जिस समकालीन विश्व को मुगल साम्राज्य ने अपने विस्तृत प्रदेश, विशाल सेना तथा सांस्कृतिक उपलब्धिायों से आश्चर्यजनक कर दिया था। वह 18वीं शताब्दी के आरंभ से अवनति की तरफ़ बढ़ रहा था। औरंगजेब के बाद कई शासक दिल्ली के सिंहासन पर बैठें लेकिन कोई भी साम्राज्य के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों का सामना नहीं कर सका। वहीं साम्राज्य के दरबार में कूटनीति, घृणा, द्वेष, हत्या आदि का दौर चला। इससे मुगल साम्राज्य कमजोर होता गया। दूसरी तरफ़ प्रांतों के शासक भी स्वतं= व्यवहार करने लगे। ऐसी स्थिति में बाह्य आक्रमण ने मुगल साम्राज्य को भारी हानि पहुंचायी तथा पानीपत के तृतीय यु) द्ध1761ऋ में उभरती मराठा शक्ति अफ़गान शासक अब्दाली के सामने पराजित हो गयी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि भारत पर शासन मराठा शक्ति नहीं कोई अन्य की करेगा। इसी परिस्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी लगातार अपनी शक्ति बढ़ा रही थी तथा राजनीतिक शून्यता को भरने के क्रम में उसने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। ब्रिटिश राज्य स्थापना एवं साम्राज्य विस्तार को उसकी निम्न नीतियां के माध्यम से समझ सकते हैं।
देशी राज्यों से संधियां
बंगाल पर आधिपत्य द्ध1757 के प्लासी यु)ऋ से लेकर 1857 की क्रांति तक अंग्रेजी साम्राज्य के निरंतर अपना विस्तार किया। उसके इस विस्तारवादी नीति को निम्न आधार पर समझ सकते हैं।
मण्डलाकार रक्षापंक्ति की नीति (रिंग फेंस पॉलिसी)
सन् 1764 में बक्सर के यु) में अवध की पराजय के बाद उस राज्य पर कम्पनी अपना अधिकार कर सकती थी। किन्तु क्लाइव ने ऐसा न करके अवध के साथ एक आक्रामक तथा प्रतिरक्षात्मक संधि कर ली। इस संधि के अनुसार जिस नीति का पालन किया वह ‘‘मण्डलाकार रक्षापंक्ति’’ की नीति के नाम से प्रसि) हुई। इस नीति के अंतर्गत कंपनी ने अपने राज्य की रक्षा के लिये अपने पड़ोसी राज्यों की अनेक श=ुओं से रक्षा करने का भार अपने कंधों पर ले लिया। उस समय मराठे अवध को हड़पने का विचार कर रहे थे। उनका अवध पर अधिकार हो जाने के बाद बंगाल तथा बिहार की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती। इस प्रकार अवध को कंपनी तथा मराठों के राज्यों के बीच एक मध्यस्थ राज्य के रूप में बनाये रखने की नीति को अपनाया गया। दक्षिण में भी इसी नीति का अनुसरण किया गया। इस प्रकार कंपनी अपने अधीन प्रदेशों से दूर के क्षेत्रें में यु) करती थी। इस नीति के अंतर्गत कंपनी तथा देशी राज्यों के मध्य संधियों लगभग समानता के आधार पर होती थी। किन्तु कंपनी के शासकों ने इस नीति का ईमानदारी से पालन नहीं किया तथा अपने स्वार्थ हेतु उन्होंने राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया।
सहायक संधि (सबसीडियरी एलाएंस)
वेलेजली ने भारतीय राज्यों की अंग्रेजी राजनैतिक परिधिा में लाने के लिए सहायक संधिा प्रणाली का प्रयोग किया। इससे अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित हो गई एवं तत्कालीन समय में उत्पन्न हो रहा नेपोलियन का भय भी टल गया।
सहायक संधिा प्रणाली बहुत पहले से ही अस्तित्व में थी। इसका सर्वप्रथम प्रयोग डूप्ले ने किया जब उसने अपनी सेनायें किराए पर भारतीय राजाओं को दी। क्लाइव के समय से यह प्रणाली सभी गर्वनरों ने अपनाई लेकिन वेलेजली ने अपने संपर्क में आने वाले सभी देशी राजाआें के संबंधाों में उसका प्रयोग किया। इसके निम्न प्रावधाान थे:-
देशी नरेश कंपनी की अनुमति के बिना किसी अन्य देशी रियासतों से यु) या समझौता नहीं करेगा।
वह बिना कंपनी की आज्ञा के अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी अन्य यूरोपियन को नौकरी में नहीं रखेगा।
देशी नरेश की रक्षा के लिये कंपनी के अधीन एक सेना रखी जायेगी जिसका व्यय उसको वहन करना पड़ेगा। या उसके व्यय के लिये कंपनी को कुछ भूमि दे दी जाएगी।
उसे आपने दरबार में एक अंग्रेज रेजीडेन्ट रखना होगा।
कंपनी देशी नरेश की रक्षा बाह्य तथा आंतरिक श=ुओं से करेगी।
वेलेजली ने इस प्रकार की संधि सन् 1798 में निजाम से, 1799 में मैसूर के हिन्दू राजा से, अवध के नवाब से, बेसीन की संधि पेशवा से तथा द्वितीय आंग्ल-मराठा यु) के बाद सिंधिया से की।
सहायक संधि का मूल्यांकन
कम्पनी को लाभ:
सहायक संधि करने वाले राज्य की वैदेशिक नीति कंपनी के अधीन हो गई।
फ्रांसीसी प्रभाव देशी राजाओं के दरबार से समाप्त होने लगा।
बिना किसी प्रकार का व्यय वहन किये कंपनी की सैनिक शक्ति कई गुना बढ़ गई। देशी राजाओं की सुरक्षा के लिये रखी गई सेनाओं का वह कंपनी के राज्य विस्तार हेतु प्रयोग करती थीं।
नेपोलियन बोनापार्ट द्धफ्रांसीसी सम्राटऋ द्वारा उत्पन्न किये जा रहे खतरे की तैयारी भी हो गयी। नेपोलियन का मानना था कि कंपनी साम्राज्य का भारत से अलग किया जाना जरूरी है।
राजाओं को लाभ:
राजाओं को इससे लाभ तो यह हुआ कि उनको न तो अब बाहरी आक्रमणों की चिंता थी और न ही आंतरिक विद्रोहों की। किन्तु इस लाभ के साथ उनको एक बड़ी हानि भी हुई, वे पंगु हो गये, उन्होंने राज्य के प्रशासन की ओर ध्यान देना बंद कर दिया, जिसका परिणाम हुआ कुशासन। कुशासन के आधार पर ही डलहौजी ने अवध के राज्य को कंपनी के राज्य में विलय कर लिया था।
अधीश्वरता तथा अधीन पृथक्करण की नीति (पेरामाउंडसी एण्ड सर्बोडिनेट आइसोलेशन)
सहायक संधि में भी सि)ांततः समता की भावना विद्यमान थी। कंपनी ने कभी खुलकर सर्वोपरिता का दावा नहीं किया। यूरोप में नेपोलियन के पतन के बाद सन् 1813 के बाद हेस्टिंग्ज ने देशी राज्यों के प्रति आक्रामक नीति प्रारंभ कर दी। यह नीति अधीश्वरता तथा अधीन पृथक्करण की नीति कहलाई।
इस नीति के प्रमुख तत्व थे:
देशी राज्यों द्वारा कंपनी को सर्वोच्च शक्ति मानना तथा देशी राज्यों का पूर्णतया कंपनी के अधीन होना, देशी राज्यों द्वारा आपस में बिना कंपनी की अनुमति के कोई समझौता नहीं हो सकता था तथा ब्रिटिश रेजीडेंट के निर्देशानुसार उनको कार्य करना आदि। इस प्रकार की संधियां हेस्टिंग्ज ने सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ आदि से की तथा राजपूताना मध्य भारत तथा गायकवाड़ के राजाओं पर अधीश्वरता स्थापित की गई।
ब्रिटिश सर्वोच्चता का सिद्धांत
इस समय तक नेपोलियन का पतन हो चुका था जिससे फ्रांसीसी खतरा समाप्त हो गया था। वहीं वेलेजली ने भारत में कम्पनी का सैनिक प्रभुत्व स्थापित किया था तथा भारतीय प्रतिद्वंद्वियों को पराजित किया था। दूसरी तरफ़ ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांन्ति ने औद्योगिक उत्पादन को बढ़ा दिया था। जिसके लिए एक मुक्त बाजार की आवश्यकता थी। अतः लार्ड हेस्टिग्ंज द्ध1813-23ऋ ने अंग्रेजी राजनैतिक सर्वश्रेष्ठता स्थापित की। इसे ही पारामांउटसी का सि)ांत कहते हैं।
पारामांउटसी नीति के कुछ विशेष तत्व
देशी राज्य द्वारा कंपनी को सर्वोच्च शक्ति मानना तथा देशी राज्य का पूर्णतया कंपनी के अधीन होना।
देशी राज्य आपस में बिना कंपनी की अनुमति के कोई समझौता नहीं कर सकते तथा ब्रिटिश रेजिडेंट के निर्देशानुसार कार्य करता था।
इस प्रकार की संधिा द्धसिंधिाया, होलकर, गायकवाड़, मध्य भारत के राजपूताना आदिऋ ने देसी राजाओं पर ब्रिटिश सर्वोच्चता स्थापित कर दी।
परामाउंसी सि)ांत के तहत सर्वप्रथम हेस्टिंग्स नेपाल से यु) किया तथा सगौली का संधिा द्ध1816ऋ की। इसके तहत कई नये क्षेत्रें द्धगढ़वाल, कुमाऊं, शिमला आदिऋ पर अंग्रेजी सर्वश्रेष्ठता स्थापित हुई। इसी प्रकार मराठों से निर्णायक यु) द्धआंग्ल-मराठा यु) तृतीयऋ ने अंग्रेजी सर्वश्रेष्ठता स्थापित की।
अतः जो व्यक्ति वेलेजली की नीति का आलोचक था उसी ने उसके कार्यों को पूरा किया। जो राज्य कम्पनी की बराबरी करना चाहते थे। वे सब परास्त कर दिए गए तथा भारत में कम्पनी की सर्वश्रेष्ठता पूर्णतया स्थापित हो गया।
व्यपगत का सिद्धांत
व्ययगत सि)ांत से पूर्ण भारत में तीन प्रकार की रियासतें थीं।
वे रियासतें जो उच्चतर शक्ति के अधाीन नहीं थी और न ही ‘कर’ देती थी।
वे रियासतें जो पहले मुगलों एवं मराठों के अधाीन थे तथा अब वे अंग्रेजाें के अधाीनस्थ थी।
वे रियासतें जो अंग्रेजों ने सनद द्वारा स्थापित या पुनर्जीवित की थीं।
अतः मुगल साम्राज्य के पतन तथा मराठा संघ की हार के पश्चात भारत में 1818 ई- कम्पनी सर्वश्रेष्ठ बन गई थी। अतः डलहौजी ने द्ध1848-56ऋ गवर्नर जनरल बनते ही साम्राज्य विस्तार की दो नीतियां अपनायी यु) और व्यपगत सि)ांत की। यु) नीति के तहत पंजाब एवं लोअर बर्मा का विलय किया। दूसरी तरफ़ व्ययगत सि)ांत के अंतर्गत डलहौजी का मानना था कि प्रथम श्रेणी की मामलों वाले रियासतों में गोद लेेने के मामले में कंपनी को हस्तक्ष्ेाप करने का अधिाकार नहीं है। वहीं दूसरी श्रेणी के रियासतों से गोद लेने की अनुमति कंपनी द्वारा प्राप्त करना आवश्यक था जिसे कंपनी मना भी कर सकती थी। तीसरी श्रेणी के रियासत गोद नहीं ले सकती थे। अतः डलहौजी ने उत्तराधिाकार विहीन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। जिसमें सतारा द्ध1948ऋ, जैतपुर, संभलपुर द्ध1849ऋ, बघाट, उदयपुर, झांसी, नागपुर जैसी रियासतें थी।
वस्तुतः व्यपगत सि)ांत के तहत नहीं आने वाले रियासतों को भी डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया। उसका मानना था कि इन रियासताेंं में प्रशासन ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर रहा था। जैसे अवध का विलय।
अतः व्यपगत सि)ांत के तहत ब्रिटिश साम्राजय का विस्तार हुआ और भारत का 2/3 भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया। वस्तुतः 1757 से कंपनी द्वारा प्रारंभ राजनीतिक सुदृढता 1856 तक पूर्ण हो गई। जिसमें व्यपगत सि)ांत ने साम्राज्य विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन व्यपगत सि)ांत ने कुछ भारतीय राजाओं को असंतुष्ट कर दिया जिन्हाेंने 1857 की क्रांति में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
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