Tuesday, 7 November 2017

1857 का विद्रोह

सन् 1857 ई- में उत्तरी और मध्य भारत में एक शक्तिशाली जनविद्रोह उठ खड़ा हुआ और उसने ब्रिटिश शासन की जड़ें तक हिलाकर रख दी। इसका आरंभ तो कंपनी की सेना के भारतीय सिपाहियों से हुआ, लेकिन जल्द ही एक व्यापक क्षेत्र के लोग भी इसमें शामिल हो गये। लाखों-लाख किसान, दस्तकार तथा सिपाही एक साल से अधिक समय तक बहादुरी से लड़ते रहे और अपनी मिसाली वीरता और बलिदानों से उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नया शानदार अध्याय जोड़ा।
सामान्य कारण
1857 का विद्रोह सिपाहियों के असंतोष का परिणाम मात्र नहीं था। वास्तव में यह औपनिवेशिक शासन के चरित्र, उसकी नीतियों, उसके कारण कंपनी के शासन के प्रति जनता के संचित असंतोष का और विदेशी शासन के प्रति उनकी घृणा का परिणाम था। एक शताब्दी से अधिक समय तक अंग्रेज इस देश पर धीरे-धीरे अपना अधिकार बढ़ाते जा रहे थे, और इस काल में भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में विदेशी शासन के प्रति जन-असंतोष तथा घृणा में वृद्धि होती रही। यही वह असंतोष था जो आखिर एक जनविद्रोह के रूप में भड़क उठा।
जन-असंतोष का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कारण अंग्रेजों द्वारा देश का आर्थिक शोषण तथा देश के परंपरागत आर्थिक ढांचे का विनाश था। इन दोनों बातों ने बहुत बड़ी संख्या में किसानों, दस्तकारों तथा हस्त-शिल्पियों को, और साथ ही बड़ी संख्या में परंपरागत जमींदारों तथा मुखिया लोगों को निर्धनता के मुंह में झोंक दिया। अंग्रेजों की जमीन और राजस्व संबंधी नीतियां तथा कानून और प्रशासन की व्यवस्था इस असंतोष के अन्य सामान्य कारण रहे। खासकर जमीन की बहुत अधिक लगान के कारण जमीन का मालिकाना अधिकार बहुत सारे किसानों के हाथ से निकलकर व्यापारियों तथा सूदखोरों के हाथों में चला गया और वे कर्ज के भारी बोझ तले दबकर रह गये। ये नए जमींदार उन परंपराओं से अपरिचित थे जो पुराने जमींदारों को किसानों से जोड़कर रखती थीं, और इसलिए उन्होंने लगान को बेपनाह बढ़ाकर किसानों को तबाह कर दिया। जो किसान लगान अदा नहीं कर सके, उनसे जमीनें छीन ली गईं। किसानों की इस तबाही का नतीजा उन 12 बड़े तथा अनेक छोटे अकालों के रूप में सामने आया जो 1770 और 1857 के बीच में फूटे। इसी तरह अनेक जमींदार भी भूराजस्व की मांगबढ़ाने के कारण परेशान हुए और उन्हें खतरा पैदा हो गया कि उनकी जमींदारी की जमीनें तथा अधिकार जब्त हो जायेंगे तथा गांव में उनकी स्थिति घट जायेगी। जब अधिकारियों, व्यापारियों तथा सूदखोरों जैसे शुद्ध रूप से बाहरी लोगों ने उनकी जगह ले ली तब अपनी स्थिति में गिरावट पर उनका असंतोष और बढ़ गया। इसके अलावा निचले स्तरों पर प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार ने साधारण जनता को बुरी तरह प्रभावित किया। पुलिस, छोटे अधिकारी तथा निचली अदालतें भ्रष्टाचार के मामले में बहुत बदनाम रहे। विद्रोह के कारणों की चर्चा करते हुए 1859 में एक ब्रिटिश अधिकारी, विलियम एडवर्ड ने लिखा है कि पुलिस को फ्जनता कोढ़-समान समझती थीय् और पुलिस का दमन और लूट-खसोट हमारी सरकार के प्रति जनता के असंतोष का एक प्रमुख कारण था। छोटे अधिकारी रैयत तथा जमींदारों को सताकर अपना घर भरने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। न्याय की पेचीदा प्रणाली का लाभ उठाकर धनी लोग गरीबों का दमन करते रहे। लगान भू-राजस्व या कर्ज पर चढ़ने वाले सूद का बकाया वसूल करने के लिए किसानों को कोड़े से पीटना, कष्ट देना या जेल भेज देना आम बातें थीं। अपनी बढ़ती गरीबी के कारण लोग हताश हो गये, तथा अपनी स्थिति में सुधार की आशा में आम विद्रोह में शामिल हो गये।
समाज के मध्य तथा उच्च वर्ग, खासकर उत्तर भारत में, प्रशासन के अच्छी आय वाले ऊंचे पदों में शामिल नहीं किये जाते थे। इसका उन पर बुरा असर पड़ा। एक के बाद एक देशी रजवाड़ों के नष्ट होने का नतीजा यह हुआ कि जो भारतीय इन रजवाड़ों के प्रशासन और अदालतों में ऊंचे पदों पर थे। वे जीविका के साधन खो बैठे। अंग्रेजों का अधिकार जमने के कारण जो लोग सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिए जीविका कमाते थे, वे भी बर्बाद हो गये। भारतीय शासक कला और साहित्य के संरक्षक थे और विद्वानों, धर्मगुरूओं तथा फकीरों आदि की सहायता करते रहे। जब इन शासकों के अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी ने छीन लिये तो यह संरक्षण भी एकाएक समाप्त हो गया और जो लोग इस पर निर्भर थे, वे गरीबी के चंगुल में जा फंसे। धर्मोपदेशकों, पंडितों और मौलवियों ने, जो यह महसूस कर रहे थे कि उनका पूरा भविष्य खतरे में है, विदेशी शासन के प्रति घृणा पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रिटिश सरकार की अलोकप्रियता का एक प्रमुख कारण उसका विदेशी होना भी था। अंग्रेज भारत में लगातार परदेशी ही बने रहे। उनके और भारतीय लोगों के बीच कोई संबंध या संपर्क नहीं रहा। पहले के विदेशी शासकों की तरह अंग्रेजों ने उच्च वर्गों के भारतीयों से भी सामाजिक मेल-जोल नहीं बढ़ाया। उल्टे, वे प्रजातीय श्रेष्ठता के नशे में चूर रहे तथा भारतीयों के साथ अपमानजनक और धृष्टतापूर्ण बर्ताव करते रहे। सबसे बड़ी बात यह है कि अंग्रेज भारत में बसने, इसे अपना घर बनाने नहीं आये थे। उनका प्रमुख उद्देश्य धन कमाना तथा उस धन को लेकर ब्रिटेन लौटना होता था। भारत की जनता अपने नये शासकों के इस मूल विदेशी चरित्र को अच्छी तरह पहचानती थी। उन्होंने कभी भी अंग्रेजों को अपना शुभचिंतक नहीं माना और उनके एक-एक क्रियाकलाप को शंका की दृष्टि से देखते रहे। इस तरह उनके अंदर एक धुंधली-सी ब्रिटिश-विरोधी भावना पहले से मौजूद थी जो 1857 के विद्रोह से पहले भी अनेक अंग्रेज-विरोधी जनविद्रोहों में अभिव्यक्त होती रही।
जनता के बीच बढ़ते असंतोष के इस काल में कुछ ऐसी घटनाएं भी हुईं जिनसे अंग्रेज सेनाओं की अपराजेयता का भ्रम टूट गया और लोगों में यह विश्वास पनपने लगा कि ब्रिटिश शासन के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं। पहले अफगान युद्ध (1838-42), पंजाब के युद्धों (1845-49) तथा क्रीमियाई युद्ध (1854-56) में अंग्रेज सेनाओं की बुरी तरह पराजय हुई। 1855-56 में बिहार और बंगाल के संथाल कबीलों के लोग कुल्हाड़े तथा तीर-धनुष लेकर विद्रोह पर उतर आये और अपने क्षेत्र से कुछ समय के लिए ब्रिटिश शासन का सफाया करके उन्होंने एक जनविद्रोह की क्षमताओं को स्पष्ट कर दिया। हालांकि इन युद्धों में जीत आखिरकार अंग्रेजों की ही हुई और उन्होंने संथाल विद्रोह को भी कुचल डाला, फिर भी प्रमुख मुकाबलों में हुए नुकसानों से स्पष्ट हो गया कि एक एशियाई सेना भी डटकर लड़े तो अंग्रेज सेना को हरा सकती है। वास्तव में, अंग्रेजों की शक्ति को कम समझकर भारतीयों ने इस समय एक बड़ी राजनीतिक भूल की। इस भूल की एक बड़ी कीमत 1857 के विद्रोहियों को चुकानी पड़ी। परंतु साथ ही इस कारण के ऐतिहासिक महत्व को नहीं भूलना चाहिए। जनता केवल इसलिए विद्रोह नहीं करती कि वह अपने शासकों को उखाड़ फेंकना चाहती है_ इसके साथ्ा ही उसमें यह भरोसा भी होना चाहिए कि यह काम वह कामयाबी के साथ कर सकती है।
1856 में लार्ड डलहौजी ने अवध को ब्रिटिश शासन में मिला लिया। पूरे भारत में तथा खास तौर पर अवध में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। विशेष रूप से, इसके कारण अवध में और कंपनी की सेना में विद्रोह का वातावरण बन गया। डलहौजी के इस काम से कंपनी के सिपाही नाराज हो गये_ इन सिपाहियों में 75,000 अवध के थे। अखिल भारतीय भावना के अभाव में इन सिपाहियों ने बाकी भारत को जीतने में अंग्रेजों की सहायता की थी। लेकिन उनके अंदर क्षेत्रीय और स्थानीय निष्ठा थी और उन्हें यह बात बुरी लगी कि उनका अपना प्रांत विदेशी अधिकार में आ गया था। इसके अलावा, अवध के अधिग्रहण के कारण सिपाहियों की आय पर भी बुरा असर पड़ा। अब अवध में उनके परिवारों के पास जो जमीनें थीं उन पर उन्हें अधिक टैक्स देने पड़ रहे थे।
अवध के अधिग्रहण के लिए डलहौजी ने जो तर्क दिया था, वह यह था कि वह जनता को नवाब के कुप्रबंध से तथा तालुकदारों के दमन से मुक्ति दिलाना चाहता था। परंतु वास्तव में जनता को कोई राहत नहीं मिली। उल्टे, साधारण जनता को अब पहले से अधिक भू-राजस्व तथा खाने-पीने की वस्तुओं, मकानों, खोमचों तथा ठेलों, अफीम और न्याय पर अधिक टैक्स देने पड़ रहे थे। नवाब का प्रशासन तथा सेना भंग होने से हजारों कुलीन तथा भद्र लोग, अधिकारी तथा उनके साथ-साथ उनके अमले के लोग तथा सिपाही बेरोजगार हो गये। लगभग हर किसान के घर में कोई न कोई बेरोजगार हुआ। इसी तरह जो व्यापारी, दुकानदार तथा दस्तकार अवध के दरबार तथा कुलीनों की सेवा करते थे, उनकी भी जीविका चली गई। इसके अलावा, अधिकांश तालुकदारों तथा जमींदारों की जागीरें भी अंग्रेजों ने जब्त कर लीं। संपत्तिहीन बने इन तालुकदारों की संख्या लगभग 21,000 थी। अपनी खोई जागीरों और सामाजिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए बेचैन ये लोग ब्रिटिश शासन के सबसे खतरनाक दुश्मन बन गये।
डलहौजी द्वारा अवध तथा कई अन्य राज्यों के अधिग्रहण ने देशी रजवाड़ों के शासकों में खलबली मचा दी। अब उन्हें पता चला कि अंग्रेजों के प्रति उनके झुक-झुककर वफादारी जताने के बाद राज्य फैलाने की अंग्रेजों की भूख शांत नहीं हुई। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि अंग्रेजों की राजनीतिक प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा धक्का लगा। कारण कि भारतीय शासकों के प्रति अपने मौखिक या लिखित वादों तथा समझौतों को उन्होंने बार-बार तोड़ा था, उनका राज्य हड़पा था, या उनको अपना अधीन बनाकर उनके सरों पर अपने आदमी बिठा दिये थे। राज्य हड़पने या उन्हें अधीन बनाने की यह नीति नानासाहब, झांसी की रानी तथा बहादुरशाह जैसे अनेक शासकों को अंग्रेजों का कट्टर दुश्मन बनाने के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार थी। नानासाहब आखिरी पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। अंग्रेज बाजीराव द्वितीय को जो पेंशन दे रहे थे, वह नानासाहब को देने से इनकार कर दिया और उनको अपनी पैतृक राजधानी पूना से बहुत दूर, कानुपर में रहने पर बाध्य किया। इसी तरह झांसी को हड़पने की अंग्रेजों की जिद ने स्वाभिमानी रानी लक्ष्मीबाई का गुस्सा भड़काया। रानी की इच्छा यही थी कि उनकी स्वर्गीय पति के सिंहासन पर उनका दत्तक पुत्र बैठे। 1849 में डलहौजी ने मुगल वंश की प्रतिष्ठा पर यह घोषणा करके चोट की थी कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़कर दिल्ली  के बाहर कुतुबमीनार के पास एक बहुत छोटे निवास स्थान में रहना होगा। और 1856 में कैनिंग ने यह घोषणा की कि बहादुरशाह की मृत्यु के बाद मुगलों से सम्राट की पदवी छीन ली जायेगी और वे सिर्फ राजा ही कहे जायेंगे।
ब्रिटिश शासन के विरोध में जनता के खड़े होने का प्रमुख कारण यह भय भी था कि इस शासन के कारण धर्म खतरे में है। इस भय का प्रमुख कारण उन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां थीं जो फ्हर जगह स्कूलों, अस्पतालों, जेलों और बाजरों-में देखे जाते थे।य् ये मिशनरी लोगों को ईसाई बनाने के प्रयास करते तथा हिन्दू धर्म और इस्लाम पर सार्वजनिक रूप से तीखा और भोंडा प्रहार करते थे। वह जनता की पुरानी और प्रिय परंपराओं और मान्यताओं की खुलकर हंसी उड़ाते और उनकी निंदा करते थे। साथ ही, उन्हें पुलिस का संरक्षण प्राप्त था। उन्होंने जब कुछ लोगों का सचमुच धर्म-परिवर्तन कराया तो जनता को अपने धर्म के सामने उपस्थित खतरे का जीता-जागता प्रमाण मिल गया। जनता को आशंका थी कि विदेशी सरकार इन मिशनरियों की गतिविधियों को संरक्षण देती है। सरकार के कुछ कामों तथा बड़े अधिकारियों की कुछ गतिविधियों से इस आशंका को और बल मिला। 1850 में सरकार ने एक कानून बनाया जिसके अनुसार धर्म बदलकर ईसाई बनने वालों को अपनी पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया। इसके अलावा, सरकार अपने खर्च पर सेना में ईसाई उपदेशक या पादरी रखती थी। अनेक नागरिक और सैनिक अधिकारी मिशनरी प्रचार को प्रोत्साहन देना तथा सरकारी स्कूलों और जेलों तक में ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था करना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते थे।
अनेक लोगों की रूढि़वादी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं उन मानवतावादी उपायों के कारण भी भड़कीं जो सरकार ने भारतीय सुधारकों की सलाह पर किये। उनका मत था कि एक विदेशी ईसाई सरकार को उनके धर्म और उनकी परंपराओं में हस्तक्षेप करने का कोई हक नहीं था। सती-प्रथा का उन्मूलन, विधवा-पुनर्विवाह संबंधी कानून, तथा लड़कियों के लिए पश्चिमी शिक्षा की व्यवस्था इन लोगों को ऐसे ही अनाधिकार हस्तक्षेप की तरह लगे। पहले के भारतीय शासकों ने मंदिरों और मस्जिदों से जुड़ी जमीन को, उनके पुजारियों या सेवा-संस्थाओं को कर से मुक्त रखा था। अब इनसे कर वसूल करने की सरकारी नीति से भी लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट लगी। इसके अलावा, इन जमीनों पर निर्भर अनेक ब्राह्मण और मुस्लिम परिवार गुस्से से उबल उठे और यह प्रचार करने लगे कि अंग्रेज उनके धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
1857 का विद्रोह कंपनी के सिपाहियों के विद्रोह से आरंभ हुआ। इसलिए हमें यह देखना होगा कि ये सिपाही जिन्होंने अपनी निष्ठापूर्ण सेवा से कंपनी को भारत-विजय में समर्थ बनाया था और जिन्हें अपनी प्रतिष्ठा तथा आर्थिक सुरक्षा प्राप्त थी, क्यों एकाएक विद्रोही हो उठे। यहां पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि ये सिपाही कुछ भी हों, भारतीय समाज के अंग थे और इसलिए दूसरे भारतीयों पर जो कुछ गुजरती हो उसे ये भी कुछ हद तक महसूस करके दुखी होते थे। समाज के दूसरे वर्गों, खासकर किसानों की आशाएं, इच्छाएं और दुख-दर्द इन सिपोहियों के बीच भी प्रतिबिंबित होते थे। यह सिपाही दरअसल ‘वर्दीधारी किसान’ ही थे। अगर ब्रिटिश शासन के विनाशकारी आर्थिक कृत्यों से उनके निकट संबंधी पीडि़त होते थे तो उस पीड़ा को ये सिपाही भी महसूस करते थे। वे भी इस सामान्य विश्वास से ग्रस्त थे कि अंग्रेज उनके धर्मों में दखलअंदाजी कर रहे थे और सभी भारतीयों को ईसाई बनाने पर आमादा थे। उनके अपने अनुभव भी इस विश्वास को बल देते थे। वे जानते थे कि सेना में राज्य के खर्च पर ईसाई धर्मोपदेशक मौजूद थे। इसके अलावा कुछ ब्रिटिश अधिकारी भी धार्मिक जोश में आकर सिपाहियों के बीच ईसाई धार्मिक प्रचार किया करते थे। सिपाहियों की अपनी धार्मिक या जातिगत शिकायतें भी थीं। उन दिनों भारतीय लोग जाति के नियमों आदि का कड़ाई से पालन करते थे। सैनिक अधिकारियों की तरफ से सिपाहियों का जाति या पंथ के चिन्हों के उपयोग पर, दाढ़ी रखने या पगड़ी पहने पर प्रतिबंध था। 1856 में एक कानून बना जिसके अनुसार हर नए भर्ती होने वाले सिपाही को आवश्यकता हो तो समुद्र पार जाकर भी सेवा करने की जमानत देनी पड़ती थी। इससे भी सिपाहियों की भावनाओं को चोट लगी, क्योंकि उस समय की हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र-यात्र पाप थी और इसके दंड में किसी को जाति-बाहर भी कर दिया जाता था।
सिपाहियों को अनेक दूसरे शिकायतें भी थीं। अधिकारियों तथा सिपाहियों के बीच एक बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई थी, तथा ब्रिटिश अधिकारी सिपाहियों से अक्सर अपमान का व्यवहार करते थे। एक तत्कालीन ब्रिटिश प्रेक्षक ने लिखा है कि फ्अधिकारी और सिपाही परस्पर मित्र नहीं, बल्कि एक दूसरे के लिए अजनबी ही रहे हैं। सिपाही को एक हीन प्राणी माना जाता है। उसे डांटा-फटकारा जाता है। उसके साथ बुरा बर्ताव होता है उसे ‘नीग्रो’ जैसा समझा जाता है। उसे ‘सुअर’ कहकर पुकारा जाता है। ---छोटे अधिकारी--- उसे एक हीन प्राणी मानकर व्यवहार करते हैं।य् अगर भारतीय सिपाही अपने अंग्रेज समकक्ष जितना श्रेष्ठ योद्धा हो तो भी उसे कम पैसा दिया जाता था और अंग्रेज सिपाही से भी बुरे ढंग से रखा या खिलाया-पिलाया जाता था। इसके अलावा, उसको उन्नति की आशाएं भी नहीं के बराबर थीं। कोई भी भारतीय 60-70 रूपये मासिक पाने वाले सूबेदार से ऊपर नहीं उठ सकता था। वास्तव में, सिपाही का जीवन ही कठिनाइयों से भरा था। स्वाभाविक था कि सिपाही इस बनावटी तथा उन पर लादी गई हीनता से खुश नहीं थे।
सिपाहियों में असंतोष का एक और भी तात्कालिक कारण, हाल में जारी वह आदेश था कि सिंध या पंजाब में तैनाती के समय उन्हें विदेश सेवा भत्ता (बट्टा) नहीं मिलेगा। इस आदेश के कारण सिपाहियों की बहुत अधिक संख्या के वेतन में बड़ी कटौती हुई। अवध अनेक सिपाहियों का घर था, उसके हड़पे जाने ने उनकी भावनाओं को आग की तरह भड़का दिया।
वास्तव में, सिपाहियों के असंतोष के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। बंगाल में बहुत पहले, 1764 में ही एक सिपाही विद्रोह घटित हो चुका था। अधिकारियों ने 30 सिपाहियों को तोपों के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया था और इस प्रकार विद्रोह को दबा दिया था। 1806 में वेल्लूर में सिपाहियों ने विद्रोह किया था, मगर भयानक हिंसा का सहारा लेकर इसे दबा दिया गया था और कई सौ सिपाही युद्ध में मारे गये थे। 1824 में बैरकपुर में सिपाहियों की 47वीं रैजीमेंट ने समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इनकार कर दिया था यह रेजीमेंट तोड़ दी गई थी, इसके निहत्थे सिपाहियों पर तोपखाने से गोले बरसाये गये थे, और सिपाहियों के नेताओं को फांसी दे दी गई थी। 1844 में वेतन और बट्टों के सवाल पर सात बटालियनों ने विद्रोह किया। इसी तरह अफगान युद्ध से कुछ ही पहले अफगानिस्तान में तैनात सिपाही विद्रोह करने ही वाले थे। सेना में व्याप्त असंतोष को व्याप्त करने के लिए एक मुसलमान और एक हिन्दू सूबेदार को गोली मार दी गई थी। सिपाहियों में असंतोष इस कदम व्यापक हो चुका थाकि 1858 में बंगाल के लेफ्रिटनेंट गवर्नर, फ्रेडरिक हैलीडे, को कहना पड़ा था कि बंगाल की फौज फ्कमोबेश बागी और हमेशा विद्रोह के लिए तैयार थी और यह है कि कभी न कभी अगर संयोगवश उत्तेजना तथा अवसर मिले तो वह विद्रोह कर बैठती।य्
इस तरह बड़ी तादात में भारतीय जनता तथा कंपनी के सिपाहियों के बीच विदेशी शासन के प्रति व्यापक और तीखी नापसंदगी बल्कि घृणा भी मौजूद थी। आगे चलकर सैयद अहमद खान ने अपनी पुस्तक ‘कॉलेज ऑफ दि इंडियन म्यूटिनी’ में इस भावना को व्यक्त किया।
1857 का विद्रोह ब्रिटिश नीतियों और साम्राज्यवादी घोषणा के प्रति जन-असंतोष का उभार था। परंतु यह आकस्मिक घटना नहीं थी। लगभग एक शताब्दी तक पूरे भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध तीव्र जन-प्रतिरोध होते रहे थे। बंगाल और बिहार में जैसे ही ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, सशस्त्र विद्रोह शुरू हो गये, और जैसे-जैसे यह नए क्षेत्रें को जीतता गया, वहां भी ये विद्रोह फूटते गये। देश के किसी न किसी भाग में सशस्त्र विरोध के बिना शायद ही कोई साल या एक बड़े विद्रोह के बिना शायद ही कोई दशक गुजरा हो। 1763 और 1856 के बीच 40 से अधिक बड़े विद्रोह और सैकड़ों छोटे विद्रोह हुए। इन विद्रोहों का नेतृत्व अकसर राजे, नवाब, जमींदार, भूस्वामी और पोलीगार करते थे, मगर लड़ने वाली फौजों में किसान, दस्तकार और पदच्युत भारतीय शासकों या जागीर और शस्त्रगार से वंचित कर दिये गये जमींदारों और पोलीगारों के भूतपूर्व सैनिक होते थे। ये लगभग निरंतर चलने वाले विद्रोह कुल मिला कर बहुत भयानक होते थे, मगर अपने प्रसार में ये पूरी तरह स्थानीय तथा एक-दूसरे से असंबद्ध होते थे। उनके प्रभाव भी स्थानीय ही होते थे।
तात्कालीन कारण
1857 ई- तक विद्रोह के लिए बारूद जमा हो चुका था, केवल इसमें एक जलती तीली पड़ने की देर थी। चर्बी मिले कारतूसों की घटना ने यह चिनगारी भी बारूद को दिखा दी और सिपाहियों के विद्रोह पर उतर आने पर साधारण जनता भी उठ खड़ी हुई। नए एनफील्ड राइफल का उपयोग सबसे पहले सेना में ही आरंभ किया गया। इसके कारतूसों पर चर्बी सने कागज का खोल चढ़ा होता था और कारतूस को राइफल में भरने से पहले उसके सिरे को दांतों से काटना पड़ता था। कुछ उदाहरणों में इस खोल में गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया गया था। इससे हिंदू और मुसलमान सिपाही, दोनों भड़क उठे। उन्हें लगा कि चर्बीदार कारतूसों का प्रयोग उनके धर्म को भ्रष्ट कर देगा। इनमें से अनेकों का विश्वास था कि सरकार जान-बूझकर उनके धर्म को नष्ट करने के तथा उन्हें ईसाई बनाने के प्रयत्न कर रही है। बगावत का वक्त आन पहुंचा था।
विद्रोह का आरंभ
1857 का विद्रोह स्वतः स्फूर्त और अनियोजित था या यह किसी सावधानीपूर्वक तथा गुप्त रूप से किये गये संगठन-कार्य का परिणाम था? निश्चित रूप से इस सवाल का जवाब दे सकना कठिन है। 1857 के विद्रोह के इतिहास का एक अजीब पहलू यह है कि इसका अध्ययन लगभग पूरी तरह ब्रिटिश दस्तावेजों पर आधारित है। विद्रोही अपने पीछे कोई दस्तावेज नहीं छोड़ गये। चूंकि वे गैर कानूनी ढंग से काम कर रहे थे, इसलिए शायद वे कोई लिखित दस्तावेज नहीं रखते थे। फिर यह भी कि वे हरा दिये गये तथा कुचल दिये गये और घटनाकों के बारे में उनके विवरण उनके साथ ही नष्ट हो गये। अंतिम बात यह कि बाद में भी वर्षों तक अंग्रेज विद्रोह के बारे में किसी भी सहानुभूतिपूर्ण उल्लेख को दबाते रहे तथा जो भी विद्रोहियों का पक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करता उसके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करते रहे।
इतिहासकारों तथा लेखकों के एक वर्ग का दावा है कि यह विद्रोह एक व्यापक तथा सुसंगठित षड्यंत्र का परिणाम था। इसके सबूत में वे चपातियों तथा लाल कमल के फूलों के गांव-गांव पहुंचने की घटनाओं तथा घुमक्कड़, सन्यासियों, फकीरों तथा मदारियों के प्रचार का उल्लेख करते हैं। दूसरे लेखक इतने ही दावे के साथ इस बात से इनकार करते हैं कि विद्रोह के पीछे कोई सुनियोजित तैयारी थी। उनका कहना है कि विद्रोह से पहले या बाद में भी रद्दी कागज का एक टुकड़ा तक ऐसा नहीं मिला जिससे सुसंगठित षड्यंत्र का संकेत मिलता हो। किसी गवाह तक ने इस तरह का कोई दावा कभी नहीं किया।
विद्रोह का आरंभ 10 मई, 1857 को दिल्ली से 36 मील दूर मेरठ में हुआ। फिर यह तेजी से बढ़ता हुआ पूरे उत्तर भारत में फैल गया। जल्द ही उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बिहार से लेकिर पश्चिम में राजस्थान तक एक विस्तृत भू-भाग इसकी चपेट में आ गया।
मेरठ में विद्रोह के भड़कने से पहले भी बैरकपुर में मंगल पांडे शहीद हो चुके थे। वे एक नौजवान सिपाही थे जिनको अकेले विद्रोह करने तथा अपने अधिकारियों पर हमला करने के कारण 29 मार्च, 1857 को फांसी दे दी गई थी। ये तथा ऐसी ही अनेक घटनाएं इस बात का संकेत थीं कि सिपाहियों में असंतोष तथा विद्रोही भाव पक रहे थे। फिर इसके बाद मेरठ में विस्फोट हुआ। 24 अप्रैल को तीसरी देशी घुड़सवार सेना के 90 लोगों ने चर्बीदार कारतूस लेने से इंकार कर दिया। उनमें से 85 को 9 मई को बर्खास्त करके दस-दस साल की बामशक्कत सजाएं दी गई और जंजीरों में जकड़ दिया गया। इससे मेरठ में तैनात भारतीय सिपाहियों में एक आम विद्रोह भड़क उठा। फिर अगले ही दिन, 10 मई को उन्होंने अपने कैदी साथियों को छुड़ा लिया, अपने अधिकारियों को मार डाला तथा विद्रोह का झंडा बुलंद कर लिया। फिर जैसे कि कोई चुंबक उनको खींच रहा हो, वे सूर्यास्त के बाद दिल्ली की ओर चल पड़े। मेरठ के सिपाही जब अगले सुबह दिल्ली में दिखाई पड़े तो वहां की पैदल सेना आकर उनके साथ मिल गई। उन्होंने यूरोपीय अधिकारियों को मार डाला और शहर को घेर लिया। बागी सिपाहियों ने बूढ़े और शक्तिहीन बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। दिल्ली जल्द ही इस महान विद्रोह का केन्द्र बन गई तथा बहादुरशाह इसके महान प्रतीक बन गये। इस अंतिम मुगल बादशाह को जिस तरह स्वतःस्फूर्त ढंग से देश का नेता बना दिया गया, वह इस तथ्य का प्रमाण था कि मुगल खानदान के लंबे शासन ने इस खानदान को भारत की राजनीतिक एकता का प्रतीक बना दिया था। केवल इस एक कार्य के द्वारा सिपाहियों ने एक फौजी विद्रोह को एक क्रांतिकारी युद्ध में बदल दिया। यही कारण था कि पूरे देश के विद्रोही सिपाहियों के कदम अपने आप दिल्ली की ओर मुड़ गये, और विद्रोह में भाग लेने वाले सभी भारतीय राजाओं ने मुगल सम्राट के प्रति अपनी वफादारी घोषित करने में कतई देर नहीं लगाई। फिर सिपाहियों के कहने पर या संभवतः उनके दबाव में बहादुरशाह ने भारत के सभी राजाओं और सरदारों को पत्र लिखा और उसने आग्रह किया कि ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने और उसको हटाने के लिए वे भारतीय राज्यों का एक महासंघ स्थापित करें।
जल्द ही बंगाल की पूरी सेना विद्रोह में शामिल हो गई और यह तेजी से फैल गया। अवध, रूहेलखंड, दोआब, बुंदेलखंड, मध्य भारत, बिहार का एक बड़ा भाग, और पूर्वी पंजाब इन सभी जगहों पर ब्रिटिश साम्राज्य चरमरा उठा। अनेक रजवाड़ों में शासक तो अंग्रेेज मालिकों के प्रति वफादार बने रहे, मगर उनकी फौजों में विद्रोह भड़क उठा या भड़कने के करीब आ गया। इंदौर के अनेक फौजी विद्रोह करके सिपाहियों से आ मिले। इसी तरह ग्वालियर के 20,000 से अधिक फौजी तात्या टोपे और झांसी की रानी के साथ चले गये। राजस्थान तथा महाराष्ट्र के अनेक छोटे सरदार अपनी जनता का भरोसा पाकर विद्रोही बन गये_ उनकी यह जनता अंग्रेजों की कट्टर दुश्मन थी। हैदराबाद तथा बंगाल में भी छिटपुट विद्रोह हुए।
यह विद्रोह जितना अधिक व्यापक था उतनी ही इसमें गहराई भी थी। पूरे उत्तरी और मध्य भारत में सिपाहियों के विद्रोह में नागरिक जनता को भी आम विद्रोह के लिए प्रेरित किया। सिपाहियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के समाप्त किये जाने के बाद साधारण जनता भी हथियार लेकर उठ खड़ी हुई और अकसर बल्लमों, कुल्हाड़ों, तीर-धनुष, लाठियों और हंसियों, तथा देशी बंदूकों के साथ लड़ती रही। लेकिन अनेक जगहों पर सिपाहियों से भी पहले या जहां कोई फौज तैनात नहीं थी, वहां भी जनता ने विद्रोह का आरंभ किया। किसानों, दस्तकारों, दुकानदारों, दिहाड़ी वाले मजदूरों और जमींदारों की व्यापक भागीदारी ऐसी चीज थी जिसने विद्रोह को उसकी वास्तविक शक्ति दी तथा इसे जन-विद्रोह का चरित्र भी दिया, खासकर उन क्षेत्रें में जो आज उत्तर प्रदेश तथा बिहार में शामिल हैं। इस क्षेत्र में किसानों तथा जमींदारों ने सूदखोरों तथा अपनी जमीन से बेदखल करने वाले नए जमींदारों पर हमले करके अपनी तकलीफों को खुलकर जाहिर किया।
विद्रोह का लाभ उठाकर उन्होंने सूदखोरों की खाता-बहियों तथा कर्जों के दस्तावेजों को नष्ट कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा स्थापित अदालतों, तहसील कार्यालयों, मालगुजारी के दस्तावेजों तथा थानों पर हमले किये। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि अनेक लड़ाइयों में सामान्य जनता की संख्या सिपाहियों से कहीं बहुत ज्यादा थी। एक अनुमान के अनुसार अवध में अंग्रेजों से लड़ते हुए मरने वाले लगभग 1,50,000 लोगों में 1,00,000 से अधिक सामान्य नागरिक थे।
यह भी ध्यान रहे कि जहां जनता विद्रोह में शामिल नहीं हुई, वहां भी लोगों ने विद्रोहियों के साथ बहुत सहानुभूति का व्यवहार किया। वे विद्रोहियों की हर जीत पर खुश होते रहे तथा अंग्रेजों के वफादार रहने वाले सैनिकों का सामाजिक बहिष्कार करते रहे। उन्होंने ब्रिटिश सेना के साथ सक्रिय शत्रुता का व्यवहार किया, उसे सहायता या सूचना देने से इनकार कर दिया, और उसे गलत सूचना देकर गुमराह तक किया।
1857 के विद्रोह का जन चरित्र उस समय भी स्पष्ट हुआ जब अंग्रेजों ने इसे कुचलने की कोशिश की। उन्होंने विद्रोही सिपाहियों को ही नहीं दबाया, बल्कि दिल्ली, अवध, पश्चिमोत्तर प्रांत, आगरा, मध्य भारत और पश्चिम बिहार की जनता के खिलाफ भी एक भरपूर और निमर्म लड़ाई उसको लड़नी पड़ी। पूरे के पूरे गांव जला दिये गये, तथा ग्रामीण और नगरीय जनता का कत्ले-आम किया गया। अंग्रेजों को एक-एक करके गांवों से लड़ना पड़ा तथा उत्तरी भारत के अनेक भागों को फिर से जीतना पड़ा। लोगाें को बिना किसी मुकदमें के फांसी देना तथा फांसी के बाद सबके सामने पेड़ों से लटकाना पड़ा। इन सबसे पता चलता है कि इन क्षेत्रें में विद्रोह कितना फैल चुका था।
1857 के विद्रोह की शक्ति बहुत कुछ हिन्दु-मुस्लिम एकता में निहित थी। सैनिक तथा जनता हो या नेता, हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच पूरा-पूरा सहयोग देखा गया। सभी विद्रोहियों ने एक मुसलमान बहादुरशाह को अपना सम्राट स्वीकार कर लिया था। मेरठ के हिन्दू सिपाहियों के मन में पहला विचार दिल्ली की ओर कूच करने का ही आया। हिन्दू और मुसलमान विद्रोही और सिपाही एक दूसरे की भावनाओं का पूरा-पूरा सम्मान करते थे। उदाहरण के लिए, विद्रोह जहां भी सफल हुआ वहीं हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करते हुए फौरन ही गौ-हत्या बंद करने के आदेश जारी कर दिये गये। इसके अलावा, नेतृत्व में हर सतह पर हिन्दुओं तथा मुसलमानों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त था। विद्रोह में हिन्दू-मुस्लिम एकता की भूमिका का परोक्ष रूप से एक वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी, एचिंसन ने स्वीकार किया है। बहुत कड़वे मन से वह लिखता हैः फ्इस मामले में हम मुसलमानों को हिन्दुओं से नहीं लड़ा सकते।य् वास्तव में, 1857 की घटनाओं से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मध्य काल में तथा 1858 से पहले भारत की जनता और राजनीति अपने मूल रूप में सांप्रदायिक नहीं थी।
1857 के विद्रोह के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेली, झांसी तथा आरा (बिहार) थे। दिल्ली में प्रतीक रूप में कहने को विद्रोह के नेता सम्राट बहादुरशाह थे, परन्तु वास्तविक नियंत्रण एक सैनिक समिति के हाथों में था जिसके प्रमुख जनरल बख्त खान थे। इन्होंने ही बरेली के सैनिकों का नेतृत्व किया था तथा उनको दिल्ली ले आये थे। ब्रिटिश सेना में वे तोपखाने के एक मामूली सूबेदार थे। बख्त खान विद्रोह के प्रमुख केन्द्र में साधारण तथा निम्नवर्गीय जनता के प्रतिनिधि थे। विद्रोह के नेतृत्व की जंजीर में सबसे कमजोर कड़ी शायद सम्राट बहादुरशाही ही थे। उनका कमजोर व्यक्तित्व, उनकी अधिक आयु और नेतृत्व के गुणों का अभाव-इनके कारण विद्रोह के प्रमुख केन्द्र में ही राजनीतिक दुर्बलता आई तथा इससे विद्रोह को अकथनीय हानि पहुंची।
कानपुर में विद्रोह के नेता नानासाहब थे जो अंतिम पेशवा, बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। सिपाहियों की सहायता से अंग्रेजों को कानपुर से खदेड़कर नानासाहब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया। साथ ही साथ बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित करके उन्होंने अपने को उनका प्रतिनिधि घोषित किया। नानासाहब की ओर लड़ने का भार मुख्यतः उनके विश्वसनीय सेवक तात्यां टोपे के सिपाहियों पर था। अपनी देशभक्ति, शौर्यमय युद्ध तथा कुशल छापामार कार्यवाहियों के कारण तात्या टोपे अमर हो चुके हैं। नानासाहब के एक और विश्वसनीय सेवक अजीमुल्लाह थे। वे राजनीतिक प्रचार-कार्य के माहिर थे। दुर्भाग्य से, नानासाहब ने कानपुर में अंग्रेजों को सुरक्षित निकाल देने का वादा करने के बावजूद उन्हें धोखे से मारकर अपनी बहादुरी पर कलंक का टीका लगा दिया।
लखनऊ में विद्रोह का नेतृत्व अवध की महारानी बेगम हजरतमहल कर रही थीं। उन्होनें अपने नाबालिग बेटे बिरजीश कदर को अवध का नवाब घोषित कर दिया। लखनऊ के सिपाहियों तथा अवध के किसानों और जमींदारों की सहायता से बेगम ने अंग्रेजों के खिलाफ चौतरफा युद्ध छेड़ दिया। जब अंग्रेज शहर छोड़ने के लिए मजबूर हो गये तो उन्होंने रेजीडेंसी की इमारत में शरण ले ली। आखिर में रेजीडेंसी का घेरा कामयाब नहीं हुआ क्योंकि छोटी सी ब्रिटिश सेना उदाहरणीय धैर्य तथा बहादुरी से लड़ती रही।
1857 के विद्रोह के महान नेताओं में से भारतीय इतिाहस की महानतम वीरांगनाओं में से एक थीं-झांसी की युवा महारानी लक्ष्मीबाई। जब अंग्रेजों ने झांसी की गद्दी के लिए एक उत्तराधिकारी गोद लेने के रानी के अधिकार को नहीं माना, उनके राज्य का अपहरण कर लिया तथा उन्हें धमकी दी कि झांसी के सैनिकों को विद्रोह के लिए भड़काने के लिए उन्हें उत्तरदायी माना जायेगा, तब रानी विद्रोहियों से आ मिलीं। रानी कुछ समय तक अनिश्चय की स्थिति में रही। लेकिन जब उन्होंने विद्रोहियों का साथ देने का फैसला कर लिया तब बहुत बहादुरी के साथ उन्होनें अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। तब से लेकर आज तक उनके शौर्य, साहस तथा सैनिक कुशलता की गाथाएं देशवासियों को प्रेरणा देती आ रही हैं। अग्रेंजों के साथ उनकी एक भयानक लड़ाई हुई जिसमें फ्स्त्रियां तक तोपें चलाते और गोला-बारूद बांटती देखी गई।य् उसके बाद रानी को झांसी से बाहर भागना पड़ा तब उन्होंने अपने अनुयायियों को शपथ दिलाई कि फ्हम अपने हाथों अपनी आजाद शाही (स्वतंत्र राज्य) की कब्र नहीं खोदेंगे। (तात्या टोपे तथा अपने अफगान रक्षकों की सहायता से उन्होंने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों के वफादार महाराज सिंधिया ने रानी से लड़ने की कोशिश की, मगर उनके अधिकांश सैनिक रानी से जा मिले। सिंधिया ने आगरा जाकर अंग्रेजों की शरण ली। यह बहादुर रानी सिपाही के वेश में, एक घोड़े पर सवार होकर लड़ते हुए 17 जून, 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई। उनके साथ एक मुस्लिम लड़की भी शहीद हो हुई जो उनकी बचपन की साथी थी।
बिहार में विद्रोह के प्रमुख नेता कुंवरसिंह थे जो आरा के पास जगदीशपुर के एक तबाह और असंतुष्ट जमींदार थे। लगभग 80 वर्ष के होते हुए भी वे विद्रोह के संभवतः सबसे प्रमुख सैनिक नेता तथा रणनीतिज्ञ थे। फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह विद्रोह के एक और प्रमुख नेता थे। वे मद्रास के रहने वाले थे और वहीं से उन्होंने सशस्त्र विद्रोह का प्रचार कार्य शुरू कर दिया था। जनवरी 1857 में वे उत्तर में फैजाबाद आ गये। यहां उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों की उस कंपनी से एक भीषण लड़ाई लड़ी जो उनको राजद्रोह के प्रचार से रोकने के लिए भेजी गई थी। जब मई में आम बगावत भड़क उठी तो वे अवध में इसके एक मान्य नेता के रूप में उभरे।
विद्रोह के सबसे महान वीर सिपाही ही थे। इनमें से अनेकों ने युद्धक्षेत्र में अद्भुत साहस का परिचय दिया। हजारों सैनिकों ने निःस्वार्थ भाव से अपने प्राणों का होम कर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि इन सैनिकों का दृढ़ निश्चय तथा बलिदान ही था जिसने अंग्रेजों को भारत से लगभग खदेड़ ही दिया था। इस देशभक्तिपूर्ण संघर्ष में उन्होंने अपने मन में गहरे बैठे धार्मिक पूर्वाग्रहों की भी कुर्बानी दे दी। उन्होंने विद्रोह तो किया था चर्बीदार कारतूसों के सवाल पर, मगर घृणित विदेशियों को बाहर भगाने की धुन में लड़ाइयों में जमकर इन्हीं चर्बीदार कारतूसों का प्रयोग करते रहे।
विद्रोह की कमजोरियां और उसका दमन
1857 का विद्रोह बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था और जनता का व्यापक समर्थन इसे प्राप्त था, फिर भी यह पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी अंगों तथा वर्गों को अपनी लपेट में नहीं ले सका। यह दक्षिण भारत तथा पूर्वी तथा पश्चिमी भारत के अधिकांश भागों में नहीं फैल सका क्योंकि इन क्षेत्रें में पहले अनेकों विद्रोह हो चुके थे। भारतीय रजवाड़ों के अधिकांश शासक तथा बड़े जमींदार पक्के स्वार्थी तथा अंग्रेजों की शक्ति से भयभीत थे और वे विद्रोह में शामिल नहीं हुए। इसके विपरीत ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के राजा तथा दूसरे राजपूत शासक, भोपाल के नवाब, पटियाला, नाभा और जींद के सिख शासक तथा पंजाब के दूसरे सिख सरदार, कश्मीर के महाराजा, नेपाल के राणा तथा दूसरे अनेक सरदारों और अनेकों बड़े जीमदारों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की। वास्तव में भारतीय शासकों में एक प्रतिशत से अधिक विद्रोह में शामिल नहीं हुए। गवर्नर-जनरल कैनिंग ने बाद में टिप्पणी की, इन शासकों तथा सरदारों ने फ्तूफान के आगे बांध की तरह काम किया_ वर्ना यह तूफान एक ही लहर में हमें बहा ले जाता है।य् मद्रास, बंबई, बंगाल तथा पश्चिमी पंजाब में जनता विद्रोहियों में हमदर्दी रखती थी, फिर भी ये प्रांत अप्रभावित रहे। इसके अलावा, असंतुष्ट तथा बेदखल जमींदारों को छोड़कर उच्च तथा मध्य वर्गों के अधिकांश लोग विद्रोहियों के आलोचक थे। सम्पन्न वर्गों के अधिकांश लोग विद्रोहियों के प्रति ठंडे बने रहे या उनका सक्रिय विरोध किया। यहां तक कि विद्रोह में शामिल अवध के बहुत से तालुकदारों (बड़े जमींदारों) ने, अंग्रेजों से यह आश्वासन पाकर कि उनकी जागीरें उन्हें वापस दे दी जायेंगी, विद्रोह से किनारा कर लिया। इससे एक लंबा खिंचता हुआ छापामार संघर्ष चला सकना अवध के किसानों और सिपाहियों के लिए बहुत कठिन हो गया।
ग्रामीण जनता के हमलों का खास निशाना सूदखोर थे। इसलिए वे स्वाभाविक तौर पर विद्रोह के शत्रु थे। लेकिन धीरे-धीरे व्यापारी भी इसके शत्रु बन गये। युद्ध का खर्च जुटाने के लिए विद्रोहियों को उन पर भारी कर लगाने पड़े थे या सेना को भोजन देने के लिए उनके अनाज-गोदामों पर कब्जा करना पड़ा था। व्यापारी प्रायः अपनी दौलत और माल छिपा देते थे तथा विद्रोहियों को मुफ्रत में सामान देने से मना कर देते थे। बंगाल के जमींदार भी अंग्रेजों के वफादार बने रहे। आखिरकार वे अंग्रेजों की ही पैदावार थे। इसके अलावा, बिहार में जमींदारों के प्रति किसानों की शत्रुता ने बांगल के जमींदारों को भी डरा दिया था। इसी तरह बंबई, कलकत्ता तथा मद्रास के बड़े व्यापारियों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया। कारण कि उनका अधिकांश मुनाफा अंग्रेज व्यापारियों के साथ होने वाले विदेशी व्यापार तथा आर्थिक संबंधों से होता था।
आधुनिक शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने भी विद्रोह का साथ नहीं दिया। विद्रोही जिस प्रकार अंधविश्वासों का उपयोग करते या प्रगतिशील सामाजिक उपायों का विरोध करते थे, उससे ये भारतीय बिदककर दूर हो गये। जैसा कि हमने देखा है, शिक्षित भारतीय देश का पिछड़ापन समाप्त करना चाहते थे। उनके मन में यह गलत विश्वास भरा था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण के ये काम पूरा करने में उनकी सहायता करेंगे, जबकि जमींदारों, पुराने शासकों और सरदारों, तथा दूसरे सामंती तत्वों के नेतृत्व में लड़ने वाले विद्रोही देश को पीछे ले जायेंगे। कुछ समय बाद ही शिक्षित भारतीयों ने अपने अनुभवों से जाना कि विदेशी शासन देश का आधुनिकीकरण करने में न सिर्फ असमर्थ साबित हुआ, बल्कि उसने उसे गरीब और पिछड़ा बनाए रखा। इस मामले में 1857 के क्रांतिकारी अधिक दूरदर्शी सिद्ध हुए। उन्हें विदेशी शासन की बुराईयों तथा उससे मुक्ति पाने की आवश्यकता की कहीं बेहतर और सहज समझ हासिल थी। दूसरी ओर, शिक्षित लोगों की तरह उन्होंने यह बात नहीं समझी कि देश विदेशियों के चंगुल में ठीक इसीलिए फंसा था कि वह सड़े-गले रिवाजों, परंपराओं तथा संस्थाओं से चिपका हुआ था। वे यह समझ सकने में असफल रहे कि देश की मुक्ति पुराने सामंती राजतंत्र की ओर पलटने में नहीं बल्कि आगे बढ़कर एक आधुनिक समाज, आधुनिक अर्थव्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा तथा आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं को गले लगाने से ही संभव थी, कुछ भी हो, यह नहीं कहा जा सकता कि शिक्षित भारतीय राष्ट्रद्रोही या विदेशी शासन के भक्त थे। जैसा कि 1858 के बाद की घटनाओं ने दिखाया, जल्द ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक शक्तिशाली और आधुनिक आंदोलन का नेतृत्व उन्होंने संभाल लिया।
भारतीयों में एकता के अभाव के चाहे जो कारण रहे हों, यह विद्रोह के लिए घातक सिद्ध हुआ। लेकिन विद्रोहियों के लक्ष्य को धक्का पहुंचाने वाली यह अकेली कमजोरी नहीं थी। उनके पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्रें तथा अन्य युद्ध सामग्री की भी कमी थी। अधिकांश तो भालों और तलवारों जैसे पुराने हथियारों से ही लड़ रहे थे। उनका संगठन भी ठीक नहीं था। सिपाही बहादुर तथा स्वार्थरहित तो थे मगर उनमें अनुशासन की कमी भी थी। कभी-कभी तो वे अनुशासित सेना की बजाए दंगाई भीड़ की तरह व्यवहार करते। विद्रोह इकाइयों के पास सैनिक कार्यवाही की साझी योजनाओं, अधिकार सम्पन्न प्रमुखों या केन्द्रीकृत नेतृत्व का भी अभाव था। देश के विभिन्न भागों में हो रहे विद्रोहों के बीच कोई तालमेल नहीं था। विदेशी शासन के प्रति एक साझी घृणा को छोड़कर और कोई संबंध-सूत्र नेताओं के बीच नहीं था। किसी क्षेत्र विशेष से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद उन्हें पता भी नहीं होता था कि उसकी जगह किस प्रकार की राजनीति सत्ता या संस्थाएं स्थापित की जाएं। वे एक-दूसरे के प्रति शंकित तथा ईर्ष्याग्रस्त थे और अकसर आत्मघाती झगड़ों में उलझ पड़ते थे। इसी तरह किसान मालगुजारी के दस्तावेजों तथा सूदखोरों के बही-खातों को नष्ट करने तथा नए जमींदारों को खदेड़ चुकने के बाद समझ नहीं पाते थे कि आगे क्या करें, और इसलिए निष्क्रिय हो जाते थे।
वास्तव में विद्रोह की कमजोरियां व्यक्तियों की कमियों से भी कहीं अधिक गहराई में निहित थीं। इस आंदेालन को भारत को गुलाम बनाने वाले उपनिवेशवाद की या आधुनिक विश्व की कोई खास समझ नहीं थी। इसके पास एक भविष्योन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य या भावी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि का अभाव था। विद्रोह सत्ता पर अधिकार के बाद लागू किये जाने वाले किसी सामाजिक विकल्प से रहित था। इस तरह इस आंदोलन में तरह-तरह के तत्व शामिल थे जो केवल ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी घृणा द्वारा ही जुड़े हुए थे। इनमें से हरेक की अपनी-अपनी शिकायतें थीं और स्वतंत्र भारत की राजनीति की अपनी-अपनी धारणाएं थीं। एक आधुनिक, प्रगतिशील कार्यक्रम के अभाव में प्रतिक्रियावादी राजा और जमींदार क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व हथियाने में सफल हो गये। लेकिन विद्रोह के सामंती चरित्र पर हमें बहुत जोर नहीं देना चाहिए। सिपाही तथा साधारण जनता धीरे-धीरे एक भिन्न प्रकार का नेतृत्व विकसित कर रहे थे। विद्रोह को सफल बनाने का प्रयास भी उन्हें नए प्रकार का संगठन तैयार करने का प्रयास भी कर रहा था। उदाहरण के लिए, दिल्ली में प्रशासकों की एक समिति बनाई गई थी जिसके दस सदस्यों में छः सिपाही तथा चार नागरिक थे। इनमें सभी निर्णय बहुमत द्वारा लिये जाते थे। यह समिति सभी सैनिक तथा प्रशासकीय निर्णय सम्राट के नाम पर करती थी। नई सांगठनिक संरचनाएं तैयार करने की इस तरह की कोशिशें विद्रोह के दूसरे केन्द्रों में भी की गई। बेंजामिन डिजराइली ने उस समय ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी थी कि अगर समय रहते विद्रोह नहीं कुचला गया तो फ्रंगमंच पर भारतीय राजाओं के अलावा कुछ और पात्र भी दिखाई देंगे तथा उनसे भी उन्हें (अंग्रेजों को) जूझना पड़ेगा।य्
भारतीयों में एकता का यह अभाव भारतीय इतिहास के इस चरण में संभवतः अपरिहार्य था। भारत अभी आधुनिक राष्ट्रवाद से अपरिचित था। देशप्रेम का मतलब अपनी छोटी-सी बस्ती, क्षेत्र या अधिक से अधिक अपनी राजसत्ता के प्रति प्रेम था। सांझे अखिल भारतीय हितों का तथा इस चेतना का कि ये हित सभी भारतीयों को पदस्पर जोड़ते हैं, अभी उदय नहीं हुआ था। वास्तव में 1857 के विद्रोह ने भारतीय जनता को एक साथ जोड़ने में तथा उनमें एक देश का वासी होने की चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अंत में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद जिसके पास एक विकासमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था थी, जो दुनिया भर में शक्ति के शिखर पर बैठा था, तथा जिसे अधिकांश भारतीय शासकों तथा सरदारों का सहयोग प्राप्त था, सैनिक दृष्टि से विद्रोहियों से अधिाक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। ब्रिटिश सरकार ने देश में भयानक संख्या में सेना, धन तथा अस्त्र-शस्त्रें को झोंक दिया, हालांकि खुद अपने इस दमन के लिए भारतीयों को बाद में पूरी-पूरी कीमत चुकानी पड़ी। विद्रोह कुचल दिया गया। मात्र साहस एक ऐसे शक्तिशाली तथा दृढ़ निश्चय शत्रु के आगे नहीं ठहर सका जिसका हर कदम नियोजित था। विद्रोहियों को बहुत पहले ही एक भारी धक्का तब लगा जब अंग्रेजों ने एक लंबे तथा भयानक युद्ध के बाद 20 सितंबर, 1857 को दिल्ली पर दोबारा कब्जा कर लिया। बूढ़े सम्राट बहादुरशाह को बंदी बना लिया गया। उनके राजकुमार पकड़कर वहीं मार डाले गये। सम्राट पर मुकदमा चला तथा उन्हें निर्वासित कर रंगून भेज दिया गया। वहीं अपनी किस्मत पर आंसू बहाते हुए कि उन्हें उनकी जन्मभूमि से बहुत दूर कर दिया गया था, वे 1862 में स्वर्गवासी हुए। इस तरह महान मुगल वंश आखिरकार पूरी तरह नष्ट हो गया।
दिल्ली के पतन के साथ विद्रोह का केन्द्र बिन्दु नष्ट हो गया। विद्रोह के दूसरे नेता बहादुरी से यह असमान युद्ध लड़ते रहे, मगर अंग्रेजों ने उनके खिलाफ एक शक्तिशाली हमला केन्द्रित कर दिया था। जॉन लॉरेंस, आउट्रम, हेवलॉक, नील, कैंपबेल और ह्यूरोज कुछ ऐसे ब्रिटिश कमानदार थे जिन्होंने इस युद्ध में सैनिक ख्याति प्राप्त की। विद्रोह के सभी महान नेता एक के बाद एक खेत रहे। नानासाहब की कानपुर में हार हुई। अंत में हार न मानकर तथा आत्मसमर्पण से इनकार करके वे 1859 के आरंभ में नेपाल की ओर कूच कर गये, और फिर उनका कोई पता नहीं चला। तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में जा छिपे और वहीं से एक भयानक और शानदार छापामार युद्ध चलाते रहे, जब तब कि अप्रैल 1859 में वे सोते समय एक जमींदार दोस्त की गद्दारी के कारण पकड़े नहीं गये। जल्दी-जल्दी उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें 15 अप्रैल, 1859 को मौत की सजा दे दी गई। झांसी की रानी पहले ही, 18 जून, 1858 को युद्धभूमि में लड़ते हुए शहीद हो चुकी थीं। 1859 तक कुंवरसिंह, बख्त खान, बरेले के खान बहादुरखान, नानासाहेब के भाई रावसाहब और मौलवी अहमदुल्लाह सभी स्वर्गवासी हो चुके थे जबकि अवध की बेगम हजरतमहल मजबूर होकर नेपाल में जा छिपी थीं।
1859 के अंत तक भारत पर ब्रिटिश सत्ता पूरी तरह पुनर्स्थापित हो चुकी थी। परंतु विद्रोह व्यर्थ नहीं गया। यह हमारे इतिहास का एक शानदार पड़ाव है। यह पुराने ढंग के भारत को तथा उसके परंपरागत नेतृत्व को बचाने का एक हताशपूर्ण प्रयास तो था ही, परंतु यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए भारतीय जनता का पहला महान संघर्ष भी था। इसने एक आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन के विकास का आधार तैयार कर दिया। 1857 के वीरतापूर्ण तथा देशभक्तिपूर्ण विद्रोह ने तथा उसके पहले के अनेकों विद्रोहों ने भारतीय जनता के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रतिरोध की शानदार स्थानीय परंपराएं कायम कीं तथा आगे के स्वाधीनता संग्राम में भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का एक अक्षुण्ण स्रोत प्रदान किया। इस विद्रोह के वीरों की गाथाएं जल्द ही घर-घर में गूंजने लगीं, भले ही उनके नामों के उच्चारण मात्र से शासक बौखलाते रहे हों।

An Introduction to Internal Security of India

The term national security in broad terms, including military and non-military dimensions of security. It must also clearly state the objectives of the strategy. These might be: protecting and defending the territorial integrity and national sovereignty of the country; protecting the core values of the nation as enshrined in the Indian Constitution; and ensuring the socio-economic development of the country. India’s goal should be to play a positive and effective role in global and regional affairs.

Let me first make some very brief comments about the concept of ‘Security’. The traditional view of security focussed on the application of force at the state level and was therefore a fairly narrow view, hinging on military security. It is now widely acknowledged that there is more to security than purely military factors. Today’s definition of security acknowledges political, economic, environmental, social and human among other strands that impact the concept of security. In the most basic terms, the concern for security of the lowest common denominator of every society, namely the ‘human being’, has resulted in the development of the concept of ‘human security’, which focuses on the individual.
Therefore, the definition of security is defnitely broad – and is related to the ability of the state to perform the function of protecting the wellbeing of its people. This formulation hark back to the days of Ancient Civilizations. In a democracy, it is for the elected government to provide this priority and focus, as only after this, a coherent National Security Strategy can be articulated.
Four types, internal threats should be taken care of immediately, for internal troubles these are internal, external, externally-aided internal, and internally-aided external.
Destabilising a country through internal disturbances is more economical and less objectionable, particularly when direct warfare is not an option and international borders cannot be violated. External adversaries, particularly the weaker ones, find it easier to create and aid forces which cause internal unrest and instability. India’s history is full of such experiences. Since Independence, we have faced many such situations, initiated by China, Pakistan and others in the Northeast and even in the western sectors of the country since the mid-60s.

Presently, almost all the countries of  Asia and Africa  are experiencing internal security problems, due to insurgency movements, ethnic conflicts, religious fundamentalism, or just cussed political polarisation.
India has a unique centrality in the South Asian security zone. It has special ties with each of its neighbours: ties of ethnicity, religion, language, culture, common historical experience, and of shared access to vital natural resources. However, apart from the advantages that these special ties offer, they often make it easier for external forces to exploit any internal dissent. Within the country, these special ties also tend to encourage Indian secessionist groups in establishing safe sanctuaries across the borders in neighbouring states; trans-border illegal migration, gun-running and drug-trafficking. Situated as we are between the ‘Golden Crescent’ and the ‘Golden Triangle’, secessionist groups taking to violence find little difficultyin indulging in drug trade and obtaining small arms within the country.
The people of the country speak 16 major languages, in over 200 dialects. There are about one dozen ethnic groups, seven major religion communities with several sects and sub-sects, and 68 socio-cultural subregions. When a socio-political and socioeconomic equilibrium is maintained in such a scenario, there is unity in diversity. But if there is even the slightest imbalance, we have more diversity and less unity.
Some specific issues that we are faced with, which have an impact on our internal security are:
 Problems of national assimilation and integration,particularly of the border areas in the North and Northeast.
Porous borders with Nepal, Bhutan, Myanmar,Bangladesh, and Sri Lanka, which enable illegal trans-border movements and smuggling of weapons and drugs. It is presumed that erecting fences on the international borders can stop all illegal trans-border movements. That is not so. First, it is not possible to guard or police every metre of the land, sea and air borders. Second, the construction of a fence along land borders is expensive and requires a tremendous amount of manpower for effective surveillance. Border fencing can assist in checking infiltration to an extent, but it does not and cannot eliminate it.
Weak governance including an ineffective law and order machinery and large-scale corruption. An ever-increasing section of the population is getting disenchanted with social justice, or the lack thereof. There is a continuous decay of the political, administrative, and security institutions of the country. Efforts to stem the rot have failed so far. Declining political and public values have led to consistent and persistent political interference.

Nexus between crime, insurgency and politics.

Thursday, 2 November 2017

भारत में प्रेस का विकास

भारत में पुर्तगाली पहले लोग थे जिन्होंने मुद्रणालय की स्थापना की। 1557 में पहली पुस्तक छपी।
भारत में आधाुनिक प्रेस का प्रारंभ 1766 में विलियम वोर्डस द्वारा प= निकालने की योजना और 1780 में जेम्स आगस्टस हिक्की द्वारा बंगाल गजट के प्रकाशन से हुआ। किसी भारतीय द्वारा प्रकाशित पहला समाचार प= गंगाधार भट्टाचार्य द्वारा प्रकाशित बंगाल गजट था जिसका प्रकाशन 1816 में हुआ। 1821 में बंगाली में संवाद कौमुदी और 1822 में फ़ारसी में मिरातउल अखबार के प्रकाशन के साथ प्रगतिशील राष्ट्रीय प्रड्डति वाली समाचार पत्रें का प्रकाशन हुआ।
राज राममोहन राय ने ब्रह्मनिकल मैगजीन, चंद्रिका जैसे पत्रें की भी शुरूआत की। इन्होंने ही द्वारिकानाथ टैगोर के साथ 1830 में बंगदत्त की स्थापना की। उधार 1822 में बंबई से भारत का पहला दैनिक समाचार प= ‘बंबई समाचार’ गुजराती भाषा में निकलने लगा। बंबई से ही गुजराती में 1821 में जानेजमशेद एवं 1851 में रास्तगाफ़ेतार तथा अखबार-ए-सोदागर का प्रकाशन आरंभ हुआ। रास्तगाफ़ेतार का संपादन दादाभाई नौरोजी करते थे।
(अन्य समाचार पत्रें का विवरण अलग से सारणी में है)
अंग्रेजी प्रशासन ने प्रारंभ से ही प्रेस पर नियं=ण रखने का प्रयास किया। शासन द्वारा पारित प्रमुख अधिानियमों में थे।
सेंसरसिप ऑफ़ प्रेस एक्ट (1799) - लार्ड वेलेजली के काल में इस अधिानियम के अंतर्गत समाचार पत्रें पर युद्वकालीन सेंसर लागू किया गया।
लाइसेंसिंग रेगुलेसन ऑफ़ 1823
1823 में जॉन एडम्स के द्वारा इस अधिानियम को समाचार पत्रें के प्रकाशन के पूर्व लाइसेंस को अनिवार्य बनाने के लिए लागू किया गया। इस अधिानियम के कारण मिरातउल अखबार का प्रकाशन बंद हो गया।
लिबरेशन ऑफ़ इंडियन प्रेस (1825)
चार्ल्स मैटकाफ़ के द्वारा इस अधिानियम के माफऱ्त पुराने अधिानियमों को निरस्त किया गया। इसके अनुसार प्रकाशकों को केवल प्रकाशन के स्थान की सूचना देनी होती थी।
लाइसेंसिंग एक्ट ऑफ़ 1857
इसके माधयम से समाचार पत्रें में लाइसेंसिंग को पुनः अनिवार्य बनाया गया।
रजिस्ट्रेशन एक्ट ऑफ़ 1867
इस अधिानियम के माधयम से समाचार पत्रें के प्रकाशन को नियमित करने का प्रयास किया गया। 1869-70 में इसमें संशोधान कर इंडियन पिनल कोड में राजद्रोह के विरूद्व धाारा 124 जोडी गई।
वर्नायूलर प्रेस एक्ट 1878
लिटन के काल में बडी संख्या में स्थापित भारतीय प्रेस को सरकार की आलोचना करने से रोकने के लिए इसे पारित किया गया। इसे मुंहबंद करने वाला अधिानियम भी माना जाता है।
यह अधिानियम सोमप्रकाश जैसे अखबारों को केन्द्र में रखकर पारित किया गया था। 1882 में इस अधिानियम को लार्ड रिपन ने रद्द कर दिया।
न्यूजपेर एक्ट 1908
यह अधिानियम कर्जन द्वारा कांग्रेस के उग्रवादी विचारधाारा के समर्थक पत्रें के विरूद्व लाया गया। इसके अनुसार सरकार को आपत्तिजनक सामग्रीयों के प्रकाशन पर किसी भी प= के ंपजीकरण को रद्द कर देने का अधिाकार था।
इंडियन प्रेस एक्ट 1910
इस अधिानियम के अंतर्गत पंजीकरण की राशि को बढाकर 2000 रूपए किया गया। साथ ही लिटन के 1878 के अधिानियम की शर्तो को पुर्नजीवित किया गया।
इंडियन प्रेस (इमरजेंसी पावर) एक्ट 1931
तेज बहादुर स्प्रू की अधयक्षता में 1910 की अधिानियम के रद्द होने के बाद इस अधिानियम के माधयम से 1910 की अधिानियम को पुर्नजीवित किया गया।
स्वतं=ता के बाद 1950 में नये संविधाान के लागू होने के बाद सरकार ने 1951 की         अधिानियम के तहद आपत्तिजनक सामग्रियों के प्रकाशन पर समाचार पत्रें की पंजीकरण को रद्द करने से संबंधिात कुछ नये नियम बनाये।

आदिवासी आन्दोलन

जनजातीय एवं आदिवासी लोग देश के पश्चिमी, मधयवर्ती एवं उत्तरपूर्वी हिस्सों के विशाल क्षे= के निवासी थे। इनकी विशिष्ट आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्ड्डतिक परिस्थितियों के कारण औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में इन्होंने अपनी संस्ड्डति में हो रहे अनावश्यक हस्तक्षेप का  विरोध किया। 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक हुए इन आन्दोलनों के प्रमुख कारणों में
सामूहिक स्वामित्व की प्रथा पर हस्तक्षेप
ईसाई धार्म प्रचारकों की गतिविधिायां
वन क्षेत्रें में बढता सरकारी नियं=ण
आदिवासियों को सामान्य कानून के अंतर्गत लाया जाना।
आदिवासियों के सांस्ड्डतिक व धाार्मिक जीवन में हस्तक्षेप
आदिवासियों का आर्थिक शोषण, इत्यादि थे।
आदिवासी आन्दोलनों को तीन चरणों में बांटा जा सकता हैं प्रथम (1795-1860), दूसरा (1860-1920), तीसरा (1920 स्वतं=ता तक)। इन चरणों के अंतर्गत हुए आन्दोलनों को हम निम्नानुसार देख सकते हैं।
प्रथम चरण के आन्दोलन
आंदोलन नेतृत्वकर्ता कारण/उद्देश्य
1- पहाडिया आन्दोलन (1778) तंर उंींस पहाडिया क्षे= में अतिक्रमण
2- खोंड विद्रोह (1837-56) चक्रबिसोई मानव बलि प्रथा बंद करने एवं साहूकारों के प्रवेश के विरूद्व
3- कोल एवं हो विद्रोह अंग्रेजों द्वारा इनके क्षेत्रें
(1827-30) में अतिक्रमण
4- संथाल विद्रोह सिद्वू, कान्हू दीकुओ (बाहरी लोगों) द्वारा
(1855-56) आर्थिक शोषण के विरूद्व
5- खेखाड विद्रोह भागीरथ आर्थिक शोषण के विरूद्व
(1835)
द्वितीय चरण के आन्दोलन
1- खाखाड़ विद्रोह (1870) लगान बंदोबस्ती के विरूद्व एकेश्वरवाद एवं आतंरिक    सुधाारों का प्रचार)
2- खोण्डा डोरा विद्रोह कोर्रा मल्लया अंग्रेजों के शोषण के विरूद्व
(1900) (इसने पाण्डवों का
अवतार होने का
दावा किया)
3- नैकदा आन्दोलन अंग्रेज अधिाकारियों एवं सवर्ण हिन्दुओं के विरूद्व धर्मराज स्थापित करना उद्देश्य
4- भील विद्रोह गोविन्द गुरू बंधा आ मजदूरी के विरूद्व
(1911-1913) भीलराज स्थापित करना उद्देश्य
5- भुयान और जुआंग रत्ननायक आदिवासियों का आत्मसम्मान
विदा्रह (1867-68) आहतकरना एवं आर्थिक शोषण
1891-1893)
6- बस्तर का विद्रोह वन अधिानियमों का क्रियान्वयन
(1910) एवं सामन्तीकरारोपण
7- कोया विद्रोह टोम्भा सोरा आदिवासियों के परम्परागत
(1803-1880) अधिाकारों में हस्तक्षेप, साहूकारी
शोषण के विरूद्व
8- मुण्डा विद्रोह बिरसा मुण्डा मुण्डारी प्रथा रोकने व सामन्ती
(1899-1900) शोषण के विरूद्व

तृतीय चरण के आन्दोलन
ताना भगत आन्दोलन आर्थिक कमजोरी के लिए
(1920-30) सांस्ड्डतिकरण को लेकर
चेंचू आन्दोलन चरवाही शुल्क एवं जंगल कानून
(1920-30) के विरूद्व
रम्पा विद्रोह अल्लूरी सीताराम राजू साहूकारी शोषण एवं वन
(1916-24) कानून के विरूद्व

भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना एवं प्रसार

जिस समकालीन विश्व को मुगल साम्राज्य ने अपने विस्तृत प्रदेश, विशाल सेना तथा सांस्कृतिक उपलब्धिायों से आश्चर्यजनक कर दिया था। वह 18वीं शताब्दी के आरंभ से अवनति की तरफ़ बढ़ रहा था। औरंगजेब के बाद कई शासक दिल्ली के सिंहासन पर बैठें लेकिन कोई भी साम्राज्य के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों का सामना नहीं कर सका। वहीं साम्राज्य के दरबार में कूटनीति, घृणा, द्वेष, हत्या आदि का दौर चला। इससे मुगल साम्राज्य कमजोर होता गया। दूसरी तरफ़ प्रांतों के शासक भी स्वतं= व्यवहार करने लगे। ऐसी स्थिति में बाह्य आक्रमण ने मुगल साम्राज्य को भारी हानि पहुंचायी तथा पानीपत के तृतीय यु) द्ध1761ऋ में उभरती मराठा शक्ति अफ़गान शासक अब्दाली के सामने पराजित हो गयी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि भारत पर शासन मराठा शक्ति नहीं कोई अन्य की करेगा। इसी परिस्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी लगातार अपनी शक्ति बढ़ा रही थी तथा राजनीतिक शून्यता को भरने के क्रम में उसने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। ब्रिटिश राज्य स्थापना एवं साम्राज्य विस्तार को उसकी निम्न नीतियां के माध्यम से समझ सकते हैं।
देशी राज्यों से संधियां
बंगाल पर आधिपत्य द्ध1757 के प्लासी यु)ऋ से लेकर 1857 की क्रांति तक अंग्रेजी साम्राज्य के निरंतर अपना विस्तार किया। उसके इस विस्तारवादी नीति को निम्न आधार पर समझ सकते हैं।
मण्डलाकार रक्षापंक्ति की नीति (रिंग फेंस पॉलिसी)
सन् 1764 में बक्सर के यु) में अवध की पराजय के बाद उस राज्य पर कम्पनी अपना अधिकार कर सकती थी। किन्तु क्लाइव ने ऐसा न करके अवध के साथ एक आक्रामक तथा प्रतिरक्षात्मक संधि कर ली। इस संधि के अनुसार जिस नीति का पालन किया वह ‘‘मण्डलाकार रक्षापंक्ति’’ की नीति के नाम से प्रसि) हुई। इस नीति के अंतर्गत कंपनी ने अपने राज्य की रक्षा के लिये अपने पड़ोसी राज्यों की अनेक श=ुओं से रक्षा करने का भार अपने कंधों पर ले लिया। उस समय मराठे अवध को हड़पने का विचार कर रहे थे। उनका अवध पर अधिकार हो जाने के बाद बंगाल तथा बिहार की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती। इस प्रकार अवध को कंपनी तथा मराठों के राज्यों के बीच एक मध्यस्थ राज्य के रूप में बनाये रखने की नीति को अपनाया गया। दक्षिण में भी इसी नीति का अनुसरण किया गया। इस प्रकार कंपनी अपने अधीन प्रदेशों से दूर के क्षेत्रें में यु) करती थी। इस नीति के अंतर्गत कंपनी तथा देशी राज्यों के मध्य संधियों लगभग समानता के आधार पर होती थी। किन्तु कंपनी के शासकों ने इस नीति का ईमानदारी से पालन नहीं किया तथा अपने स्वार्थ हेतु उन्होंने राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया।
सहायक संधि (सबसीडियरी एलाएंस)
वेलेजली ने भारतीय राज्यों की अंग्रेजी राजनैतिक परिधिा में लाने के लिए सहायक संधिा प्रणाली का प्रयोग किया। इससे अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित हो गई एवं तत्कालीन समय में उत्पन्न हो रहा नेपोलियन का भय भी टल गया।
सहायक संधिा प्रणाली बहुत पहले से ही अस्तित्व में थी। इसका सर्वप्रथम प्रयोग डूप्ले ने किया जब उसने अपनी सेनायें किराए पर भारतीय राजाओं को दी। क्लाइव के समय से यह प्रणाली सभी गर्वनरों ने अपनाई लेकिन वेलेजली ने अपने संपर्क में आने वाले सभी देशी राजाआें के संबंधाों में उसका प्रयोग किया। इसके निम्न प्रावधाान थे:-
देशी नरेश कंपनी की अनुमति के बिना किसी अन्य देशी रियासतों से यु) या समझौता नहीं करेगा।
वह बिना कंपनी की आज्ञा के अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी अन्य यूरोपियन को नौकरी में नहीं रखेगा।
देशी नरेश की रक्षा के लिये कंपनी के अधीन एक सेना रखी जायेगी जिसका व्यय उसको वहन करना पड़ेगा। या उसके व्यय के लिये कंपनी को कुछ भूमि दे दी जाएगी।
उसे आपने दरबार में एक अंग्रेज रेजीडेन्ट रखना होगा।
कंपनी देशी नरेश की रक्षा बाह्य तथा आंतरिक श=ुओं से करेगी।
वेलेजली ने इस प्रकार की संधि सन् 1798 में निजाम से, 1799 में मैसूर के हिन्दू राजा से, अवध के नवाब से, बेसीन की संधि पेशवा से तथा द्वितीय आंग्ल-मराठा यु) के बाद सिंधिया से की। 
सहायक संधि का मूल्यांकन
कम्पनी को लाभ:
सहायक संधि करने वाले राज्य की वैदेशिक नीति कंपनी के अधीन हो गई।
फ्रांसीसी प्रभाव देशी राजाओं के दरबार से समाप्त होने लगा।
बिना किसी प्रकार का व्यय वहन किये कंपनी की सैनिक शक्ति कई गुना बढ़ गई। देशी राजाओं की सुरक्षा के लिये रखी गई सेनाओं का वह कंपनी के राज्य विस्तार हेतु प्रयोग करती थीं।
नेपोलियन बोनापार्ट द्धफ्रांसीसी सम्राटऋ द्वारा उत्पन्न किये जा रहे खतरे की तैयारी भी हो गयी। नेपोलियन का मानना था कि कंपनी साम्राज्य का भारत से अलग किया जाना जरूरी है।
राजाओं को लाभ:
राजाओं को इससे लाभ तो यह हुआ कि उनको न तो अब बाहरी आक्रमणों की चिंता थी और न ही आंतरिक विद्रोहों की। किन्तु इस लाभ के साथ उनको एक बड़ी हानि भी हुई, वे पंगु हो गये, उन्होंने राज्य के प्रशासन की ओर ध्यान देना बंद कर दिया, जिसका परिणाम हुआ कुशासन। कुशासन के आधार पर ही डलहौजी ने अवध के राज्य को कंपनी के राज्य में विलय कर लिया था।
अधीश्वरता तथा अधीन पृथक्करण की नीति (पेरामाउंडसी एण्ड सर्बोडिनेट आइसोलेशन)
सहायक संधि में भी सि)ांततः समता की भावना विद्यमान थी। कंपनी ने कभी खुलकर सर्वोपरिता का दावा नहीं किया। यूरोप में नेपोलियन के पतन के बाद सन् 1813 के बाद हेस्टिंग्ज ने देशी राज्यों के प्रति आक्रामक नीति प्रारंभ कर दी। यह नीति अधीश्वरता तथा अधीन पृथक्करण की नीति कहलाई।
इस नीति के प्रमुख तत्व थे:
देशी राज्यों द्वारा कंपनी को सर्वोच्च शक्ति मानना तथा देशी राज्यों का पूर्णतया कंपनी के अधीन होना, देशी राज्यों द्वारा आपस में बिना कंपनी की अनुमति के कोई समझौता नहीं हो सकता था तथा ब्रिटिश रेजीडेंट के निर्देशानुसार उनको कार्य करना आदि। इस प्रकार की संधियां हेस्टिंग्ज ने सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ आदि से की तथा राजपूताना मध्य भारत तथा गायकवाड़ के राजाओं पर अधीश्वरता स्थापित की गई।
ब्रिटिश सर्वोच्चता का सिद्धांत
इस समय तक नेपोलियन का पतन हो चुका था जिससे फ्रांसीसी खतरा समाप्त हो गया था। वहीं वेलेजली ने भारत में कम्पनी का सैनिक प्रभुत्व स्थापित किया था तथा भारतीय प्रतिद्वंद्वियों को पराजित किया था। दूसरी तरफ़ ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांन्ति ने औद्योगिक उत्पादन को बढ़ा दिया था। जिसके लिए एक मुक्त बाजार की आवश्यकता थी। अतः लार्ड हेस्टिग्ंज द्ध1813-23ऋ ने अंग्रेजी राजनैतिक सर्वश्रेष्ठता स्थापित की। इसे ही पारामांउटसी का सि)ांत कहते हैं।
पारामांउटसी नीति के कुछ विशेष तत्व
देशी राज्य द्वारा कंपनी को सर्वोच्च शक्ति मानना तथा देशी राज्य का पूर्णतया कंपनी के अधीन होना।
देशी राज्य आपस में बिना कंपनी की अनुमति के कोई समझौता नहीं कर सकते तथा ब्रिटिश रेजिडेंट के निर्देशानुसार कार्य करता था।
इस प्रकार की संधिा द्धसिंधिाया, होलकर, गायकवाड़, मध्य भारत के राजपूताना आदिऋ ने देसी राजाओं पर ब्रिटिश सर्वोच्चता स्थापित कर दी।
परामाउंसी सि)ांत के तहत सर्वप्रथम हेस्टिंग्स नेपाल से यु) किया तथा सगौली का संधिा द्ध1816ऋ की। इसके तहत कई नये क्षेत्रें द्धगढ़वाल, कुमाऊं, शिमला आदिऋ पर अंग्रेजी सर्वश्रेष्ठता स्थापित हुई। इसी प्रकार मराठों से निर्णायक यु) द्धआंग्ल-मराठा यु) तृतीयऋ ने अंग्रेजी सर्वश्रेष्ठता स्थापित की।
अतः जो व्यक्ति वेलेजली की नीति का आलोचक था उसी ने उसके कार्यों को पूरा किया। जो राज्य कम्पनी की बराबरी करना चाहते थे। वे सब परास्त कर दिए गए तथा भारत में कम्पनी की सर्वश्रेष्ठता पूर्णतया स्थापित हो गया।
व्यपगत का सिद्धांत
व्ययगत सि)ांत से पूर्ण भारत में तीन प्रकार की रियासतें थीं।
वे रियासतें जो उच्चतर शक्ति के अधाीन नहीं थी और न ही ‘कर’ देती थी।
वे रियासतें जो पहले मुगलों एवं मराठों के अधाीन थे तथा अब वे अंग्रेजाें के अधाीनस्थ थी।
वे रियासतें जो अंग्रेजों ने सनद द्वारा स्थापित या पुनर्जीवित की थीं।
अतः मुगल साम्राज्य के पतन तथा मराठा संघ की हार के पश्चात भारत में 1818 ई- कम्पनी सर्वश्रेष्ठ बन गई थी। अतः डलहौजी ने द्ध1848-56ऋ गवर्नर जनरल बनते ही साम्राज्य विस्तार की दो नीतियां अपनायी यु) और व्यपगत सि)ांत की। यु) नीति के तहत पंजाब एवं लोअर बर्मा का विलय किया। दूसरी तरफ़ व्ययगत सि)ांत के अंतर्गत डलहौजी का मानना था कि प्रथम श्रेणी की मामलों वाले रियासतों में गोद लेेने के मामले में कंपनी को हस्तक्ष्ेाप करने का अधिाकार नहीं है। वहीं दूसरी श्रेणी के रियासतों से गोद लेने की अनुमति कंपनी द्वारा प्राप्त करना आवश्यक था जिसे कंपनी मना भी कर सकती थी। तीसरी श्रेणी के रियासत गोद नहीं ले सकती थे। अतः डलहौजी ने उत्तराधिाकार विहीन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। जिसमें सतारा द्ध1948ऋ, जैतपुर, संभलपुर द्ध1849ऋ, बघाट, उदयपुर, झांसी, नागपुर जैसी रियासतें थी।
वस्तुतः व्यपगत सि)ांत के तहत नहीं आने वाले रियासतों को भी डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया। उसका मानना था कि इन रियासताेंं में प्रशासन ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर रहा था। जैसे अवध का विलय।
अतः व्यपगत सि)ांत के तहत ब्रिटिश साम्राजय का विस्तार हुआ और भारत का 2/3 भाग प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया। वस्तुतः 1757 से कंपनी द्वारा प्रारंभ राजनीतिक सुदृढता 1856 तक पूर्ण हो गई। जिसमें व्यपगत सि)ांत ने साम्राज्य विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन व्यपगत सि)ांत ने कुछ भारतीय राजाओं को असंतुष्ट कर दिया जिन्हाेंने 1857 की क्रांति में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 

Tuesday, 10 October 2017

Delhi Sultanate: Tughluq Dynasty

Ghiyath al-Din Tughluq was the founder of the fifth city of Delhi called Tughlaqabad. He was an able military commander. He removed corrupt officials from his administration, reformed the judiciary and all existing police departments. His death however is a mystery. According to the famous Moroccan explorer in history , Ibn Battuta , who was seeking employment at the Tughlaq court, the murder of Ghiyath al-Din Tughluq was conspired by his son, Jauna Khan. Jauna Khan on succession of Delhi, took the title of Muhammad bin Tughlaq.

When Muhammad bin Tughlaq was crowned emperor, his empire included almost the whole of the northern India, with the exception of Kashmir, Cutch and a part of Kathiawar and Orissa. However, the empire started to disintegrate henceforth due to a number of reasons. The shifting of capital from Delhi to Daulatabad back and forth caused a lot of mismanagement and downright chaos. In an attempt to invite some more trouble, the Tughlaqs later introduced copper coins, instead of silver. Since copper coins could be easily forged, the treasuries became clumsy. Feroze Shah Tughlaq, cousin of Muhammad bin Tughlaq upon succession after the latter’s death, tried to restore order within the kingdom. History suggests that he was a great reformer, but lacked martial skills because of which he could never reclaim kingdoms, which were once under the Delhi sultanate. Revival of jagir system and rebellion from Hindus due to forced conversion into Islam added to the misery.

The Tughlaq dynasty received its final blow, when Timur invaded India in 1398. For eight days Delhi was plundered, enough to destroy what little was left of the Tughlaq foundations. It is believed that Delhi didn’t have a ruler for four months, causing a massive breakdown.
.....................................................................................................................
MATATAG: List of rulers of the Delhi Sultanate,Delhi Sultanate,Delhi sultanate | Muslim kingdom, India,Dynasties of Delhi Sultanate - Lead the Competition,Story of the Delhi Sultans,Story of the Delhi Sultans,Indian Sultanate of Delhi ,Delhi Sultanate - History Study Material & Notes,The Establishment of the Delhi Sultanate, Iltutmish as the real founder of Delhi Sultanate,Rulers of Delhi Sultanate, Development of cities in Delhi during the Sultanate Period,Delhi Sultanate – A Journey Begins in 1206AD

Sultanate of Delhi : Khilji Dynasty

Ala-ud-din Khilji usurped the throne of Delhi from his Uncle Jalal-ud-din Khilji. Considered, the most powerful ruler in the history of Delhi Sultanate, he expanded his province beyond Gujarat, Ranthambore, Mewar, Malwa, Jalore, Warangal, Mabar and Madurai. He took the title of ‘Sikander-i-Sani’ - ‘The Second Alexander. Besides being a famous warmonger, successfully defending Delhi against many Mongol invasions, he was also an able ruler. The nobles were under constant scrutiny, as even their private households were not spared from an efficient network of spies. His free market policy reduced the prices of all essential items needed in daily life.

Ala-ud-din built the first building in the history of India that employed Islamic architecture. This domed gateway was named the Alai - Darwaza and can still be seen near Quwwat-ul-Islam Mosque in the Qutub Complex. The city of Siri built to defend the Delhi sultanate against the Mongols, is also accredited to his name by history. He also desired to build a tower twice the height of the Qutub Minar. Now that would have satisfied the pride of the Second Alexander. However, due to the emperor’s death, the construction was stopped midway.

Ala-ud-din's death was followed by a war of succession amongst his sons. Qutb-ud-din Mubarak Shah Khilji, son of Ala-ud-din and the last Khilji ruler, was murdered by Khusro Khan. Khusro Khan, a Hindu slave captured the throne of Delhi but couldn't hold it for long. Just after four months, he was defeated and killed by Ghiyath al-Din Tughluq, who founded the Tughlaq dynasty in Delhi.

............................................................................................................................................................
MATATAG: List of rulers of the Delhi Sultanate,Delhi Sultanate,Delhi sultanate | Muslim kingdom, India,Dynasties of Delhi Sultanate - Lead the Competition,Story of the Delhi Sultans,Story of the Delhi Sultans,Indian Sultanate of Delhi ,Delhi Sultanate - History Study Material & Notes,The Establishment of the Delhi Sultanate, Iltutmish as the real founder of Delhi Sultanate,Rulers of Delhi Sultanate, Development of cities in Delhi during the Sultanate Period,Delhi Sultanate – A Journey Begins in 1206AD