संस्थाओं को जन्म दिया।
वायसराय की कार्यकारी परिषद में एक पांचवा सदस्य सम्मिलित कर दिया गया जो एक विधिावेता था।
वायसराय की परिषद को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई जिसके तहत लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरूआत की।
कैनिंग ने भिन्न-भिन्न विभाग भिन्न सदस्यों को दे दिए। इस प्रकार भारत सरकार की मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव रखी गई।
वायसराय की कार्यकारी परिषद का विस्तार किया गया। न्यूनतम संख्या 6 और अधिाकतम संख्या 12 निर्धाारित की गई।
इनको वायसराय मनोनीत करेगा और वे दो वर्षो तक अपने पद पर बने रहेंगे। इनमें से कम से कम आधो सदस्य गैर सरकारी होंगे।
विधाान परिषद का कार्य केवल कानून बनाना था, इसको प्रशासन अथवा वित अथवा प्रश्न इत्यादि पूछने का कोई अधिाकार नहीं था।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रांतों को अपने लिए कानून बनाने तथा उनमें संशोधान करने का अधिाकार दे दिया गया।
इन प्रांतीय परिषदों द्वारा बनाए गए कोई भी कानून उस समय तक वैधा नहीं माने जाएंगे जब तक कि वह गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त न कर ले।
गवर्नर जनरल को संकटकालीन अवस्था में विधाान परिषद की अनुमति के बिना ही अधयादेश जारी करने का अधिाकार दे दिया गया।
ये अधयादेश अधिाक से अधिाक छः महीने लागू रह सकते थे।
1892 का भारतीय परिषद अधिानियम
इस अधिानियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।
केन्द्रीय विधाान परिषद में न्यूनतम 10 तथा अधिाकतम सदस्य संख्या 16 निर्धाारित की गई।
वायसराय के सदस्यों के नामांकन का अधिाकार सुरक्षित रखा गया।
परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिाकार मिला।
सदस्य पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों को बम्बई तथा मद्रास में इस अधिानियम द्वारा न्यूनतम 8 तथा अधिाकतम 20 अतिरिक्त सदस्याें द्वारा बढ़ा दिया गया।
केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषद के सदस्यों को सार्वजनिक हितों के मामलों में 6 दिन की सूचना देकर प्रश्न पूछने का अधिाकार दिया गया।
इस अधिानियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधाान चुनाव पद्वति की शुरूआत करनी थी।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अधिाकारियों के अतिरिक्त 5 गैर सरकारी सदस्य होते थे, जिन्हें चार प्रांतों के प्रांतीय विधाान मण्डल के गैर सरकारी सदस्य तथा कलकता के वाणिज्य मंडल के सदस्य निर्वाचित करते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों के सदस्यों को नगरपालिकाएं, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय तथा वाणिज्य मंडल निर्वाचित करते थे।
निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी तथा निर्वाचित सदस्यों को मनोनीत की संज्ञा दी जाती थी।
1909 का भारतीय परिषद एक्ट (मॉरले-मिण्टो सुधाार)
मॉरले - भारत राज्य सचिव
मिण्टो - गवर्नर जनरल
फ़रवरी 1909 में पारित
1909 के अधिानियम द्वारा भारतीयों को विधिा निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधिात्व प्रदान किया गया।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अतिरिक्त सदस्यों की अधिाकतम संख्या 60 कर दी गई।
इनमें 37 शासकीय तथा 32 अशासकीय वर्ग के थे।
शासकीय सदस्यों में 9 पदेन सदस्य थे तथा 28 सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए गए जाते थे।
32 अशासकीय सदस्यों में 5 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए जाते थे और शेष 27 निर्वाचित होते थे।
निर्वाचक मंडल को तीन भागों में बांटा गया था - साधाारण निर्वाचक मंडल, वर्गीय निर्वाचन मंडल तथा विशिष्ट निर्वाचक मंडल।
इस अधिानियम द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिाकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रें की स्थापना की गई।
इस अधिानियम द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के साथ-साथ प्रांतीय कार्यकारी परिषदों में भी एक भारतीय व्यक्ति की नियुक्ति का प्रावधाान किया गया था।
बंगाल, मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी संख्या बढाकर 4 कर दी गई।
परिषद के सदस्यों को विदेशी संबंधाों तथा देशी राजाओं से संबंधाों, कानून के सामने निर्णय के लिए आए प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं थी।
एक्ट पर विचार
महात्मा गांधाी - मॉरले मिण्टो सुधाारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया।
के- एम- मुंशी - इन्होंने उभरते हुए प्रजातं= को मार डाला।
मॉरले - पृथक निर्वाचन मंडल स्थापित करके हम नाग के दांत बो रहे हैं और इसका फ़ल भीषण होगा।
मजूमदार - 1909 के सुधाार केवल चन्द्रमा की चांदनी के समान हैं।
1919 का भारत सरकार अधिानियम (मॉटफ़ोर्ड या मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधाार)
इस अधिानियम में पहली बार उतरदायी शासन शब्द का प्रयोग किया गया।
प्रांतों में आतंरिक उतरदायी शासन तथा द्वैधा शासन की स्थापना की गई।
1793 से भारत राज्य सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था अब वह अंग्रेजी राजस्व से मिलना था।
केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिाक प्रभावशाली भूमिका दी गई। वायसराय की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किए गए और उन्हें विधिा, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा उद्योग आदि विभाग सौंपे गए।
इस अधिानियम के अनुसार सभी विषयां को केन्द्र तथा प्रांतों में बांट दिया गया।
केन्द्र सूची के विषय - विदेशी मामले, रक्षा, डाक-तार सार्वजनिक ऋण आदि।
प्रांतीय सूची के विषय - स्थानीय स्वशासन, शिक्षा चिकित्सा, भूमिकर, ड्डषि, अकाल सहायता आदि।
सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास थीं।
क्ेन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गई - एक सदन राज्य परिषद तथा दूसरा केन्द्रीय विधाान सभा।
राज्य परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निश्चित की गई (34 निर्वाचित तथा 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत)।
केन्द्रीय विधाान सभा में सदस्यों की संख्या 145 निर्धाारित की गई (104 निर्वाचित तथा 41 मनोनीत, मनोनीत सदस्यों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय)।
द्विसदनीय केन्द्रीय विधाान मंडल को पर्याप्त शक्तियां दी गई। यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी।
सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी। प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पर कोई रोक नहीं थी। सदस्यों को बोलने का अधिाकार तथा स्वतं=ता थी।
इस विधोयक के तहत प्रांतों में द्वैधा शासन प्रणाली लागू की गई।
प्रांतीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - आरक्षित तथा हस्तांतरित।
आरक्षित विषयों पर प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था जिन्हें वह मनोनीत करता था।
हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल निर्वाचित सदस्यों के द्वारा करता था।
1919 के अधिानियम के द्वारा पंजाब में सिक्खों को कुछ प्रांतों में यूरोपीयनों, एंग्लों इंडियन को पृथक प्रतिनिधिात्व दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गई और मताधिाकार 3 प्रतिशत से बढाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया।
भारत शासन अधिानियम 1935
सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गई।
संघ के अधाीन तीन इकाइयां रखी गई थीं
क) ब्रिटिश भारतीय प्रांत ख) चीफ़ कमीश्नरों के प्रांत
ग) देशी रियासतें
इस अधिानियम द्वारा प्रांतों में द्वैधा शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैधा शासन लागू किया गया।
संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - संरक्षित और हस्तांतरित।
संरक्षित विषय - प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धाार्मिक विषय और जनजातीय मामले।
इस अधिानियम की सबसे बड़ी विशेषता प्रांतीय स्वायतता की स्थापना थी।
इस अधिानियम के अन्तर्गत प्रांतीय विधाान मंडलों का विस्तार किया गया।
इस अधिानियम द्वारा बर्मा को भारत से पृथक कर दिया गया।
दो नए प्रांतों सिंधा तथा उडीसा का निर्माण हुआ, प्रशासन के लिए बरार को मधय प्रांत का अंग बना दिया गया।
गवर्नर जनरल के सभी कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह से होते थे। इंडिया कौंसिल का अन्त कर दिया गया।
मताधिाकार का विस्तार किया गया, प्रांतों के करीब 11 प्रतिशत जनता को मतदान का अधिाकार दिया गया।
1935 के अधिानियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया -
1- संघ सूची 2- प्रांतीय सूची
3- समवर्ती सूची
संघ सूची में 59 विषय थे, प्रांतीय सूची में 54 विषय थे तथा समवर्ती सूची में 36 विषय थे।
अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनाएगा।
इस अधिानियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
संघीय न्यायालय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा कसती थी। संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिाकारिता प्राप्त थी।
प्रारंभिक, अपीलीय, तथा परामर्शदा=ी।
प्रारंभिक अधिाकारिता के अन्तर्गत संघीय न्यायालय संविधाान के उपबंधाों का निर्वाचन करता था या उससे संबंधिात विवादाेंं का।
अपीलीय अधिाकारिता के अन्तर्गत संघ न्यायालय भारत स्थित उच्च न्यायालयों के विनिश्चयों से अपील की सुनवाई करता था।
संघीय न्यायालय को सिविल तथा दांडिक मामलों में अपीलीय अधिाकारिता नहीं दी गई।
परामर्शदा=ी अधिाकारिता के अन्तर्गत गवर्नर जनरल को विधिा एवं तथ्य के किसी विषय पर सलाह देने का अधिाकार प्राप्त था।
नेहरू ने 1935 के अधिानियम के बारे में कहा कि ‘यह अनेक ब्रेकों वाला इंजन रहित गाड़ी के समान है।’
ईस्ट इंडिया कम्पनी पर संसदीय नियं=ण की शुरूआत।
बम्बई प्रेसीडेंसी को कलकता प्रेसीडेंसी के अधाीन कर दिया गया। जिसका प्रमुख गवर्नर जनरल होता था।
गवर्नर जनरल की कौंसिल में चार पार्षद होते थे, इनका कार्य काल पांच वर्ष का होता था।
गवर्नर जनरल इन कौंसिल को कम्पनी के सम्पूर्ण राज्य क्षे= के बेहतर शासन के लिए नियम, अधयादेश तथा विनिमय बनाने की शक्तियां प्रदान की गई थीं।
कलकता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इस न्यायालय में प्रधाान न्यायाधाीश के अतिरिक्त तीन न्यायाधाीश थे।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
1781 का बंगाल न्यायालय अधिानियम
रेग्यूलेटिंग एक्ट की =ुटियों को दूर करने के लिए लाया गया।
सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों एवं न्यायाधिाकार की व्याख्या की गई।
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के ऊपर अपने प्रभाव को और मजबूत करने के लिए 1784 का पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया।
पिट्स इंडिया एक्ट के विवाद को लेकर ही लार्ड नार्थ एवं फ़ाक्स की मिली जुली सरकार को त्याग प= देना पडा। यह पहला और अन्तिम अवसर था जब किसी भारतीय मामले पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी हो।
कम्पनी के वाणिज्य संबंधाी विषयों को छोडकर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधाी मामलों को एक नियं=ण बोर्ड के अधाीन कर दिया गया।
भारत में प्रशासन गवर्नर जनरल तथा उसकी चार के स्थान पर तीन सदस्यों वाली परिषद के हाथों दे दिया गया।
भारत में कम्पनी द्वारा अधिाड्डत प्रदेशों को पहली बार ब्रिटिश अधिाड्डत भारतीय प्रदेश का नाम दिया गया।
ब्रिटिश सरकार में एक अलग विभाग खोला गया जिसका एकमा= प्रकार्य कंपनी के निदेशकों तथा भारतीय प्रशासन पर नियं=ण रखना था।
इस अधिानियम द्वारा दोहरी शासन प्रणाली की शुरूआत हुई जो 1858 तक चलती रही - एक कंपनी के द्वारा तथा दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेंसियां भी गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधाीन कर दी गई।
1793 का चार्टर एक्ट
इस अधिानियम द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिाकारों को 20 वर्ष के लिए बढा दिया गया।
मुख्य सेना पति को गवर्नर जनरल की परिषद का स्वतः ही सदस्य होने का अधिाकार समाप्त हो गया।
1813 का चार्टर एक्ट
इस एक्ट द्वारा कम्पनी का भारतीय व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया यद्यपि उसके चीन के तथा चाय के व्यापार का एकाधिाकार चलता रहा।
प्रथम बार अंग्रेजों की भारत पर संवैधाानिक स्थिति स्पष्ट की गई थी।
1813 के अधिानियम से नियं=ण बोर्ड की अधाीक्षण तथा निर्देशन की शक्ति को न केवल परिभाषित अथवा स्पष्ट किया गया अपितु उसका पर्याप्त रूप से विस्तार किया गया।
जिस बात ने इस एक्ट को महत्वपूर्ण बना दिया वह था शिक्षा के मद में 1 लाख रूपए वार्षिक खर्च करना।
1833 का चार्टर एक्ट
1833 के चार्टर एक्ट पर इंगलैण्ड की औद्योगिक क्रांति, उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फ़ेयर के सिद्धांत की छाप थी।
नियं=ण बोर्ड के सचिव मेकाले तथा बेंथम के शिष्य जेम्स मिल का प्रभाव 1833 के चार्टर एक्ट पर स्पष्ट रूप से प्रतिधवनित होता है।
इस अधिानियम ने कम्पनी को 20 वर्षो के लिए नया जीवन दिया तथा उसे एक ट्रस्टी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
कम्पनी के व्यापारिक अधिाकार समाप्त कर दिए गए और उसे भविष्य में केवल राजनैतिक कार्य ही करने थे।
इस अधिानियम से कम्पनी के डायरेक्टर के संरक्षण को कम कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा भारत के प्रशासन का केन्द्रीकरण कर दिया गया।
बंगाल का गवर्नर जनरल भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
सपरिषद् गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियं=ण, निरीक्षण तथा निर्देशन सौंप दिया गया।
बम्बई, मद्रास तथा बंगाल एवं अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियं=ण में दे दिए गए।
सभी कर गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही लगाए जाने थे और उसे ही इसके व्यय का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने की शक्ति का भी केन्द्रीकरण कर दिया गया अब केवल सपरिषद गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में एक विधिा सदस्य चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित कर लिया गया। सैद्वांतिक रूप से उसे केवल कानून बनाते समय परिषद की बैठक में भाग लेने तथा मत देने का अधिाकार था।
सर्वप्रथम मैकाले को विधिा सदस्य के रूप में गवर्नर जनरल की परिषद में शामिल किया गया।
इस एक्ट की धाारा 87 के अनुसार नियुक्तियों के लिए योग्यता संबंधाी मापदंड अपनाकर भेदभाव को समाप्त किया गया।
कम्पनी के भारतीय चाय तथा चीन के व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा दासता को अवैधा घोषित किया गया।
कम्पनी के ऋणों की जिम्मेदारी भारत सरकार ने अपने ऊपर ले ली।
1853 का चार्टर एक्ट
भारत के लिए एक पृथक विधाान परिषद की स्थापना की गई, इस परिषद की कार्यप्रणाली अंग्रेजी संसद के अनुसार निश्चित की गई।
डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें 6 क्राउन द्वारा मनोनीत किए जाने थे।
भारत में प्रशासकीय सेवाओं में नियुक्तियों को शासित करने के लिए नियम एवं विनियम तैयार करने के लिए नियं=क मंडल को अधिाड्डत किया गया।
सिविल सेवा परीक्षा भारतीय लोगों के लिए खोल दी गई और एक खुली प्रतियोगिता के माधयम से इस सेवा में प्रवेश संभव बनाया गया।
विधिा सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
विधाान सभा द्वारा पारित विधोयक को गवर्नर जनरल विटो कर सकता था।
परिषद में वाद-विवाद का रूप मौखिक था। परिषद का कार्य गोपनीय नहीं अपितु सार्वजनिक होता था।
विधाान परिषद एक प्रकार का एंग्लो इंडियन का हाउस ऑफ़ कामन्स बन गया।
1858 का अधिानियम
इस एक्टको एक्ट फ़ॉर द बेटर गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, नाम दिया गया।
1857 की क्रांति के दमन के बाद ब्रिटिश संसद ने इस अधिानियम को पारित किया।
इस अधिानियम द्वारा भारत का शासन कम्पनी से हटाकर क्राउन को हस्तांतरित कर दिया गया।
भारत का प्रशासन भारत विषयक मं=ी अथवा भारत राज्य सचिव जो कि ब्रिटिश कैबिनेट मंत्रियों में से एक था, को सौंप दी गई।
भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों वाली एक परिषद (8 की नियुक्ति क्राउन द्वारा तथा 7 की नियुक्ति बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा) का गठन किया गया।
अब तक निदेशक मंडल या नियं=ण मंडल द्वारा प्रयोग की जा रही समस्त शक्तियां भारत राज्य सचिव को सौंप दी गई।
इस प्रकार 1784 के पिटस इंडिया एक्ट के द्वारा लागू दोहरी शासन व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
भारत राज्य सचिव तथा उसके परिषद के खर्च का वहन भारतीय राजस्व से किया जाना था।
परिषद की भूमिका केवल परामर्शदाता की थी और प्रायः बहुत से मामलों में राज्य सचिव का निर्णय ही अन्तिम होता था।
गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधिा दी गई। वह क्राउन का सीधाा प्रतिनिधिा बन गया।
संभावित जानपद सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी जिसके लिए राज्य सचिव ने जानपद सेवा आयुक्तों की सहायता से नियम बनाए।
भारत के राज्य सचिव को निगम निकाय घोषित किया गया।
राज्य सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
1861 का भारतीय परिषद अधिानियम
1861 के अधिानियम ने भारत में प्रतिनिधिा संस्थाओं को जन्म दिया।
वायसराय की कार्यकारी परिषद में एक पांचवा सदस्य सम्मिलित कर दिया गया जो एक विधिावेता था।
वायसराय की परिषद को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई जिसके तहत लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरूआत की।
कैनिंग ने भिन्न-भिन्न विभाग भिन्न सदस्यों को दे दिए। इस प्रकार भारत सरकार की मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव रखी गई।
वायसराय की कार्यकारी परिषद का विस्तार किया गया। न्यूनतम संख्या 6 और अधिाकतम संख्या 12 निर्धाारित की गई।
इनको वायसराय मनोनीत करेगा और वे दो वर्षो तक अपने पद पर बने रहेंगे। इनमें से कम से कम आधो सदस्य गैर सरकारी होंगे।
विधाान परिषद का कार्य केवल कानून बनाना था, इसको प्रशासन अथवा वित अथवा प्रश्न इत्यादि पूछने का कोई अधिाकार नहीं था।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रांतों को अपने लिए कानून बनाने तथा उनमें संशोधान करने का अधिाकार दे दिया गया।
इन प्रांतीय परिषदों द्वारा बनाए गए कोई भी कानून उस समय तक वैधा नहीं माने जाएंगे जब तक कि वह गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त न कर ले।
गवर्नर जनरल को संकटकालीन अवस्था में विधाान परिषद की अनुमति के बिना ही अधयादेश जारी करने का अधिाकार दे दिया गया।
ये अधयादेश अधिाक से अधिाक छः महीने लागू रह सकते थे।
1892 का भारतीय परिषद अधिानियम
इस अधिानियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।
केन्द्रीय विधाान परिषद में न्यूनतम 10 तथा अधिाकतम सदस्य संख्या 16 निर्धाारित की गई।
वायसराय के सदस्यों के नामांकन का अधिाकार सुरक्षित रखा गया।
परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिाकार मिला।
सदस्य पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों को बम्बई तथा मद्रास में इस अधिानियम द्वारा न्यूनतम 8 तथा अधिाकतम 20 अतिरिक्त सदस्याें द्वारा बढ़ा दिया गया।
केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषद के सदस्यों को सार्वजनिक हितों के मामलों में 6 दिन की सूचना देकर प्रश्न पूछने का अधिाकार दिया गया।
इस अधिानियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधाान चुनाव पद्वति की शुरूआत करनी थी।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अधिाकारियों के अतिरिक्त 5 गैर सरकारी सदस्य होते थे, जिन्हें चार प्रांतों के प्रांतीय विधाान मण्डल के गैर सरकारी सदस्य तथा कलकता के वाणिज्य मंडल के सदस्य निर्वाचित करते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों के सदस्यों को नगरपालिकाएं, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय तथा वाणिज्य मंडल निर्वाचित करते थे।
निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी तथा निर्वाचित सदस्यों को मनोनीत की संज्ञा दी जाती थी।
1909 का भारतीय परिषद एक्ट (मॉरले-मिण्टो सुधाार)
मॉरले - भारत राज्य सचिव
मिण्टो - गवर्नर जनरल
फ़रवरी 1909 में पारित
1909 के अधिानियम द्वारा भारतीयों को विधिा निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधिात्व प्रदान किया गया।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अतिरिक्त सदस्यों की अधिाकतम संख्या 60 कर दी गई।
इनमें 37 शासकीय तथा 32 अशासकीय वर्ग के थे।
शासकीय सदस्यों में 9 पदेन सदस्य थे तथा 28 सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए गए जाते थे।
32 अशासकीय सदस्यों में 5 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए जाते थे और शेष 27 निर्वाचित होते थे।
निर्वाचक मंडल को तीन भागों में बांटा गया था - साधाारण निर्वाचक मंडल, वर्गीय निर्वाचन मंडल तथा विशिष्ट निर्वाचक मंडल।
इस अधिानियम द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिाकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रें की स्थापना की गई।
इस अधिानियम द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के साथ-साथ प्रांतीय कार्यकारी परिषदों में भी एक भारतीय व्यक्ति की नियुक्ति का प्रावधाान किया गया था।
बंगाल, मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी संख्या बढाकर 4 कर दी गई।
परिषद के सदस्यों को विदेशी संबंधाों तथा देशी राजाओं से संबंधाों, कानून के सामने निर्णय के लिए आए प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं थी।
एक्ट पर विचार
महात्मा गांधाी - मॉरले मिण्टो सुधाारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया।
के- एम- मुंशी - इन्होंने उभरते हुए प्रजातं= को मार डाला।
मॉरले - पृथक निर्वाचन मंडल स्थापित करके हम नाग के दांत बो रहे हैं और इसका फ़ल भीषण होगा।
मजूमदार - 1909 के सुधाार केवल चन्द्रमा की चांदनी के समान हैं।
1919 का भारत सरकार अधिानियम (मॉटफ़ोर्ड या मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधाार)
इस अधिानियम में पहली बार उतरदायी शासन शब्द का प्रयोग किया गया।
प्रांतों में आतंरिक उतरदायी शासन तथा द्वैधा शासन की स्थापना की गई।
1793 से भारत राज्य सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था अब वह अंग्रेजी राजस्व से मिलना था।
केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिाक प्रभावशाली भूमिका दी गई। वायसराय की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किए गए और उन्हें विधिा, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा उद्योग आदि विभाग सौंपे गए।
इस अधिानियम के अनुसार सभी विषयां को केन्द्र तथा प्रांतों में बांट दिया गया।
केन्द्र सूची के विषय - विदेशी मामले, रक्षा, डाक-तार सार्वजनिक ऋण आदि।
प्रांतीय सूची के विषय - स्थानीय स्वशासन, शिक्षा चिकित्सा, भूमिकर, ड्डषि, अकाल सहायता आदि।
सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास थीं।
क्ेन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गई - एक सदन राज्य परिषद तथा दूसरा केन्द्रीय विधाान सभा।
राज्य परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निश्चित की गई (34 निर्वाचित तथा 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत)।
केन्द्रीय विधाान सभा में सदस्यों की संख्या 145 निर्धाारित की गई (104 निर्वाचित तथा 41 मनोनीत, मनोनीत सदस्यों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय)।
द्विसदनीय केन्द्रीय विधाान मंडल को पर्याप्त शक्तियां दी गई। यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी।
सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी। प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पर कोई रोक नहीं थी। सदस्यों को बोलने का अधिाकार तथा स्वतं=ता थी।
इस विधोयक के तहत प्रांतों में द्वैधा शासन प्रणाली लागू की गई।
प्रांतीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - आरक्षित तथा हस्तांतरित।
आरक्षित विषयों पर प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था जिन्हें वह मनोनीत करता था।
हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल निर्वाचित सदस्यों के द्वारा करता था।
1919 के अधिानियम के द्वारा पंजाब में सिक्खों को कुछ प्रांतों में यूरोपीयनों, एंग्लों इंडियन को पृथक प्रतिनिधिात्व दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गई और मताधिाकार 3 प्रतिशत से बढाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया।
भारत शासन अधिानियम 1935
सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गई।
संघ के अधाीन तीन इकाइयां रखी गई थीं
क) ब्रिटिश भारतीय प्रांत ख) चीफ़ कमीश्नरों के प्रांत
ग) देशी रियासतें
इस अधिानियम द्वारा प्रांतों में द्वैधा शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैधा शासन लागू किया गया।
संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - संरक्षित और हस्तांतरित।
संरक्षित विषय - प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धाार्मिक विषय और जनजातीय मामले।
इस अधिानियम की सबसे बड़ी विशेषता प्रांतीय स्वायतता की स्थापना थी।
इस अधिानियम के अन्तर्गत प्रांतीय विधाान मंडलों का विस्तार किया गया।
इस अधिानियम द्वारा बर्मा को भारत से पृथक कर दिया गया।
दो नए प्रांतों सिंधा तथा उडीसा का निर्माण हुआ, प्रशासन के लिए बरार को मधय प्रांत का अंग बना दिया गया।
गवर्नर जनरल के सभी कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह से होते थे। इंडिया कौंसिल का अन्त कर दिया गया।
मताधिाकार का विस्तार किया गया, प्रांतों के करीब 11 प्रतिशत जनता को मतदान का अधिाकार दिया गया।
1935 के अधिानियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया -
1- संघ सूची 2- प्रांतीय सूची
3- समवर्ती सूची
संघ सूची में 59 विषय थे, प्रांतीय सूची में 54 विषय थे तथा समवर्ती सूची में 36 विषय थे।
अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनाएगा।
इस अधिानियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
संघीय न्यायालय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा कसती थी। संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिाकारिता प्राप्त थी।
प्रारंभिक, अपीलीय, तथा परामर्शदा=ी।
प्रारंभिक अधिाकारिता के अन्तर्गत संघीय न्यायालय संविधाान के उपबंधाों का निर्वाचन करता था या उससे संबंधिात विवादाेंं का।
अपीलीय अधिाकारिता के अन्तर्गत संघ न्यायालय भारत स्थित उच्च न्यायालयों के विनिश्चयों से अपील की सुनवाई करता था।
संघीय न्यायालय को सिविल तथा दांडिक मामलों में अपीलीय अधिाकारिता नहीं दी गई।
परामर्शदा=ी अधिाकारिता के अन्तर्गत गवर्नर जनरल को विधिा एवं तथ्य के किसी विषय पर सलाह देने का अधिाकार प्राप्त था।
नेहरू ने 1935 के अधिानियम के बारे में कहा कि ‘यह अनेक ब्रेकों वाला इंजन रहित गाड़ी के समान है।’
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