Friday, 22 December 2017

लोक प्रशासन पर विल्सन के विचार
वुडरो विल्सन को लोक प्रशासन के क्षेत्र में एक प्रारंभिक अथवा बीजीय (ैमउपदंस) व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। अपने प्रसिद्ध लेख ‘द स्टडी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन’ के माध्यम से उन्होंने न सिर्फ प्रशासन के वैज्ञानिक अध्ययन के प्रति रूचि जागृत की बल्कि प्रशासन के वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता पर भी बल दिया। उनका लेख सरकार के व्यवहार को विश्लेषणात्मक अध्ययन और सामान्यीकरण के क्षेत्र के रूप में रेखांकित करने वाला युगान्तकारी लेख था और माना जाता है कि लोक प्रशासन की खोज के विषय के रूप में शुरूआत यहीं से हुई। प्रशासन के अध्ययन के बारे में यह लेख उन्होंने उस वक्त लिखा जब उन्हें अमरीकी प्रशासन का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं था। फिर भी उनके लेख का ‘अर्थपूर्ण दूरगामी प्रयास’ माना गया है।
वुडरो विल्सन ने प्रशासन संबंधी अपने विचारों का प्रतिपादन करते हुए उन कारणों की चर्चा की जिसके कारण लोक प्रशासन एक अध्ययन और जाँच (प्दअमेजपहंजपवद) क्षेत्र के रूप में विलम्ब से उभरा जबकि राजनीति विज्ञान, जिसका लोक प्रशासन उत्पाद या फल है, का उदय 2200 वर्ष पूर्व हुआ था। प्रशासन संबंधी अपने विचारों के प्रतिपादन में विल्सन के विचार पर वाल्टर वागेहॉट के विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा हालाँकि विल्सन का राजनीतिक दर्शन सबसे अधिक एडमंड बुर्के के विचार से प्रभावित हुआ था। जान हापकिन्स विश्वविद्यालय के प्रो- रिचर्ड ने विल्सन को प्रशासनिक अध्ययन के लिए प्रेरित और प्रभावित किया।
प्रशासन के सामान्य क्षेत्र से जनमानस को अवगत कराते हुए विल्सन ने अपने लेख में स्पष्ट किया कि प्रशासन के अध्ययन का विकास समाज में बढ़ती हुई जटिलताओं, राज्य के कार्यों में बढ़ोतरी और लोकतांत्रिक ढाँचों में सरकारो के विकास के परिणामस्वरूप हुआ। कार्यों का बढ़ता हुआ बोझ यह सोचने को विवश किया कि निरन्तर बढ़ते और जटिल होते कार्यों को किस प्रकार और किन दिशाओं में किया जाए। इन्हीं समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव देते हुए विल्सन ने कहा कि सरकारों में सुधार की आवश्यकता है और विशेषतौर पर प्रशासनिक क्षेत्र में। प्रशासनिक अध्ययन का उद्देश्य यह खोजना था कि सरकार सही तरह से और सफलतापूर्वक क्या कर सकती है और किस प्रकार इन कार्यों को सर्वाधिक सम्भव दक्षता तथा न्यूनतम सम्भावित धन और ऊर्जा की लागत से कर सकती है। इस अध्ययन का दूसरा उद्देश्य था कार्यकारी पद्धतियों को अनुभवजन्य (म्उचपतपबंस) प्रयागों तथा असमंजसता से बचाना और उन्हें स्थायी सिद्धान्तों की जड़ में छिपे हुए आधारों पर स्थापित करना। इसी कारण विल्सन ने कहा कि प्रशासन का एक विज्ञान होना चाहिए जो सरकार के मार्ग को शक्तिशाली बनाए, उसके कार्य कुछ कम सरकारी बनाए, उसके संगठन को शुद्धता और मजबूती दे तथा कर्त्तव्यपरायणता के साथ उसके कर्त्तव्यों को पूर्ण करे।
विल्सन के अनुसार प्रशासन सरकार का सर्वाधिक स्वभाविक और सुस्पष्ट अंग है। प्रशासन कार्यरत सरकार है। यह  कार्यकारी है, क्रियात्मक है और सबसे ज्यादा दृष्टिगोचर अंग है सरकार का। लेकिन चूँकि ‘कार्यरत सरकार’ राजनीति के विद्यार्थियों को प्रेरित नहीं करती इसलिए किसी ने भी प्रशासन का विधिवत अध्ययन आवश्यक नहीं समझा। इन्हीं कारणों से विल्सन ने प्रशासन के पृथक अध्ययन और राजनीति से प्रशासन के अलगाव पर बल दिया। उनका यह विश्वास था कि प्रशासन का क्षेत्र व्यवसाय का क्षेत्र है। इसलिए राजनीति के कार्यकर्ताओं को प्रशासन के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। शुद्ध प्रशासनिक कार्यों में किया गया राजनीतिक हस्तक्षेप एक भयानक पाप है, विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों में। विल्सन का मानना था कि लोक प्रशासन के विषय संविधान निर्माताओं के विषय से भिन्न होते हैं। संविधान बनाने से कहीं ज्यादा कठिन उसे चलाना होता है। उनके अनुसार संविधान में निहित सिद्धान्त ऐसे अवश्य होने चाहिए जो प्रशासनिक प्रक्रियाओं और कार्यों को सरल बना सकें। प्रशासनिक सिद्धान्त और विचारधारा के साथ सांविधानिक मूल्य का सामंजस्यपूर्ण होना चाहिए। हालाँकि यह सर्वदा सरल नहीं होता। अपने इस राजनीति प्रशासन द्विभाजन संबंधी विचारों के प्रतिपादन में विल्सन पूर्ण स्पष्टता प्रदर्शित नहीं कर पाते क्योंकि कई स्थानों पर वह इन दोनों के बीच निर्भरता और घनिष्ठ संबंध दर्शाने का भी प्रयत्न करते हैं। उनके इस विचार पर आगे के विचारकों के विचार भी भिन्न हैं। जहाँ एक तरफ मोशर का मानना है कि विल्सन ने राजनीति-प्रशासन द्विभाजन पर सबसे शक्तिशाली वक्तव्य दिया वहीं दूसरी ओर रिग्स के अनुसार विल्सन को कोई भ्रम नहीं था कि प्रशासनिक विकास राजनीतिक शून्य में नहीं हो सकता क्योंकि प्रशासनिक कार्यों को राजनीतिक साधनों द्वारा बनाई नई सामान्य नीतियों के कार्यान्वयन के सिवाए देखना मुश्किल है।
विल्सन के अनुसार प्रशासन के विज्ञान में धीमी गति से प्रगति का कारण यू-एस-ए- में व्याप्त लोक संप्रभुता थी। उनकी धारणा थी कि राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र में प्रशासन को संगठित करना कठिन कार्य है। जब भी लोकमत सरकारी सिद्धान्तों पर प्रभावी होंगे प्रशासनिक सुधार की गति धीमी होगी और अवांछनीय समझौते करने होंगे। उनके अनुसार जब तक किसी देश के संविधान से खिलवाड़ (पिदबमतमसल) बन्द नहीं होता, तब तक प्रशासन पर ध्यान केन्द्रित करना बहुत मुश्किल है।
लोक प्रशासन की विषय-वस्तु और विशेषताओं की चर्चा करते हुए विल्सन ने लोक प्रशासन को पारिभाषित किया। उनके अनुसार लोक प्रशासन विधि का विस्तृत और व्यवस्थित प्रयोग है। समान्य विधि का हर विशिष्ट प्रयोग प्रशासन का कार्य है। उनके अनुसार सरकारी कार्यवाही की विस्तृत योजनाएँ प्रशासनिक नहीं होती हालाँकि ऐसी योजनाओं का विस्तृत प्रयोग प्रशासनिक अवश्य होता है। यह भिन्नता सामान्य योजनाओं और प्रशासनिक माध्यमों के बीच का है। विल्सन लोक प्रशासन में प्रबंधकीय दृष्टिकोण के महान समर्थक थे, इसके बावजूद कि उनकी यह मान्यता थी कि प्रशासनिक सिद्धान्तों को उन मूल्यों, विचारों और प्रतिमानों के अनुरूप होना चाहिए जिन पर संविधान आधारित है। उनके अनुसार प्रशासन के अध्ययन को व्यवसाय प्रशासन के केन्द्रीय तत्वों यथा दक्षता, मितव्ययिता और प्रभावशीलता से संबंधित या सदृश होना चाहिए। लोक प्रशासन के कार्य और निजी प्रशासन के कार्य दोनों एक-दूसरे के समान हैं। अतः दोनों में कोई मौलिक अन्तर पर दृष्टिकोण परिवर्तन उचित नहीं।
विल्सन यू-एस-ए- में लोक सेवा सुधार के अग्रणी विचारकों में एक थे। उन्होंने राजनीतिक तटस्था और पेशेवर योग्यता रखने वाले लोक सेवा समूह का दृष्टिकोण प्रतिपादित किया। यह कहा जा सकता है कि विल्सन के मन में एक आधुनिक कार्मिक प्रशासन का बौद्धिक आधार था। यों तो विल्सन का विश्वास था कि प्रशासक सिद्धान्ततः राजनीतिक प्रक्रियाओं में शामिल नहीं होते फिर भी वे ऐसे नौकरशाही अभिजन वर्ग या बुर्जुआ वर्ग का विरोध करते थे जो लोकतांत्रिक नियंत्रण के अधीन न हों। उनके अनुसार भर्ती के तरीकों में किए गए सुधार को कार्यकारी कार्यों और कार्यकारी संगठनों और उनकी कार्यवाही की पद्धतियों पर भी लागू किया जाना चाहिए। निकोलस हेनरी ने कहा है कि विल्सन ने लोक कर्त्तव्य के नैतिक अर्थ को लोकसेवा की अवधारणा की सीमा से अलग हटकर विस्तार देने का प्रयास किया और वह भी लोक प्रशासन के सम्पूर्ण क्षेत्र में।
समाज में प्रशासन की बढ़ती महत्ता से प्रेरित होकर विल्सन ने प्रशासकों के एक योग्य व दक्ष समूह को तैयार करने के लिए औपचारिक प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया। उनके अनुसार प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को प्रशासनिक सिद्धान्तों और तकनीकों के स्व-प्रमाणित सत्य के अध्ययन और प्रयोग पर बल देना चाहिए।
विल्सन का विचार था कि तुलनात्मक पद्धति प्रशासन के क्षेत्र से ज्यादा कहीं और सहायक नहीं हो सकती। उन्होंने दार्शनिक पद्धति को अस्वीकार कर ऐतिहासिक और तुलनात्मक पद्धति पर बल दिया और कहा कि सरकारों के तुलनात्मक अध्ययन के बगैर इस गलतफहमी से मुक्ति नहीं मिल सकती कि लोकतांत्रिक और अन्य राज्यों में प्रशासन के आधार अलग-अलग होते हैं। किसी पद्धति या व्यवस्था की कमजोरियों, गुणों और विशेषताओं को अन्य व्यवस्थाओं से तुलना किए बगैर समझना सम्भव नहीं। यह डर दूर करते हुए कि तुलनात्मक पद्धति से विदेशी पद्धति के आयात का मार्ग प्रशस्त होगा, विल्सन ने कहा कि ‘‘अगर मैं किसी खूनी को चाकू तेज करता हुआ देखूँ तो मैं खून करने के उसके सम्भावित उद्देश्य को लिए बगैर उसके चाकू तेज करने की कला सीख सकता हूँ।’’ अतः यूरोपीय एकतंत्रें से दक्ष प्रशासनिक पद्धति को उनके एकतंत्रीय भावना और लक्ष्य को स्वीकार्य किए बगैर सीखा जा सकता है और निश्चित रूप से सीखा जाना चाहिए। अगर लोकतंत्र को इतना योग्य और ताकतवर बनाता है कि वह आन्तरिक और बाह्य बलों से प्राप्त अराजकता की चुनौतियों का सामना कर सके।
निष्कर्षतः लोक प्रशासन संबंधी विल्सन के चिंतन को सारांश रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है -
(प) समाज कल्याण और हित के लिए प्रशासन की महत्ता लगातार बढ़ रही है।
(पप) प्रशासन को ‘विज्ञान’ के रूप में वर्णित किया जा सकता है।
(पपप) मनुष्य प्रशासनिक सिद्धान्तों और तकनीकों को सीख सकता है और उसे प्रशिक्षित किया जा सकता है।
(पअ) प्रशासन के कार्य निष्पक्ष, विस्तृत और प्रबंधनीय हैं।
(अ) ऐसी प्रशासनिक प्रक्रियाएँ और तकनीक हैं जो सार्वभौमिक रूप से प्रयोग योग्य हैं और इस तरह से सभी आधुनिक सरकारों के लिए समान (बवउउवद) हैं।
(अप) प्रशासन ज्ञान का एक क्षेत्र है जिसे महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्राप्त किया जा सकता है।
(अपप) प्रशासन राजनीति से पृथक है।
(अपपप) प्रशासनिक अध्ययन में दूसरी सरकारों का अनुभव भी शामिल किया जाना चाहिए।
विल्सन के विचारों की आलोचना
प्रथमतः लोक प्रशासन का अध्ययन विल्सन के विचार के आने के पहले से ही हो रहा था। यह विषय 1880 के दशक में यूरोप में काफी विकसित था और इस विषय पर यूरोपीय साहित्य का ही इस्तेमाल अमरीकी विद्वानों ने किया। लोक प्रशासन का शैक्षणिक क्षेत्र फ्रांस में 1812 से 1859 के बीच परिपक्व अवस्था में था। विल्सन ने खुद स्वीकार किया है कि उनके राजनीति-प्रशासन द्विभाजन संबंधी विचार का स्रोत ब्लंशली था। साथ ही साथ यह भी एक तथ्य है कि विल्सन के लेख को 1930 के दशक के पूर्व लगभग किसी भी विद्वान ने नहीं पढ़ा था।
द्वितीयतः विल्सन प्रतिपादन राजनीति-प्रशासन द्विभाजन संबंधी विचार उसके जर्मनी के स्रोतों के गलत अध्ययनों पर आधारित था। इस कारण वह यूरोपीय वृतांत से मौलिक रूप से भिन्न था। अपनी इसी त्रुटि को महसूस करते हुए विल्सन ने अपने लेख के प्रकाशन के तीन वर्ष के भीतर ही राजनीति-प्रशासन द्विभाजन संबंधी विचार का परित्याग कर दिया।
तृतीयतः विल्सन का लेख अतिसामान्य, अति व्यापक और अति अस्पष्ट था। विल्सन कई मुद्दों पर असमंजसता की स्थिति में थे और उन्होंने उत्तर देने की अपेक्षा प्रश्न ज्यादा खड़े किए। वह यह स्पष्ट करने में विफल रहे कि प्रशासन के अध्ययन में क्या शामिल हो या फिर राजनीतिक क्षेत्रें और प्रशासन के बीच सही संबंध क्या हो या प्रशासन विज्ञान कभी प्राकृतिक विज्ञान की तरह विज्ञान बन पाएगा अथवा नहीं। ऐसी स्थिति में यह आशंका उत्पन्न होती है कि क्या विल्सन स्वयं ठीक से यह जानते थे कि लोक प्रशासन वास्तव में क्या है। हाल के शोध कार्यों ने इस धारणा पर भी प्रश्न उठाए हैं कि विल्सन ने ही लोक प्रशासन को शैक्षणिक विषय बनाया। बान रिपर ने तो अमेरिकी प्रशासनिक अध्ययन के पहले विवरणों को अन्य जन्मदाताओं की उपज मानकर विल्सन और उनके लेख को इससे संबंधित किसी भी जिम्मेदारी या उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया है।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद अंततः यह कहना अनुचित होगा कि लोक प्रशासन के क्षेत्र में विल्सन की भूमिका शून्य थी। वे अमेरीकी इतिहास के उदार विचारक थे और उदार पूंजीवाद के प्रति प्रतिबद्ध थे। उन्होंने अपना लेख उस वक्त लिखा जब अमेरीका ने पेशेवर विशेषज्ञ लोक सेवा के विचार को खोजा ही था और 1883 में पेंडेल्टन एक्ट कानून का रूप लिया था। उस वक्त अमेरीका को प्रासंगिक अनुभवों की खोज में बाहरी देशों की ओर देखना आवश्यक था और इस खातिर विल्सन ने तुलनात्मक अध्ययन की इच्छा व आवश्यकता पर बल दिया। वे एक आधुनिकीकर्त्ता (उवकमतदपेमत) के रूप में उभरे। वे चाहते थे प्रशासन में अभिरूचि बढ़ाना और उसे न्यायोचित ठहराना। अपने ‘सबसे विशिष्ट’ लेख के माध्यम से उन्होंने न केवल ‘‘प्रशासन के विचार’’ प्रस्तुत किए बल्कि लोक प्रशासन को एक सामान्य विषय के तौर पर स्थापित भी किया।

Tuesday, 12 December 2017

नव लोक प्रबंधन

पिछले सौ वर्षों के इतिहास में लोक प्रशासन समय के साथ-साथ स्वयं में      परिवर्तनों को आत्मसात् करता हुआ विकसित होता रहा है। बदलते परिदृश्य के साथ-साथ सामाजिक और व्यावहारिक विज्ञान के क्षेत्र में हुए शोध कार्यों ने यद्यपि व्यवस्था का संवर्द्धित किया है परन्तु मूलभूत सिद्धान्त एक ही रहे हैं। समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप लोक प्रशासन प्रगति को प्राप्त नहीं कर सका है। आज का समाज संक्रमणकाल से गुजर रहा है। बाजार और मुद्रा, राजनीति और जनता का वैश्वीकरण भयावह संदिग्धता अस्पष्टता से ओत-प्रोत है। वैश्वी एकीकरण बनाम राष्ट्रीय संप्रभुता के वाद-प्रतिवाद का विश्लेषण समय का प्रचलन है।
1980 के शुरूआत से सरकारी संस्थाओं की प्रकृति, उनके कार्य और व्यवहार विश्व भर में अप्रत्याशित रूप से बदलते जा रहे हैं। इस प्रकार के परितर्वनों के प्रेरक तत्व हैं -
(प) तकनीकी खोज
(पप) राज्य और राज्य संगठनों की भूमिका के निदर्शनात्मक (च्ंतंकपहउंजपब) पुनर्निश्चयन (तंकमपिदपजपवद) का प्रयास।
(पपप) संधि आधारित अधिराष्ट्रीय संस्थानों का विकास।
(पअ) अपने प्रतियोगी देशों के तीव्र आर्थिक विकास से उत्पन्न अपने राष्ट्रीय संप्रभुता/सुरक्षा के संदर्भ में कुछ राष्ट्रों द्वारा खतरा महसूस करना।
उपर्युक्त प्रेरक तत्वों के साथ परिवर्तनशील परिस्थिति में लोक प्रशासन के एक नए प्रतिमान ‘नव लोक प्रबंधन’ का उदय हुआ है। यह नया प्रतिमान लोक संगठनों के उद्यमशील भूमिका पर बल देता है। नए प्रतिमान के विकास के साथ यह अनुभव किया गया है कि आधुनिक विश्व की बढ़ती जटिलताओं के साथ राज्य की शक्ति समाज की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के समाधान में सीमित होती जा रही है। समय के बढ़ते क्रम में सरकार ने स्वयं अनेक उत्तरदायित्व ले लिए हैं जिसे समाज के साथ बाँटा जा सकता है। अपनी दक्षता और कुशलता बनाए रखने के लिए उसे स्वयं को सीमित करना चाहिए।
इस तरह यह नया प्रतिमान नए परिवर्तनों का समर्थन करता है। इन अपेक्षित परिवर्तनों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है - (प) व्यापक परिवर्तन (डंबतव बींदहमे) तथा सूक्ष्म परिवर्तन (डंबतव बींदहमे)। व्यापक परिवर्तन लोक संगठनों की संरचना और कार्य में परिवर्तन से संबंधित है जबकि सूक्ष्म परिवर्तन लोक संगठनों के प्रदर्शन सुधार के लिए उनके कार्यों में अधिक से अधिक प्रबंधकीय तत्वों को लाने से संबंधित है। दोनों ही प्रकार के परिवर्तनों का मूल उद्देश्य लोक संगठन को उपभोक्ता केन्द्रित, बहिर्दृष्टियुक्त और लागत-सचेतन बनाना है। इसलिए नव लोक प्रबंधन तीन श्म्श् की अवधारणा को कार्यान्वित करना चाहता है - दक्षता (मिपिबपमदबल)ए प्रभावशीलता (मिमिबजपअमदमेे) और मितव्ययिता (म्बवदवउल)। इसकी मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं -
1- प्रबंधन निष्पादन मूल्यांकन तथा दक्षता
2- सार्वजनिक अधिकारीतंत्रें को उन अभिकरणों को विभाजित करना जो उपभोक्ता-भुगतान आधार (नेमत-चंल इेंपे) पर परस्पर कार्य करेंगे।
3- अर्ध-बाजार (ुनेंप-उंतामज) का उपयोग तथा प्रतिस्पर्धा के लिए ठेके पर देना।
4- लागत-कटौती लोक प्रशासन को कम खर्चीला बनाने के लिए।
5- प्रबंधन की एक शैली जो अन्य विषयों के साथ-साथ उत्पादन लक्ष्य, अल्पावधि ठेके, आर्थिक प्रोत्साहन तथा प्रबन्धन की स्वतंत्रता पर बल देती है।
अपनी उपर्युक्त विशेषताओं के साथ नव लोक प्रबंधन ने राज्य के क्रियाकलापों पर सशक्त प्रभाव बनाया है और लोकप्रिय नई तकनीकों के मजबूत अभिव्यक्ति का सरकार की योग्यता/क्षमता पर गहरा और दीर्घकालीन प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर सेवा प्रदान करने और संसाधन एकत्रीकरण में। यद्यपि ‘नव लोक प्रबंधन’ की अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका अभी तक सहर्ष  प्रयुक्त नहीं है (वहाँ ‘रि-इन्वेंटिंग’ और ‘उत्तर नौकरशाही सुधार प्रतिमान’ शब्द बहुतायत में प्रयुक्त होते हैं) तथापि यूरोप में प्रशासनिक संरचना और संस्कृति को पुनर्पारिभाषित करने के प्रयास को वर्णित करने के लिए इसका व्यापक प्रयोग हो रहा है। ऑस्वार्न और गैवलर ने नव लोक प्रबंधन के दस लक्ष्य या सिद्धान्त बताए हैं। ये हैं -
1- उत्प्रेरक सरकार (ब्ंजंसलजपब ळवअजण्): सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र और स्वयंसेवी संस्थाओं को उत्प्रेरित (ब्ंजंसलेंजपवद) करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए तथा उन्हें सामाजिक समस्याओं के समाधान में लगाना चाहिए एवं स्वयं को मार्गदर्शक के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
2- समुदाय स्वामित्व सरकार (ब्वउउनदपजल-वूदमक ळवअजण्): सरकार को नागरिकों, परिवारों और समुदायों को शक्ति सम्पन्न बनाना चाहिए जिससे वे अपनी समस्याओं का स्वयं समाधान कर सकें।
3- प्रतियोगी सरकार (ब्वउचमजमजपअम ळवअजण्): सरकार को विभिन्न उपलब्धकर्त्ताओं के मध्य प्रतियोगिता की भावना विकसित करनी चाहिए। इससे लागत कम होगी और प्रतियोगिता बढे़गी।
4- लक्ष्य निर्देशित सरकार (डपेेपवद क्तपअमद ळवअजण्): सरकार को लक्ष्य द्वारा निर्देशित होना चाहिए न कि नियमों व विनियमों द्वारा।
5- प्रतिफल उन्मुखी सरकार (त्मेनसज वतपमदजमक ळवअजण्): सरकार को लक्ष्य उपलब्धि को बढ़ावा देकर प्रतिफल पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और प्रदर्शन का मापन करना चाहिए।
6- उपभोक्ता निर्देशित सरकार (ब्वदेनउमत क्तपअमद ळवअजण्): सरकार को ग्राहक के प्रति ध्यान केन्द्रीकृत करना चाहिए न कि नौकरशाही के प्रति। ग्राहक को विकल्प उपलब्ध कराना चाहिए तथा उसकी अभिरूचि का सर्वेक्षण करना चाहिए और उन्हें सुझाव देने को प्रेरित करना चाहिए।
7- उपक्रम सरकार (म्दजमतचतपेपदह ळवअजण्): सरकार को राजस्व प्राप्त करने पर ज्यादा व व्यय पर कम बल देना चाहिए।
8- पूर्वाभासी सरकार (।दजपबपचंजवतल ळवअजण्): सरकार को समस्याओं की पहचान और उसकी रोकथाम करने पर ज्यादा बल देना चाहिए न कि उसके बढ़ने या उसके इलाज पर।
9- विकेन्द्रीकृत सरकार (क्मबमदजतंसपेमक ळवअजण्): सरकार को प्राधिकार विकेन्द्रीकृत करना चाहिए।
10- बाजार उन्मुखी सरकार (डंतामज वतपमदजमक ळवअजण्): सरकार को नौकरशाही तंत्र की अपेक्षा बाजारी तंत्र को अपनाना चाहिए।
उपर्युक्त लक्ष्यों के साथ विश्व के विभिन्न देशों में ‘नव लोक प्रबंधन’ की अवधारणा को लागू किया जा रहा है। अनेक पश्चिमी देशों में नव लोक प्रबंधन तकनीक के कार्यान्वयन ने लोक क्षेत्रें के एजेंसीकरण बाजारीकरण और निजीकरण में नाटकीय वृद्धि की है। हालाँकि यह भी सही है कि यह सभी मामलों के साथ नहीं है। आस्टेªलिया का अनुभव ब्रिटेन से भिन्न रहा है तो खुद ब्रिटेन का अन्य यूरोपीय संघीय देशों, कनाडा या अमेरिका से भिन्न रहा है। नव लोक प्रबंधन एजेंसीकरण को बढ़ावा देकर लोक क्षेत्र को लचीला, अस्थिर और अल्प ढाँचागत बनाना चाहता है। वास्तव में लोक क्षेत्र और निजी क्षेत्र के बीच की सीमाएँ अनुबंधीकरण और संविदाकार प्रमुख/एजेंट संबंधों की उपच्छाया (च्मदनउइतं) में समाविष्ट हो गई हैं। आज इस अवधारणा की परिभाषा को निरंतर परिस्कृत और अद्यतन बनाया जा रहा है। नौकरशाही नियमों और पदसोपानों में कमी, बजट पारदर्शिता तथा आगत और निर्गत के लागत की पहचान, संविदा संजाल का उपयोग, संगठनों और उनके कार्यों का असंकलन (कपेंहहतमहंजम), प्रबंधक प्रतियोगिता बढ़ाना और उपभोक्ता की शक्ति बढ़ाना आज नव लोक प्रबंधन की माँग है। आधुनिक निजी क्षेत्र व्यवसाय तकनीकों कीदक्षता माँग तथा लागत-कटौती तर्क और नव लोक प्रबंधन की सहवर्ती (बवदबवउपजंदज) गतिशीलता या गतिकी ने बाजारीकरण को और अधिक बढ़ाया है तथा अब लोक सेवा और वस्तुओं की उपलब्धता विश्व बाजार में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से ही होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि नव लोक प्रबंधन ने अपने चपटे (सिंजजमदमक) पदसोपान, संविदा पर विश्वास, व्यक्तिगत पहल और निजी क्षेत्र के लिए गए प्रबंधकीय तकनीक से पुरानी पद्धति की अक्षमता और अप्रभावशीलता को मिटा दिया जो विधि-तार्किक नियमों पर केन्द्रित होती थी। हालाँकि यहाँ स्पष्ट करना उचित होगा कि नव लोक प्रबंधन के समर्थकों ने यह भुला दिया कि जटिल और प्रायः बोझिल पदसोपानों की स्थापना, भाई-भतीजावाद, अन्याय, अनुत्तरदायित्व और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ही हुआ था।
पुरातन नौकरशाही के नव लोक प्रबंधन द्वारा नियमित व स्थिर प्रतिस्थापन के साथ व्यवसायियों तथा विद्वतपरिषद् द्वारा सरकार के केन्द्रीय कार्य की परिभाषा माँगी जा रही है। नीति-निर्माण प्रक्रियाओं में वरिष्ठ कैरियर अधिकारियों की वास्तविक आगत भी कम हो रही है। उनकी भूमिका और सलाह अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन, बुश और लींटन के समय में अतिअनिश्चित बनी रही। चूँकि नव लोक प्रबंधन बाजार उदार नीति विश्लेषण का अनुकूलित, गैर राजनीतिक रूप है, इसलिए ज्यादा तकनीकपूर्ण, सहमतिजन्य और जातीय (हमदमतपब) है। इस उपागम की छाप नीति और प्रशासकीय समाधान का मिश्रण है जिसमें असंकलन (कपेंहहतंहंजपवद), प्रतियोगिता और उद्यीपतीकरण पर बल दिया जाता है।
निष्कर्ष: नव लोक प्रबंधन की अद्यतन अवधारणा सरकार की अधिकतम भूमिका और उसके केन्द्रीय विशिष्ट कार्यों को नागरिकों की ओर से एक अभिज्ञ या समझदार उपभोक्ता के रूप में पहचान रही है। साथ-ही-साथ यह अवधारणा जनहित को अधिकतम बनाने हेतु निजी क्षेत्र द्वारा आपूर्ति कराए जा रहे सेवाओं के क्रेता के रूप में भी प्रस्तुत कर रही है। लेकिन उदार लोकतांत्रिक सरकारों के ये नए रूप उनकी मूल व केन्द्रीय योग्यता को ही समाप्त कर देंगे और एक खोखला या निरर्थक राज्य का उदय हो जाएगा यदि कुछ विशिष्ट कदम न उठाए गए या कोई मार्गदर्शिका नहीं तैयार की गई। 

Wednesday, 8 November 2017

Legislative Councils Act, 1861 in hindi

Legislative Councils Act, 1861
The first ever constitutional structure was formulated in 1861. The British Government passed the Legislative Councils Act to introduce better provisions for the Governor-General’s Council and for Local Government.
According to this Act:
1. The Indian people were included in the Governor-General’s Council for the first time in the history of India.
2. The number of the members of the Legislative Councils was increased.
3. The Governor was given authority to nominate at least six persons to his Council.
4. The Legislative Council was to make laws.
5. The nominated members were not authorized to criticize the actions of the Council and also could not put questions to the members of the Councils about the functions of the Legislative Council.
6. The Governor-General could issue ordinances and was authorized to veto provincial legislation.


 Sir Syed Ahmed Khan was nominated as the member of Legislative Council under the Act of 1861.



भार तीय प रि षद अ धिनिय म, 1861
1861 के अधिनिय म ने भारत के स शंविधानिक विकास में दो महत्वप ूर्ण य ोगदान दिय श-
प हला, इस अधिनिय म ने विधि बनाने के काय र् में भारतीय ों के स हय ोग का प्रारंभ किय श, और
दूस रा, प्रांतीय विधान स भाओं को विधि बनाने का अधिकार भी दिय श। दरअस ल इस ी अधिनिय म
द्वारा भारत में स ंवैधानिक विकास का वास्तविक स ूत्रप शत हुआ।
इस अधिनिय म के अन्य प्रावधान निम्नलििऽ त थे-
 ब्रिटिश् श स रकार द्वारा वाय स राय और प्रांतों के गवर्नरों के अधिकार बढ़ा दिय े गय े।
 इस अधिनिय म द्वारा विभागीय व्य वस्था (प ोर्टप फ़ोलिय ों व्य वस्था) की श् शुआत हुई।
 इस अधिनिय म ने स र्वप्रथम भारत में प्रतिनिधित्व प्रणाली की नींव डाली।
 इस अधिनिय म ने मद्रास तथा बम्बई प्रांतों की विधान स भाओं को भी विधि बनाने की
श् शक्ति प्रदान की।
 इस अधिनिय म द्वारा वाय स राय को आप शत स्थिति में अध्य शदेश् श ज शरी करने की श् शक्ति

प्रदान की गय ी।

Tuesday, 7 November 2017

1858 के बाद के धार्मिक और सामाजिक सुधार

राष्ट्रवाद तथा लोकतंत्र की वह उठती लहर, जिसने स्वतंत्रता के संघर्ष को जन्म दिया था उन आंदोलनों के रूप में भी सामने आई जिनका उद्देश्य सामाजिक संस्थाओं तथा भारतीय जनता के धार्मिक दृष्टिकोण का सुधार करना और उनका लोकतंत्रीकरण करना था। अनेक भारतीयों ने यह अनुभव किया कि सामाजिक और धार्मिक सुधार आधुनिक ढंग से देश का चौतरफा विकास करने तथा राष्ट्रीय एकता और एकजुटता को विकसित करने के लिए आवश्यक है। राष्ट्रवादी भावनाओं का विकास, नई आर्थिक शक्तियों का उदय, शिक्षा का प्रसार, आधुनिक पश्चिमी विचारों तथा संस्कृति का प्रभाव, तथा दुनिया के बारे में पहले से अधिक जानकारी_ इन सभी बातों ने भारतीय समाज के पिछड़ेपन तथा पतन के बारे में लोगों की चेतना को बढ़ाया ही नहीं बल्कि सुधार के संकल्प को और मजबूत किया।
इस तरह 1858 के बाद पहले की सुधारवादी प्रवृत्ति का आधार और व्यापक हुआ। राजा राममोहन राय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे आरंभिक सुधारवादियों के काम को धार्मिक और सामाजिक सुधार के प्रमुख आंदोलनों ने और आगे बढ़ाया।
धार्मिक सुधार
विज्ञान, जनतंत्र तथा राष्ट्रवाद की आधुनिक दुनिया की आवश्यकताओं के अनुसार अपने समाज को ढालने की इच्छा लेकर तथा यह संकल्प करके कि इस रास्ते में कोई बाधा नहीं रहने दी जायेगी, विचारशील भारतीयों ने अपने पारंपरिक धर्मों के सुधार का काम आरंभ किया। कारण कि धर्म उन दिनों जनता के जीवन का एक अभिन्न अंग था और धार्मिक सुधार के बिना सामाजिक सुधार भी कुछ खास संभव नहीं था। अपने धर्मों के आधार के प्रति सच्चे रहकर भी उन्होंने उनको भारतीय जनता की नई आवश्यकताओं के अनुसार ढाला।
ब्रह्म समाजः राजा राम मोहन राय की ब्रह्म परंपरा को 1843 के बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने आगे बढ़ाया। उन्होंने इस सिद्धांत का भी खंडन किया कि वैदिक ग्रंथ अनुल्लंघनीय हैं। 1866 के बाद इस आंदोलन को केशवचन्द्र सेन ने आगे जारी रखा। ब्रह्म समाज ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों को हटाकर, उसे एक ईश्वर की पूजा पर आधारित करके, तथा वेदों को अनुल्लंघनीय न मानकर भी वेदों तथा उपनिषदों की शिक्षाओं के आधार पर उनमें सुधार लाने की कोशिश की। इसने आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के बेहतरीन तत्वों को अपनाने की भी कोशिश की। सबसे बड़ी बात यह है कि उसने अपना आधार मानव-बुद्धि को प्राचीन या वर्तमान धार्मिक सिद्धांतों और व्यवहारों में धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या के लिए पुरोहित वर्ग को भी ब्रह्म समाज ने अनावश्यक बताया। प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार तथा क्षमता प्राप्त है कि वह अपनी बुद्धि की सहयता से यह देखे कि किसी धार्मिक ग्रंथ या सिद्धांत में क्या गलत है और क्या सही है। इस तरह ब्रह्म समाजी मूलतः मूर्तिपूजा तथा अंधविश्वासपूर्ण कर्मकांडों के, बल्कि पूरी ब्राह्मणवादी परंपरा के विरोधी थे। वे बिना किसी पुरोहित की मध्यस्थता के एक ईश्वर की पूजा करते थे।
ब्रह्म लोग महान समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने जाति-प्रथा तथा बाल-विवाह का जमकर विरोध किया। विधवा-पुनर्विवाह समेत स्त्री कल्याण के सभी उपायों के तथा स्त्री-पुरुषों के बीच आधुनिक शिक्षा के प्रसार के वे समर्थक थे।
ब्रह्म समाज अपने आंतरिक कलह के कारण उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कमजोर पड़ गया। इसके अलावा इसका प्रभाव अधिकांश नगरीय शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था। फिर भी 19वीं तथा 20वीं सदी में बंगाल तथा शेष भारत के बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
महाराष्ट्र में धार्मिक सुधारः बंबई प्रांत में धार्मिक सुधार-कार्य का आरंभ 1840 में परमहंस मंडली ने आरंभ किया। इसका उद्देश्य मूर्तिपूजा तथा जाति-प्रथा का विरोध करना था। पश्चिमी भारत के पहले धार्मिक सुधारक संभवतः गोपाल हरि देशमुख थे जिन्हें जनता ‘लोकहितवादी’ कहती थी। वे मराठी भाषा में लिखते थे। उन्होंने हिन्दू कट्टरपंथ पर भयानक बुद्धिवादी आक्रमण किये और धार्मिक तथा सामाजिक समानता का प्रचार किया।
उन्हाेंने यह भी कहाँ कि अगर धर्म सामाजिक सुधार की अनुमति नहीं देता तो उसे बदल दिया जाना चाहिए। क्योंकि धर्म को मनुष्य ने ही बनाया है और बहुत पहले लिखे गये धर्मग्रंथ हो सकता है कि बाद के काल के लिए प्रासंगिक न रह जाएं। बाद में आधुनिक ज्ञान के प्रकाश में हिंदू धार्मिक विचारों तथा व्यवहारों में सुधार लाने के लिए प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। इसने एक ईश्वर की पूजा का प्रचार किया तथा धर्म को जाति-प्रथा की रूढि़यों से और पुरोहितों के वर्चस्व से मुक्त करने का प्रयास किया। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान तथा इतिहासकार आर- जी- भंडारकर और महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) इसके प्रमुख नेता थे। इस पर ब्रह्म समाज का गहरा प्रभाव था तेलुगू सुधारक वीरेशलिंगम के प्रयासों से इसका प्रसार दक्षिण भारत में भी हुआ। इसी समय महाराष्ट्र में गोपाल गणेश आगरकर भी कार्यरत थे जो आधुनिक भारत के महानतम बुद्धिवादी विचारकों में से एक हैं। ये मानव बुद्धि की क्षमता के प्रचारक थे। परंपरा पर अंध-श्रद्धा तथा भारत के अतीत के झूठे महिमामंडल की भी उन्होंने कड़ी आलोचना की।
रामकृष्ण और विवेकानन्दः रामकृष्ण परमहंस (1834-1886) एक संत चरित्र व्यक्ति थे जो त्याग-ध्यान-भक्ति की पारंपरिक विधियों से धार्मिक मुक्ति पाने में विश्वास रखते थे। धार्मिक सत्य की खोज तथा स्वयं में ईश्वर का अनुभव करने के उद्देश्य से वे मुस्लिम तथा ईसाई दरवेशों के साथ भी रहे। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ईश्वर तक पहुंचने तथा मुक्ति पाने के कई मार्ग हैं, और यह कि मनुष्य की सेवा ईश्वर की सेवा है, क्योंकि मनुष्य ईश्वर का ही मूर्तिमान रूप है।
उनके धार्मिक संदेशों को उनके महान् शिष्य स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) ने प्रचारित किया तथा उनको समकालीन भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुसार ढालने का प्रयास किया। विवेकानन्द का सबसे अधिक जोर सामाजिक क्रिया पर था। उन्होंने कहा कि ज्ञान अगर वास्तविक दुनिया में जिसमें हम रहते हैं, कर्म से हीन हो तो व्यर्थ है। अपने गुरू की तरह उन्होंने भी सभी धर्मों की बुनियादी एकता की घोषणा की तथा धार्मिक बातों में संकुचित दृष्टिकोण की निंदा की। जैसा कि 1898 में उन्हाेंने लिखा थाः फ्हमारी अपनी मातृ भूमि के लिए ही दो महान् धर्मों-हिंदुत्व तथा इस्लाम- का संयोग ही----- एकमात्र आशा है।य् साथ ही वे भारतीय दर्शन-परंपरा के श्रेष्ठकर दृष्टिकोण में भी विश्वास रखते थे। वे खुद वेदांत के अनुयायी थे जिसे उन्होंने एक पूर्णतः बुद्धिसंगत प्रणाली बतलाया।
विवेकानन्द ने भारतीयों की आलोचना की कि बाकी दुनिया से कटकर वे जड़ तथा मृतप्राय हो गये हैं। उन्होंने लिखाः फ्दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रों से हमारे अलगाव ही हमारे पतन का कारण है और शेष दुनिया की धारा में समा जाना ही इसका एकमात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है।य्
विवेकानन्द ने जाति-प्रथा की तथा कर्मकांड, पूजा-पाठ और अंधविश्वास पर हिंदु धर्म के तत्कालीन जोर देने की निंदा की तथा जनता से स्वाधीनता, समानता तथा स्वतंत्र चिंतन की भावना अपनाने का आग्रह किया। अपने गुरू की तरह विवेकानन्द भी एक महान मानवतावादी थे।
मानवतावादी राहत-कार्य तथा समाज-कार्य को जारी रखने के लिए 1896 में विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में इस मिशन कीे अनेक शाखाएं थीं और इसने स्कूल, अस्पताल और दवाखाने, अनाथालय, पुस्तकालय, आदि खोलकर सामाजिक सेवा के कार्य किये। इस तरह इसका जोर व्यक्ति की मुक्ति नहीं बल्कि सामाजिक कल्याण और समाज सेवा पर था।
स्वामी दयानन्द और आर्यसमाजः उत्तर भारत में हिंन्दू धर्म के सुधार का बीड़ा आर्यसमाज ने उठाया। इसकी स्थापना 1875 में स्वामी दयानन्द (1824-1883) ने की थी। उनका मानना था कि तमाम झूठी शिक्षाओं से भरे पुराणों की सहायता से स्वार्थी व अज्ञानी पुरोहितों ने हिन्दू धर्म को भ्रष्ट कर रखा था। अपने लिए दयानंद ने वेदों से प्रेरणा प्राप्त की जिनको ईश्वर-कृत होने के नाते वे अनुल्लंघनीय तथा सभी ज्ञान का भंडार मानते थे। उन्होंने उन बाद के सभी धार्मिक विचारों को रद्द कर दिया जो वेदों से मेल नहीं खाते थे। वेदों तथा उनकी अनुल्लंघनीयता पर इस तरह की पूर्ण निर्भरता ने उनकी शिक्षाओं को रूढि़वादी रंग में रंग दिया क्योंकि उनकी अनुल्लंघनीयता का अर्थ यह है कि मानव-बुद्धि अंतिम निर्णायक नहीं रही।
फिर भी, इस दृष्टिकोण का एक बुद्धिसंगत पक्ष भी था। कारण कि ईश्वर-प्रदत्त होने के बावजूद वेदों की व्याख्या उन्हें तथा दूसरे मनुष्यों को ही बुद्धिसंगत ढंग से करनी होगी। वे मानते थे कि प्रत्येक को ईश्वर तक सीधे पहुंचने का अधिकार है। इसके अलावा, हिन्दू कट्टरपंथ का समर्थन करने की बजाए उन्होंने इस पर हमला किया तथा इसके खिलाफ एक विद्रोह छेड़ा। परिणामस्वरूप वेदों की अपनी व्याख्या से उन्होंने जो भी शिक्षाएं ग्रहण की वे दूसरे भारतीय सुधारकों द्वारा प्रचारित किये जा रहे धार्मिक व सामाजिक सुधारों से मिलती-जुलती थीं। वे मूर्तिपूजा, कर्मकांड और पुरोहितवाद के तथा खासकर जाति-प्रथा और ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित हिंदू धर्म के विरोधी थे। उन्होंने इसी वास्तविक जंगल में रह रहे मनुष्यों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया तथा दूसरी दुनिया में परंपरागत विश्वास से लोगों का ध्यान हटाया। वे पश्चिमी विज्ञानों के अध्ययन के भी समर्थक थे।
दिलचस्प बात यह है कि स्वामी दयानंद ने केशवचन्द्र विद्यासागर, जस्टिस रानाडे, गोपाल हरि देशमुख तथा दूसरे आधुनिक धर्म-समाज-सुधारकों से मिलकर उनसे वाद-विवाद भी किये थे। वास्तव में आर्यसमाज का इतवारी सभाओं का विचार ब्रह्म समाज तथा प्रार्थना समाज के व्यवहार से मिलता-जुलता था।
स्वामी दयानंनद के कुछ शिष्यों ने बाद में पश्चिमी ढंग की शिक्षा के प्रसार के लिए देश भर में स्कूलों तथा कॉलेजों का एक पूरा जाल-सा बिछा दिया। इस प्रयास में लाला हंसराज की एक प्रमुख भूमिका रही। दूसरी तरफ कुछ अधिक परंपरावादी शिक्षा के प्रसार के लिए स्वामी श्रद्धानन्द ने 1902 में हरिद्वार के निकट गुरूकुल की स्थापना की।
आर्यसमाजी सुधार के प्रखर समर्थक थे। स्त्रियों की दशा सुधारने तथा उनमें शिक्षा का प्रसार करने के लिए उन्होंने बहुत से काम किये। उन्होंने छुआछूत तथा वंश-परंपरा पर आधारित जाति-प्रथा की कठोरताओं का विरोध किया। इस तरह वे सामाजिक समानता के प्रचारक थे तथा उन्होंने सामाजिक एकता को मजबूत बनाया। उन्होंने जनता में आत्मसम्मान तथा स्वावलंबन की भावना भी जगाई। इससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला। साथ ही साथ, आर्यसमाज का एक उद्देश्य हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन से रोकना भी था। इसके कारण दूसरे धर्मों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ दिया। यह जेहाद बीसवीं सदी में भारत में साम्प्रदायिकता के प्रसार में सहायक एक कारण बन गया। आर्यसमाज के सुधार-कार्य ने समाज की बुराइयां खत्म करके जनता को एकबद्ध करने का प्रयास किया, मगर उसके धार्मिक कार्य में संभवतः अचेतन रूप में ही विकासमान हिंदुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों तथा ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने की ही प्रवृत्ति की। उसे यह बात स्पष्ट नहीं थी कि भारत में राष्ट्रीय एकता धर्मनिरपेक्ष आधार पर तथा धर्म से परे रहकर ही संभव है ताकि यह सभी धर्मों के लोगों को समेट सके।
थियोसोफिकल सोसायटीः थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना संयुक्त राज्य अमेरिकी में मैडल एच- पी- ब्लावात्सकी तथा कर्नल एच-एस- ओलकाट द्वारा की गई। बाद में ये भारत आ गये तथा 1886 में मद्रास के करीब अड्यैर में उन्होंने सोसायटी का हेडक्वार्टर स्थापित किया। 1893 में भारत आने वाली श्रीमती एनी बेसेंट के नेतृत्व में थियोसोफी आंदोलन जल्द ही भारत में फैल गया। थियोसोफिस्ट प्रचार करते थे कि हिंदुत्व, जरथुस्त्र मत (पारसी धर्म) तथा बौद्ध मत जैसे प्राचीन धर्मों, को पुनर्स्थापित तथा मजबूत किया जाये। उन्होंने आत्मा के पुनरागमन के सिद्धांत का भी प्रचार किया। धार्मिक पुनर्स्थापनावादियों के रूप में थियोसोफिस्टों को बहुत सफलता नहीं मिली। लेकिन आधुनिक भारत के घटनाक्रमों में उनका एक विशिष्ट योगदान रहा। यह पश्चिमी देशों के ऐसे लोगों द्वारा चलाया जा रहा एक आंदोलन था जो भारतीय धर्मों तथा दार्शनिक परंपरा का महिमांडन करते थे। इससे भारतीयों को अपना खोया आत्मविश्वास फिर से पाने में सहायता मिली, हालांकि अतीत की महान्ता का झूठा गर्व भी इसने उनके अंदर पैदा किया।
भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के प्रमुख कार्यों में एक था बनारस में केन्द्रीय हिन्दू विद्यालय की स्थापना जिसे बाद में मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया।
सैयद अहमद खान तथा अलीगढ़ आंदोलनः मुसलमानों में धार्मिक सुधार के आंदोलन कुछ देर से उभरे। उच्च वर्गों के मुसलमानों ने पश्चिमी शिक्षा व संस्कृति के संपर्क से बचने की ही कोशिशें की। केवल 1857 के महाविद्रोह के बाद ही धार्मिक सुधार के आधुनिक विचार उभरने शुरू हुए। इस दिशा में आरंभ 1863 में कलकत्ता में स्थापित मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी ने किया। इस सोसायटी ने आधुनिक विचारों के प्रकाश में धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया तथा पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए उच्च तथा मध्य वर्गों के मुसलमानों को प्रेरित किया।
मुसलमानों में सबसे प्रमुख सुधारक सैयद अहमद खान (1817-1898) थे। वे आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से काफी प्रभावित थे तथा जीवन भर इस्लाम के साथ उनका तालमेल करने के लिए प्रयत्नरत रहे। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले यह घोषित किया कि इस्लाम की एकमात्र प्रामाणिक पुस्तक कुरान है और सभी इस्लामी लेखन गौण महत्व का है। उन्होंने कुरान की व्याख्या भी समकालीन बुद्धिवाद तथा विज्ञान की रोशनी में की। उनके अनुसार कुरान की कोई भी व्याख्या अगर मानव-बुद्धि, विज्ञान या प्रकृति से टकरा रही है तो वह वास्तव में गलत व्याख्या है। उन्होंने कहा कि धर्म के तत्व भी अपरिवर्तनीय नहीं है। धर्म अगर समय के साथ नहीं चलता तो वह जड़ हो जायेगा जैसा कि भारत में हुआ है। जीवन भर वे परंपरा के अंध अनुकरण, रिवाजों पर भरोसा, अज्ञान तथा अबुद्धिवाद के खिलाफ संघर्ष करते रहे। उन्होंने लोगों से आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा विचार की स्वतंत्रता अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने घोषणा की कि फ्जब तक विचार की स्वतंत्रता विकसित नहीं होती, सभ्य जीवन संभव नहीं है।य् उन्होंने कट्टरपंथ, संकुचित दृष्टि तथा अलग-थलग रहने के खिलाफ भी चेतावनी दी, तथा छात्रें और दूसरे लोगों से खुले दिल वाला तथा सहिष्णु बनने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि बंद दिमाग सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ेपन की निशानी है।
सैयद अहमद खान का विश्वास था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन आधुनिक, पाश्चात्य, वैज्ञानिक ज्ञान तथा संस्कृति को अपनाकर ही सुधर सकता है। इसलिए आधुनिक शिक्षा का प्रचार जीवन-पर्यन्त उनका प्रथम ध्येय रहा। एक अधिकारी के रूप में उन्होंने अनेक नगरों में विद्यालय स्थापित किये थे और अनेक पश्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद कराया था। उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना पाश्चात्य विज्ञान तथा संस्कृति का प्रचार करने वाले एक केन्द्र के रूप में की। बाद में इस कालेज का विकास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में हुआ।
सैयद अहमद खान धार्मिक सहिष्णुता के पक्के समर्थक थे। उनका विश्वास था कि सभी धर्मों में एक बुनियादी एकता मौजूद है जिसे व्यावहारिक नैतिक कहा जा सकता है। वे मानते थे कि धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है और इसलिए वे वैयक्तिक संबंधों में धार्मिक कट्टरता की निंदा करते थे। वे साम्प्रदायिक टकराव के भी विरोधी थे।
इसके अलावा एक कॉलेज के कोष में हिन्दुओं, पारसियों और ईसाइयों ने भी जी खोलकर दान दिया, और इसके दरवाजे भी सभी भारतीयों के लिए खुले थे। उदाहरण के लिए, 1898 में इस कॉलेज में 64 हिन्दू और 285 मुसलमान छात्र थे। सात भारतीय अध्यापकों में दो हिन्दू थे और इनमें एक संस्कृत का प्रोफेसर था। मगर अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपने अनुयायियों को उभरते राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए सैयद अहमद खान हिन्दुओं के सर्वस्व की शिकायतें करने लगे थे। यह दुर्भाग्य की बात थी। फिर भी वे यह चाहते थे कि मध्य तथा उच्च वर्गों के मुसलमानों का पिछड़ापन खत्म हो। उनकी राजनीतिक उनके इस दृढ़ विश्वास की उपज थी कि ब्रिटिश सरकार को आसानी से नहीं हटाया जा सकता और इसलिए तात्कालिक राजनीतिक प्रगति संभव नहीं है। दूसरी तरफ, अधिकारियों की जरा सी भी शत्रुता शिक्षा-प्रसार के प्रयास के लिए घातक हो सकती थी जबकि वे इसे वक्त की जरूरत समझते थे। उनका विश्वास था कि जब भारतीय भी विचार व कर्म में अंग्रेज जितने आधुनिक बन जायेंगे, केवल तभी वे सफलता के साथ विदेशी शासन को ललकार सकेंगे। इसलिए उन्होंने सभी भारतीयों तथा खासकर शैक्षिक रूप से पिछड़े मुसलमानों को सलाह दी कि वे कुछ समय के लिए राजनीति से दूर रहें। उनके अनुसार राजनीति का समय अभी नहीं आया था।
वास्तव में वे अपने कॉलेज तथा शिक्षा-प्रसार के उद्देश्य के प्रति इस तरह समर्पित हो चुके थे कि इसके लिए अन्य सभी हितों का बलिदान करने को तैयार थे। परिणामस्वरूप, रूढि़वादी मुसलमानों को कॉलेज का विरोध करने से रोकने के लिए उन्होंने धार्मिक सुधार के आंदोलन को भी लगभग त्याग दिया था। इसी कारण से वे कोई ऐसा काम नहीं करते थे कि सरकार रूष्ट हो तथा दूसरी ओर, सांप्रदायिकता और अलगाववाद को प्रोत्साहन देने लगे थे। निश्चित ही यह एक गंभीर राजनीतिक त्रुटि थी जिसके बाद में हानिकारक परिणाम निकले। इसके अलावा उनके कुछ अनुयायी उनकी तरह खुले दिल वाले नहीं रहे और वे बाद में इस्लाम का तथा उसके अतीत का महिमामंडन करने लगे तथा दूसरे धर्मों की आलोचना करने लगे।
सैयद अहमद ने सामाजिक सुधार की काम में भी उत्साह दिखाया। उन्होंने मुसलमानों से मध्य कालीन रीति-रिवाज तथा विचार व कर्म की पद्धतियों को छोड़ देने का आग्रह किया। उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के बारे में लिखा तथा पर्दा छोड़ने तथा स्त्रियों में शिक्षा प्रसार का समर्थन किया। उन्होंने बहुविवाह प्रथा तथा मामूली-मामूली बातों पर तलाक के रिवाज की भी निंदा की।
सैयद अहमद खान को सहायता उनके कुछ वफादार अनुयायी किया करते थे। इन्हें सामूहिक रूप से अलीगढ़ समूह कहा जाता है। चिराग अली, उर्दू शायर अल्ताफ हुसैन हाली, नजीर अहमद तथा मौलानी शिबली नुमानी अलीगढ़ आंदोलन के कुछ और प्रमुख नेता थे।
मुहम्मद इकबालः आधुनिक भारत के महानतम कवियों में एक, मुहम्मद इकबाल (1876-1938) ने भी अपनी कविता द्वारा नौजवान मुसलमानों तथा हिंदुओं के दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रभाव डाला। स्वामी विवेकानंद की तरह उन्होंने भी निरंतर परिवर्तन तथा अबाध कर्म पर बल दिया और चिराग, ध्यान एवं एकांतवास की निंदा की। उन्होंने एक गतिमान दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह किया जो दुनिया को बदलने में सहायक हों। वे मूलतः एक मानवतावादी थे। वास्तव में उन्होंने मानव कर्म को प्रमुख धर्म की स्थिति तक पहुंचा दिया। उन्होंने कहा कि मनुष्य को प्रकृति या सत्ताधीशों के अधीन नहीं होना चाहिए बल्कि निरंतर कर्म द्वारा इस विश्व को नियंत्रित करना चाहिए। उनके विचार में स्थिति को निष्क्रिय रूप से स्वीकार करने से बड़ा पाप कोई नहीं है। कर्मकांड, चिराग तथा दूसरी दुनिया में विश्वास की प्रवृत्ति की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि मनुष्य को इसी जीती-जागती दुनिया में सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी आरंभिक कविता में उन्होंने देशभक्ति के गीत गाये हैं हालांकि बाद में उन्होंने मुस्लिम अलगाववाद का समर्थन किया।
पारसियों में धार्मिक सुधारः पारसी लोगों में धार्मिक सुधार का आरंभ बंबई में 19वीं सदी के आरंभ में हुआ। 1851 में रहमानी मज्दायासन सभा (रिलीजस रिफार्म एसोसिएशन) का आरंभ नौरोजी फरदूनजी, दादाभाई नौरोजी, एस- एच- बंगाली तथा अन्य लोगों ने किया। इन सभी ने धर्म के क्षेत्र में हावी रूढि़वाद के खिलाफ आंदोलन चलाया, और स्त्रियों की शिक्षा तथा विवाह और कुल मिलाकर स्त्रियों की साामजिक स्थिति के बारे में पारसी सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण का आरंभ किया। कालांतर में पारसी लोग सामाजिक क्षेत्र में पश्चिमीकरण की दृष्टि से भारतीय समाज के सबसे अधिक विकसित अंग बन गये।
सिखों में धार्मिक सुधारः सिख लोगों में धार्मिक सुधार का आरंभ 19वीं सदी के अंत में हुआ जब अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई। लेकिन सुधार के प्रयासों को बल 1920 के बाद मिला जब पंजाब में अकाली आंदोलन का आरंभ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरूद्वारों के प्रबंध का शुद्धिकरण करना था। इन गुरूद्वारों को भक्त सिखों की ओर से भारी मात्र में जमीनें और धन मिलते थे, परंतु इनका प्रबंध भ्रष्ट तथा स्वार्थी महंतों द्वारा मनमाने ढंग से किया जा रहा था। अकालियों के नेतृत्व में 1921 में सिख जनता ने इन महंतों तथा इनकी सहायता करने वाली सरकार के खिलाफ एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया।
जल्द ही अकालियों ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह एक सिख गुरूद्वारा कानून बनाये। यह कानून 1922 में बना और 1925 में इसमें संशोधन किये गये। कभी-कभी इस कानून की सहायता से मगर अधिकतर सीधी कार्यवाही के द्वारा सिखों ने गुरूद्वारों से भ्रष्ट महंतों को धीरे-धीरे बाहर खदेड़ दिया, हालांकि इस आंदोलन में सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।
आधुनिक युग के धार्मिक सुधार के आंदोलन में एक बुनियादी समानता पाई जाती है। ये सभी आंदोलन बुद्धिवाद तथा मानवतावाद के दो सिद्धांतों पर आधारित थे, हालांकि अपनी ओर लोगों को खींचने के लिए कभी-कभी वे आस्था तथा प्राचीन ग्रंथों का सहारा भी लेते थे। इसके अलावा, उन्होंने उभरते हुए मध्य वर्ग आधुनिक शिक्षा-प्राप्त प्रबुद्ध लोगों को सबसे अधिक प्रभावित किया। उन्होंने बुद्धिविरोधी धार्मिक कठमुल्लापन तथा अंध श्रद्धा से मानव बुद्धि की तर्क-विचार की क्षमता को मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने भारतीय धर्मों में कर्मकांडी, अंधविश्वासी, बुद्धिविरोधी तथा पुराणपंथी पक्षों का विरोध किया। उनमें से अनेक ने, किसी ने कम और किसी ने अधिक, धर्म को अंतिम सत्य का भंडार मानने से इंकार कर दिया तथा किसी भी धर्म या उसके ग्रंथों में उपस्थित सत्य को तर्क, बुद्धि तथा विज्ञान की कसौटी पर परखा।
इनमें से कुछ धर्मसुधारकों ने परंपरा का सहारा लिया और यह दावा किया कि वे केवल अतीत के वास्तविक सिद्धांतों, मान्यताओं और व्यवहारों को ही पुनर्जीवित कर रहे हैं। पर वास्तव में अतीत को पुनर्जीवित नहीं किया जा सका। प्रायः अतीत के बारे में सबकी समझ भी एक जैसी न थी। अतीत का सहारा लेने पर जो समस्याएं उठती हैं उनका वर्णन जस्टिस रानाडे ने किया है, हालांकि खुद उन्होंने अक्सर जनता से आग्रह किया कि वह अतीत की बेहतरीन परंपराओं को पुनर्जीवित करें।
फिर रानाडे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समाज एक निरंतर परिवर्तनशील जीवित सत्ता है और कभी अतीत की ओर नहीं पलट सकती। फ्मृत तथा दफनाए या जलाए जा चुके लोग हमेशा के लिए मरकर दफनाए या जलाए जा चुके हैं, और इसलिए मुर्दा अतीत को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता,य् ऐसा उन्होंने लिखा है। अतीत का नाम लेने वाले प्रत्येक सुधारक ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की कि वह उसके द्वारा सुझाए गये सुधारों के अनुरूप लगे। सुधार तथा उनके दृष्टिकोण प्रायः नवीन होते थे, अतीत के नाम पर केवल उनको उचित ठहराया जाता था। अनेक विचारों को जो आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान से मेल नहीं खाते थे, यह कहा गया कि ये बाद में जोड़े गये हैं यह गलत व्याख्या के परिणाम हैं। चूंकि रूढि़वादी लोग इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं होते थे इसलिए उनसे सामाजिक सुधारकों का टकराव हुआ, और ये सुधारक कम से कम आरंभिक चरण में धार्मिक और सामाजिक विद्रोहियों के रूप में सामने आये।
इसी तरह सैयद अहमद खान को भी परंपरावादियों के गुस्से का शिकार होना पड़ा। उन्हें गालियां दी गई, उनके खिलाफ फतवे जारी किये गये, तथा जान से मारने की धमकियां तक दी गई।
धार्मिक सुधार के आंदोलनों मे मानवतावादी चरित्र की अभिव्यक्ति पुरोहितवाद तथा कर्मकांड पर उनके हमलों में तथा मानव कल्याण तथा मानव बुद्धि की दृष्टि से धर्मग्रंथों की व्याख्या के व्यक्ति के अधिकार पर दिये गये जोर में हुई। इस मानवतावाद की एक खास बात एक नई मानवतावादी नैतिकता थी। इसमें यह धारणा भी शामिल थी कि मानवता प्रगति कर सकती और करती रही है और अंततः वे ही मूल्य नैतिक मूल्य हैं जो मानव-प्रगति में सहायक हों। सामाजिक सुधार के आंदोलन इस नई, मानवतावादी नैतिकता के मूर्त रूप थे।
हालांकि सुधारकों ने अपने-अपने धर्मों में ही सुधार लाने के प्रयत्न किये, मगर सामान्य दृष्टिकोण सर्वव्यापकतावादी था। राममोहन रॉय विभिन्न धर्मों को एक ही सर्वव्यापी ईश्वर तथा एक धार्मिक सत्य के विशिष्ट रूप समझते थे। सैयद अहमद खान ने कहा कि सभी पैगम्बर का एक ही धर्म या दीन था, और अल्लाह ने हर कौम को अपना एक पैगम्बर भेजा है। इसी बात को केशवचंद्र सेन इस प्रकार रखते हैंः ‘‘हमारा मत यह नहीं है कि सत्य सभी धर्मों में पाए जाते हैं, बल्कि यह है कि सभी स्थापित धर्म सत्य हैं।’’
शुद्ध रूप से धार्मिक विचारों के अलावा धर्म-सुधार के इन आंदोलनों ने भारतीयों के आत्मविश्वास, आत्मसम्मान तथा अपने देश पर उनके गर्व को बढ़ाया। उनके धार्मिक अतीत की आधुनिक बुद्धिवादी शब्दों से अनेक भ्रामक तथा बुद्धिविरोधी तत्वों को बाहर अधिकारियों के इस व्यंग्य का उत्तर देने योग्य बनाया कि यहां के धर्म व समाज पतनशील और हीन हैं।
धर्म-सुधार के आंदोलनों ने अनेक भारतीयों को इस योग्य बनाया कि वे आधुनिक विश्व से तालमेल बिठा सकें। वास्तव में उनका जन्म ही पुराने धर्मों को एक नए, आधुनिक सांचे में ढालकर उनको समाज के नए वर्गों की अवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए हुआ था। इस तरह अतीत पर गर्व करके भी भारतीयों ने आम तौर पर आधुनिक विज्ञान की मूलभूत श्रेष्ठता को मानने से इनकार नहीं किया।
यह सही है कि कुछ लोग ने दावा किया कि वे केवल मूल, प्राचीनतम धर्मग्रंथों का सहारा ले रहे हैं, और इन ग्रंथों की उन्होंने समुचित व्याख्या की। सुधारमूलक दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप अनेक भारतीय जाति-धर्म के विचारों पर आधारित एक संकुचित दृष्टिकोण की जगह एक आधुनिक, इहलौकिक, धर्मनिरपेक्ष तथा राष्ट्रीय अपनाने लगे, हालांकि पहले के संकुचित दृष्टिकोण एकदम समाप्त नहीं हो सके। इसके अलावा अधिकाधिक संख्या में लोग अपने भाग्य को निष्क्रिय रहकर स्वीकार करने तथा मरकर दूसरे जीवन के सुधारने की आशा लगाने के बजाए इसी दुनिया में अपने भौतिक व सांस्कृतिक कल्याण की बाते सोचने लगे। इन आंदोलनों नो बाकी दुनिया से भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अलगाव को भी कुछ भी हद तक खत्म किया और विश्वव्यापी विचारों में भारतीयों को भागीदार बनाया। साथ ही साथ, वे पश्चिम की हर बात के रोब में नहीं आए और जो लोग आंखे मूंदकर पश्चिम की नकल करते थे उनकी खुलकर हंसी उड़ाई गई।
वास्तव में परंपरागत धर्मों व सांस्कृति के पिछड़े तत्वों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर तथा आधुनिक संस्कृति के सकारात्मक तत्वों का स्वागत करके भी, अधिकांश धर्म-सुधारकों ने पश्चिम की अंधी नकल का विरोध भी किया और पश्चिमी संस्कृति व विचार परंपरा के उपनिवेशीकरण के खिलाफ एक विचारधारात्मक संघर्ष चलाया। यहां समस्या दोनों पक्षों के बीच संतुलन स्थापित करने की थी। कुछ लोग आधुनिकीकरण की दिशा में बहुत आगे बढ़ गए तथा संस्कृति और संस्थाओं का पक्ष लेते और उनका महिमामंडन करते थे, और आधुनिक विचारों और सांस्कृति के समावेश का विरोध कर रहे थे। सुधारकों में जो श्रेष्ठ थे उनका तर्क यह था कि आधुनिक विचारों तथा संस्कृति को अच्छी तरह तभी अपनाया जा सकता है जब उन्हें भारतीय सांस्कृतिक धारा का अंग बना लिया जाए।
धर्म-सुधार के आंदोलनों के दो नकारात्मक पक्षों को भी ध्यान में रखना चाहिए। प्रथम, ये सभी समाज के एक बहुत छोटे भाग की यानि नगरीय उच्च और मध्य वर्गों की आवश्यकताएं पूरी करते थे। इनमें से कोई भी बहुसंख्य किसानों तथा नगरों की गरीब जनता तक नहीं पहुंचा, और ये लोग अधिकांशतः परंपरागत रीति रिवाजों के में ही जकड़े रहे। कारण यह है कि ये आंदोलन मूलतः भारतीय समाज के शिक्षित व नरगरीय भागाें की आकांक्षाओं को ही प्रतिबिंबित करते थे।
इनकी दूसरी कमी तो आगे चलकर एक प्रमुख नकारात्मक प्रवृत्ति बन गई। यह कभी पीछे घूमकर अतीत की महानता का गुणगान करने तथा धर्मग्रंथों को आधार बनाने की प्रवृत्ति थी। यह बात इन आंदोलनों की अपनी सकारात्मक शिक्षाओं की विरोधी बन गयी। इसने मानव-बुद्धि तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण की श्रेष्ठता के विचार को ही धक्का पहुंचाया। इससे नए-नए रूपों में रहस्यवाद तथा नकली वैज्ञानिक चिंतन को बल मिला। अतीत की महानता के गुणगान ने एक झूठे तथा दंभ को बढ़ावा दिया। अतीत में एक स्वर्ण युग पाने की इच्छा के करण आधुनिक विज्ञान को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सका, और वर्तमान को सुधारने के प्रयत्नों में बाधा पड़ी।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे हिन्दू, मुसलमान, सिख और पारसी फूट के शिकार होने लगे। ऊंची तथा नीची जातियों के हिन्दुओं में भी दरार पड़ने लगी। अनेक धर्मों वाले एक देश में धर्म पर जरूरत से ज्यादा जोर देने से फूट की प्रवृत्ति बढ़नी स्वाभाविक थी। इसके अलावा, सुधारकों ने सांस्कृति धरोहर के धार्मिक दार्शनिक पक्षों पर एकतरफा जोर दिया। फिर ये पक्ष सभी लोगों की साझी धारोहर भी नहीं थे। दूसरी तरफ कला, स्थापत्य, साहित्य, संगीत, विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि पर पूरा जोर नहीं दिया गया, हालांकि इनमें जनता के सभी भागों की बराबर भूमिका रही थी। इसके अलवा हर एक हिन्दू सुधारक ने भारतीय अतीत के गुणगान को प्राचीन काल तक सीमित रखा। स्वामी विवेकानंद जैसे खुले दिमाग के व्यक्ति तक ने भारत की आत्मा या भारत की उपलब्धियों की चर्चा केवल इसी अर्थ में की। ये सुधारक भारतीय इतिहास के मध्य काल को मूलतः पतन का काल मानते थे। यह विचार अनैतिहासिक ही नहीं था बल्कि सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से हानिकारक भी था। इससे दो कौमों की धारणा पनपी। इसी तरह प्राचीन काल और प्रचीन धर्मों की अनौपचारिक प्रशंसा को निचली जातियों के लोग भी पचा नहीं सके जो सदियों से उसी विध्वंस जाति-प्रथा के दमन के शिकार रहे जो ठीक उसी प्रचीन काल की उपज थी।
इन सबका परिणाम यह हुआ कि सभी भारतीय अतीत की भौतिक सांस्कृतिक उपलब्धियों पर समान रूप से गर्व करें और उससे प्रेरणा प्राप्त करें, इसके बजाय अतीत कुछेक लोगो की संपत्ति बनकर रह गया। इसके अलावा अतीत भी अनेक खंडों में विभाजित होने लगा। मुस्लिम मध्य वर्ग के अनेक लोगों ने तो अपनी परंपरा और अपनी धरोहर पश्चिमी एशिया के इतिहास में खोजना आरंभ कर दिया। हिन्दू, मुसलमान, सिख और पारसी तथा बाद में निचली जाति के हिन्दू-ये सब सुधार आंदालोनों से प्रभवित हुए थे, मगर अब ये एक दूसरे से कटने लगे। दूसरी तरफ, सुधार  आंदोलनों के प्रभाव से दूर रहकर परंपरागत रीति-रिवाजों को मानने वाले हिन्दूआें और मुसलमानों में आपसी भाईचारा बना रहा, हालांकि वे अपने-अपने कर्मकांड का पालन करते रहे।
एक समन्वित संस्कृति के विकास की यह प्रक्रिया जो सदियों से चली आ रही थी, उस पर इस कारण से कुछ अंकुश लगा, हालांकि दूसरे क्षेत्रें में भारतीय जनता के राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। इस प्रवृत्ति का दुष्परिणाम तब स्पष्ट हो गया जब यह पाया गया कि मध्य वर्गों में राष्ट्रीय चेतना की तीव्र विकास के साथ-साथ एक और चेतना, अर्थात् सांप्रदायिक चेतना, का विकास भी हो रहा था। आधुनिक काल में सांप्रदायिकता के विकास के अनेक दूसरे कारण भी थे, परंतु अपनी प्रकृति के कारण धर्म-सुधार के आंदोलनों ने निश्चय ही इसमें कुछ योगदान किया।
सामाजिक सुधार
उन्नीसवीं सदी के राष्ट्रीय जागरण का प्रमुख प्रभाव सामाजिक सुधार के क्षेत्र में देखने को मिला। नवशिक्षित लोगों ने बढ़-बढ़कर जड़ सामाजिक रीतियों तथा पुरानी प्रथाओं से विद्रोह किया। वे अब बुद्धिविरोधी और अमानवीयकारी सामाजिक व्यवहारों को और सहने को तैयार न थे। उनका विद्रोह सामाजिक समानता तथा सभी व्यक्तियों की समाज क्षमता के मानवतावादी आदर्शों से प्रेरित था।
समाज सुधार के आंदोलन में लगभग सभी धर्म-सुधारकों का योगदान रहा। कारण यह कि भारतीय सामज के पिछड़ेपन की तमाम निशानियों जैसे जाति प्रथा या स्त्रियों की असमानता को अतीत में धार्मिक मान्यता प्राप्त रही है। साथ ही सोशल कांफ्रेन्स, भारत सेवक समाज जैसे कुछ अन्य संगठनों तथा ईसाई मिशनरियों ने भी समाज सुधार के लिए जमकर काम किया। ज्योतिबा, गोबिन्द फूले, गोपाल हरि देशमुख, जस्टिस रनाडे, के-टी- तेलंग, बी-एन- मालबारी, डी-के- कर्वे, शशिपद बनर्जी, विपिन चन्द्र पाल, वीरेशलिंगम, ई- वी- रामास्वामी नायकर पेरियार और भीमराव अम्बेडकर तथा दूसरे प्रमुख व्यक्तियों की भी एक प्रमुख भूमिका रही। बीसवीं सदी के और खासकर 1919 के बाद राष्ट्रीय आंदोलन समाज सुधार का प्रमुख प्रचारक बन गया। जनता तक पहुंचने के लिए सुधारकों ने प्रचार कार्य में भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक सहारा लिया। उन्होंने अपने विचारों को फैलाने के लिए उपन्यासों, नाटकों, काव्य, लघु कथाओं प्रेस तथा 1930 के दशक में फिल्मों का भी उपयोग किया।
उन्नीसवीं सदी में कुछ मामलों में समाज सुधार का र्काय धर्म-सुधार से जुड़ा था, मगर बाद के वर्षों में यह अधिकाधिक धर्मनिरपेक्ष होता गया। इसके अलावा रुढि़वादी धार्मिक दृष्टिकोण वाले अनेक व्यक्तियों ने भी इसमें भाग लिया। इसी तरह आरंभ में समाज-सुधार बहुत कुछ ऊंची जातियों के नवशिक्षित भारतीयों द्वारा अपने सामाजिक व्यवहार का आधुनिक पश्चिमी संस्कृति व मूल्यों के साथ तालमेल बिठाने के प्रयासों का परिणाम था। लेकिन धीरे-धीरे इसका क्षेत्र व्यापक होकर समाज के निचले वर्गों तक फैल गया और यह सामाजिक क्षेत्र की क्रांतिकारी पुनर्रचना व आदर्शों को लगभग सार्वजनिक मान्यता मिली तथा आज वे भारतीय संविधान के अंग हैं।
समाज-सुधार के आंदोलनों ने मुख्यतः दो लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयास किएः (अ) स्त्रिें की मुक्ति तथा उनको समान अधिकार देना तथा (ब) जाति प्रथा की जड़ताओं को समाप्त करना तथा खासकर छुआछूत का खात्मा।
स्त्रियों की मुक्ति- भाारत में स्त्रियां अनगिनत सदियों से पुरुषों की अधीन तथा सामाजिक उत्पीड़न का शिकार रही है। भारत प्रचलित विभिन्न धर्मों व उन पर आधारित गृहस्थ-नियमों ने स्त्रियों को पुरुषों से ही स्थान दिया। इस संबंध में उच्च वर्गों की स्त्रियों की स्थिति किसान औरतों से भी बदतर थी। चूंकि किसान स्त्रियों अपने पुरुषों के साथ खेतों में काम करती थीं, इसलिए उनको बाहर आने-जाने की कुछ अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, और परिवार में उनकी स्थिति उच्च वर्गों की स्त्रियों से कुछ मामलों में बेहतर थी। उदाहरण के लिए, वे शायद को पुनर्विवाह के अधिकार प्राप्त थे।
पारंपरिक विचारधारा में पत्नी और माँ की भूमिका में स्त्री की प्रशंसा तो की गई है मगर व्यक्ति के रूप में उसे बहुत हीन सामाजिक स्थान दिया गया है। अपने पति से अपने संबंधों से अलग उसका भी एक प्रतिभा या इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए घरेलू महिला से भिन्न कोई अन्य भूमिका उसे प्राप्त न थी। वास्तव में, उसे पुरुष का पुछल्ला मात्र माना गया। उदाहरण के लिए हिन्दूओं में किसी स्त्रि का एक ही विवाह संभव था, मगर किसी पुरुष को अनेक पत्नियों रखने की अधिकार था। मुसलमानों में यह बहुपत्नी-प्रथा प्रचलित थी। देश के काफी बड़े भाग में स्त्रियों को पर्दे में रखा जाता था। बाल-विवाह की प्रथा आम थी_ आठ-नौ वर्ष के बच्चे भी ब्याह दिए जाते थे। विधवाएं पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं और उन्हें त्यागी व बंदी जीवन बिताना पड़ता था। देश के अनेक भागों में सती-प्रथा प्रचलित थी जिसमें एक विधवा स्वयं को पति की लाश के साथ जला लेती थी।
हिन्दू स्त्री को उत्तराधिकारी में संपत्ति पाने का हक नहीं था, न उसे अपने दुखमय विवाह को रद्द करने को कोई अधिकार था। मुस्लिम स्त्री को संपत्ति में अधिकार मिलता तो था, मगर पुरुषों का केवल आधा और तलाक के बारे में स्त्री और पुरुष के बीच सैद्धांतिक समानता भी न थी। वास्तव में, मुस्लिम स्त्रियों तलाक से भयभीत रहती थीं। हिन्दू व मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक स्थिति तथा उनके मान-सम्मान भी मिलते-जुलते थे। इसके अलावा, दोनों ही सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पुरुषों पर पूरी तरह निर्भर थीं। अंतिम बात यह कि शिक्षा के लाभ उनमें से अधिकांश को प्राप्त नहीं थे। साथ ही, स्त्रियों का अपनी  दासता को स्वीकार कर लेने, बल्कि इसे सम्मान का प्रतीक समझने के पाठ भी पढ़ाए जाते थे। यह सही है कि भारत में कभी-कभी रजिया सुल्ताना, चांद बीवी तथा अहिल्याबाई होलकर अपवाद हैं और इनसे सामान्य स्थिति में कोई अंतर नहीं आता।
उन्नीसवीं सदी के मानवतावाद व समानतावादी विचारों से प्रेरित होकर समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए एक शक्तिशाली आन्दोलन छेड़ा। कुछ सुधारकों ने व्यक्तिवाद तथा समानता के सिद्धांतों का सहारा लिया, तो दूसरों ने घोषणा की कि हिन्दू धर्म,  इस्लाम या जरथुष्ट मत स्त्रियों की हीन स्थिति के प्रचारक नहीं है और वह कि सच्चा धर्म उन्हें एक ऊंचा सामाजिक दर्जा देता है।
अनेकानेक व्यक्तियों, सुधार समितियों तथा धार्मिक संगठनों  ने स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने, विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने, विधवाओं की दशा सुधारने, बाल-विवाह रोकने, स्त्रियों के पर्दे से बाहर लाने, एक पत्नी प्रथा प्रचलित करने और मध्यवर्गीय स्त्रियों को व्यवसाय या सरकारी रोजगार में जाने के योग्य बनाने के लिए कड़ी मेहनत की। 1880 के दशक में तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड डफरिन की पत्नी लेडी डफरिन के नाम पर जब डफरिन अस्पताल खोले गए तो आधुनिक औषधियों तथा प्रसव को आधुनिक तकनीकों के लाभ भारतीय स्त्रियों को उपलब्ध कराने के प्रयास भी किए गए।
बीसवीं सदी में जुझारू राष्ट्रीय आंदोलन के उदय से स्त्री मुक्ति के आंदोलन को बहुत बल मिला। स्वतंत्रता के संघर्ष में स्त्रियों ने एक सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका होम रूल आंदोलन में उन्होंने बड़ी संख्या में भाग लिया। 1918 के बाद वे राजनीतिक जुलूसों में भी चलने लगी, विदेशी वस्त्र और शराब बेचने वाली दुकानों पर धरने देने लगीं, और खादी बुनने तथा उसका प्रचार करने लगीं। असहयोग आंदोलनों में वे जेल गई तथा जन प्रदर्शनों में उन्होंने लाठी, आंसू-गैस और गोलियां भी झेलीं। उन्होंने क्रांतिकारी आतंकवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। वे विधानमंडलों के चुनावाें में वोट देने तथा उम्मीदवारों के रूप में खड़ी भी होने लगीं। प्रसिद्ध कवियत्री सरोजिनी नायडू राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता बनीं। अनेक स्त्रियां 1937 में बनी जनप्रिय सरकारों में मंत्री या संसदीय सचिव बनीं।
उनमें से सैकड़ों नगरपालिकाओं तथा स्थानीय शासन की दूसरी संरचनाओं की सदस्यता तक बनीं। 1920 के दशक में जब ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन खड़े हुए तो अक्सर स्त्रियां उनकी पहली पंक्तियों में दिखाई देतीं। भारतीय स्त्रियों की जागृति तथा मुक्ति में सबसे महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का रहा। कारण कि जिन्होंने ब्रिटिश जेलों तथा गोलियों को झेला था उन्हें ही भला कौन कह सकता था और उन्हें अब कब तक घरों में कैद रखकर गुडि़या या दासी के जीवन से बहलाया जा सकता था? मनुष्य के रूप में अपने अधिकारी का दावा उन्होंने करना ही करना था।
एक और प्रमुख घटनाक्रम देश में महिला आंदोलन का जन्म था। 1920 के दशक तक प्रबुद्ध पुरुषगण स्त्रियों के कल्याण के लिए कार्यरत रहे। अब आत्मचेतन तथा आत्माविश्वास प्राप्त स्त्रियों ने यह काम संभाला। इस उद्देश्य से उन्होंने अनेक संस्थाओं और संगठनों को खड़ा किया। इनमें सबसे प्रमुख था आल इंडिया वूमेन्स कांफ्रेन्स जो 1927 में स्थापित हुआ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष में बहुत तेजी आई। भारतीय संविधान (1950) की धारा 14 वे 15 में स्त्री व पुरुष की पूर्ण समानता की गारंटी दी गई है। 1956 के हिन्दू उत्तराधिकारी कानून ने पिता की संपत्ति में बेटी को बेटे के बराबर अधिकार दिया। 1955 के हिन्दू विवाह कानून में कुद विशिष्ट आधारों पर विवाह-संबंध भंग करने की छूअ दी गई। स्त्री पुरुष दोनों के लिए एक विवाह अनिवार्य बना दिया गया। लेकिन दहेज लेने और देने, दोनों पर प्रतिबंध है। संविधान स्त्रियों को भी काम करने तथा सरकारी संस्थाओं में नौकरी करने के समान अधिकार देता है। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत में स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धांत भी शामिल हैं। स्त्रियों की समानता के सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने में अभी भी निश्चित ही अनेक स्पष्ट और अस्पष्ट बाधाएं हैं। इसके लिए एक समुचित सामाजिक वातावरण का निर्माण आवश्यक है। फिर भी समाज-सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम, स्त्रियों के अपने आंदोलन तथा स्वतंत्र भारत के संविधान ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किए हैं।
जाति-प्रथा के विरुद्ध संघर्ष-जाति व्यवस्था समाज-सुधार आंदोलन के हमले का एक और प्रमुख निशाना थी। इस समय हिन्दू अनगिनत जातियों में बंटे थे। कोई व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसी के नियमों के उसके जीवन का एक बड़ा भाग संचालित होता था। व्यक्ति किससे विवाह करे तथा किसके साथ भोजन करे इसका निर्धारण  उसकी जाति से ही होता था। उसके पेशे तथा उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता का निर्धारण भी बहुत कुछ इसी से होता था। इसके अलावा जातियों को भी सावधानीपूर्वक अनेक ऊंचे-नीचे दर्जे में रखा गया था। इन व्यवस्था में सबसे नीचे अछूत आते थे जो हिन्दू आबादी का लगभग 20 प्रतिशत भाग थे_ इन्हीं को बाद में अनुसूचित जातियां कहा गया। ये अछूत अनेकों कठोर निर्योग्यताओं और प्रतिबंधों से पीडि़त थे जो विभिन्न जगहों में भिन्न-भिन्न थीं। उनके स्पर्श मात्र से किसी व्यक्ति को अपवित्र माना जाता था।
देश के कुछ भागों में और खासकर दक्षण में लोग उनकी छाया तक से बचते थे और इसलिए किसी ब्राह्मण को आता जनकर इन अछूतों को बहुत दूर हट जाना पड़ता था। अछूतों के खाने-पहनने और रहने के स्थान पर भी कड़े प्रतिबंध थे। वह ऊंची जातियों के कुओं, तालाबों से पानी नहीं ले सकता था, इसके लि अछूतों के लिए कुछ  तालाब और कुएं निश्चित होते थे। जहां ऐसे कुएं और तालाब न होते वहां उनको पोखरों और सिंचाई की नालियों का गंदा पानी पीना होता था। वे हिन्दू मंदिरों में जा नहीं सकते और न शास्त्र पढ़ सकते थे। अक्सर उनके बच्चे ऊंची जातियों के बच्चों के स्कूल में नहीं जा पाते थे। पुलिस तथा सेना जैसी सरकारी नौकरियां उनके लिए नहीं थी। अछूतों को अपवित्र समझे जाने वाले गंदे काम, जैसे-झाडू़-बुहारु, जूते, बनाना, मुर्दे उठाना, मुर्दा जानवरों की खाल निकालना, खालों तथा चमड़ों को पकाना-कमाना, आदि काम करने पड़ते थे। वे जमीन के मालिक नहीं बन सकते थे और उनमें से अनेकों को बंटाईदारी या खेल-मजदूरी करनी पड़ती थी।
जाति-प्रथा की एक और बुराई भी थी। यह अपमानजनक, अमानवीय और जन्मत असमानता के जनतंत्र-विरोधी सिद्धांत पर आधारित तो थी ही, साथ ही यह सामाजिक विघटन का कारण भी थी। इसने लोगों को अनेकों समूहों में बांटकर रख दिया गया था। आधुनिक काल में यह प्रथा एकता की राष्ट्रीय भावना के विकास और जनतंत्र के प्रसार में एक प्र्रमुख बाधा रही है। यहां यह भी कह दिया जाए कि जातिगत चेतना, खासकर विवाह-संबंधों के बारे में, मुसलमान, ईसाइयों तथा सिखों में भी रही है, तथा वे भी कम उग्र रूप में ही सही छुआछूत का पालन करते रहे हैं।
ब्रिटिश शासन ने ऐसी अनेक शक्तियों को जन्म दिया जिन्होंने धीरे-धीरे जाति-प्रथा की जड़ों को कमजोर किया। आधुनिक उद्योेगों, रेलों व बसों के आरंभ से तथा बढ़ते नगरीकरण के कारण खासकर शहरों में विभिन्न जातियों के लोगों के बीच संपर्क को अपरिहार्य बना दिया है। आधुनिक व्यापार-उद्योग ने आर्थिक कार्यकलाप के नए क्षेत्र सभी के लिए पैदा किए हैं। उदाहरण के लिए एक ब्रह्मण या किसी और ऊंची जाति का व्यापारी चमड़े या जूते के व्यापार का अवसर भी शायद ही छोड़े और न ही वह डॉक्टर या सैनिक बनने का अवसर छोड़ेगा। जमीन की खुली बिक्री ने अनेक गांवों में जातीय संतुलन को बिगाड़कर रख दिया है। एक आधुनिक औद्योगिक समाज में जाति और व्यवसाय का पुराना संबंध चल सकना कठिन है क्योंकि इस समाज में मुनाफा प्रमुख प्रेरणा बनता जा रहा है।
प्रशासन के क्षेत्र में, अंग्रेजों ने कानून के सामने सबकी समानता का सिद्धांत लागू किया, जातिगत पंचायतों से उनके न्यायिक काम छीन लिए, और प्रशासकीय सेवाओं के दरवाजे धीरे-धीरे सभी जातियों के लिए खोल दिए। इसके अलावा नई शिक्षा प्रणाली पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है और इसलिए वह मूलतः जातिगत भेदों तथा जातिगत दृष्टिकोण की विरोधी है।
जब भारतीयों के बीच आधुनिक जनतांत्रिक व बुद्धिवादी विचार फैले तो उन्होंने जाति-प्रथा के खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया। ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफी, सोशल कांफ्रेंस तथा उन्नीसवीं सदी के लगभग सभी महान सुधारकों ने इस पर हमले किए। हालांकि उनमें से बहुतों ने चार वर्णों की प्रथा का पक्ष भी लिया, मगर वे भी जाति-प्रथा के आलोचक थे। उन्होंने खास तौर पर छुआछूत की अमानवीय प्रथा की निंदा की। उन्होंने यह भी महसूस किया कि राष्ट्रीय एकता तथा राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रें में राष्ट्रीय प्रगति तब तक असंभव है जब तक कि लाखों-लाख लोग सम्मान से जीने के अधिकार से वंचित हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन के विकास ने भी जाति-प्रथा को कमजोर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय आंदोलन उन तमाम संस्थाओं का विरोधी था जो भारतीय जनता को बांटकर रखती थीं। जन-प्रदर्शनों, विशाल जनसभाओं तथा सत्याग्रह के संघर्षों में सबकी भागीदारी ने भी जातिगत चेतना को कमजोर  बनाया। कुछ भी हो, वे लोग जो स्वाधीनता और स्वतंत्रता के नाम पर विदेशी शासन से मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, जाति-प्रथा का समर्थन नहीं कर सकते थे, क्योंकि यह उन सिद्धांतों की विरोधी थी। इस तरह आरंभ से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, बल्कि पूरे राष्ट्रीय आंदोलन ने जातिगत विशेषाधिकारी का विरोध किया और जाति लिंग के भेदभाव के बिना व्यक्ति के विकास के लिए समान नागरिक अधिकारों तथा समान स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते रहे।
गांधीजी अपनी सार्वजनिक गतिविधियों में छुआछूत के खात्में को जीवन भर एक प्रमुख काम मानते रहे। 1932 में उन्होंने इस उद्देश्य से अखिल भारतीय हरिजन संघ की स्थापना की। अस्पृश्यता का जड़-मूल से उन्मूलन का उनका आंदोलन मानवतावाद और बुद्धिवाद पर आधारित था। उनका तर्क कि हिन्दू शास्त्रें में छुआछूत को कोई मान्यता नहीं दी गई है। लेकिन अगर कोई शास्त्र छूआछूत का समर्थन करे तो उसे नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह तब मानव सम्मान के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि सत्य किसी पुस्तक के पन्नों तक सीमित नहीं होता।
उन्नीसवीं सदी के मध्य से अनेक व्यक्तियों व संगठनों ने अछूतों के बीच शिक्षा प्रसार का काम आरंभ किया (इन अछूतों को बाद में कमजोर वर्ग या अनुसूचित जातियां कहा गया)। इनके लिए स्कूलों तथा मंदिरों के दरवाजे खुलवाने, सार्वजनिक कुओं और तालाबों से उन्हें पानी भरने का अधिकार दिलाने तथा उनको उत्पीडि़त करने वाली अन्य सामाजिक निर्योग्यताओं और भेदभावों को नष्ट करने के प्रयास किए गए।
शिक्षा तथा जागृति फैली तो निचली जातियों में भी हलचल होने लगी। वे अपने मूल मानव अधिकारों को प्रति सचेत हुए तथा उनकी रक्षा के लिए उठकर खड़े होने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने ऊंची जातियों के परंपरागत उत्पीड़न के खिलाफ एक शक्तिशाली आंदोलन खड़ा किया। महाराष्ट्र में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में एक निचली जाति में जन्में ज्योतिबा फूले में ब्राह्मणों की धार्मिक सत्ता के खिलाफ जीसन भर आंदोलन चलाया। यह ऊंची जातियों के प्रभुत्व के खिलाफ उनके संघर्ष का एक अंग था वे आधुनिक शिक्षा को निचली जातियों की मुक्ति का सबसे शक्तिशाली अस्त्र समझते थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने निचली जातियों की लड़कियों के लिए अनेक स्कूल खोले। डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने जो खुद एक अनुसूचित जाति के थे, अपना पूरा जीवन जातिगत अत्याचार विरोधी संघर्ष को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ की स्थापना की। अनुसूचित जातियों के दूसरे अनेक नेताओं ने अखिल भारतीय वंचित वर्ग संघ स्थापना की।
केरल में श्री नारायण गुरू ने जाति-प्रथा के खिलाफ जीवन भर संघर्ष चलाया। उन्होंने ही मानव जाति के लिए एक धर्म, एक जाति और एक ईश्वर का प्रसिद्ध नारा दिया। दक्षिण में ब्राह्मणों द्वारा लादी गई निर्योग्यताओं का मुकाबला करने के लिए गैर-ब्राह्मणों ने 1920 के दशक में एक आत्मसम्मान आंदोलन चलाया। पूरे भारत में मंदिरों में अछूतों के प्रवेश की मानाही तथा दूसरे प्रतिबंधों के खिलाफ ऊंची तथा निलची जातियों के लोगों ने मिलकर अनेक सत्याग्रह आंदोलन चलाए।
फिर भी, छुआछूत विरोधी संघर्ष विदेशी शासन में पूरी तरह सफल नहीं हो सकता था। विदेशी सरकार समाज के रुढि़वादी तत्वों की शत्रुता मोल लेने से डरती थी। समाज के मूलभूत सुधार का काम केवल स्वतंत्र भारत की सरकार कर सकती थी। इसके अलावा, सामाजिक कल्याण का काम राजनीतिक-आर्थिक कल्याण से गहराई से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, कमजोर वर्गों की सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए आर्थिक प्रगति आवश्यक है_ शिक्षा तथा राजनीतिक अधिकारों के प्रसार के साथ भी यही बात है। इस बात को भारतीय नेताओं ने अच्छी तरह समझा था।
1950 के संविधान ने अंततः छुआछूत के खात्मे के लिए एक कानूनी आधार तैयार किया। इसने घोषणा की कि अस्पृश्यता समाप्त की जा चुकी है और किसी रूप में इसका पालन मना है। छुआछूत के आधार पर किसी पर कोई भी निर्योग्यता लादना एक अपराध होगा जिसके लिए कानून के अनुसार दंड दिया गया। संविधान कुओं, तालाबों या नहाने के घाटों के उपयोग पर या दुकानों, रेस्तराओं, होटलों और सिनेमाघरों में किसी के प्रवेश पर रोक लगाने से भी मना करता है। इसके अलावा भावी सरकारों के मार्गदर्शन के लिए जो नीति-निर्देशक सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं उनमें से एक में यह बात कही है कि ‘‘राज्य जनकल्याण को प्रोत्साहित करने का प्रयास करेगा, और इसके लिए जितने प्रभावी ढंग से संभव हो सके, एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था लाने तथा उसकी रक्षा करने का प्रयास करेगा जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं का आधार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हो।’’ फिर भी जाति प्रथा की बुराइयों के खिलाफ संघर्ष, खासकर ग्रामीण क्षेत्रें, में, अभी भी भारतीय जनता का एक प्रमुख कार्यभार है।

संवैधाानिक विकास (1773-1950)

1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट
ईस्ट इंडिया कम्पनी पर संसदीय नियं=ण की शुरूआत।
बम्बई प्रेसीडेंसी को कलकता प्रेसीडेंसी के अधाीन कर दिया गया। जिसका प्रमुख गवर्नर जनरल होता था।
गवर्नर जनरल की कौंसिल में चार पार्षद होते थे, इनका कार्य काल पांच वर्ष का होता था।
गवर्नर जनरल इन कौंसिल को कम्पनी के सम्पूर्ण राज्य क्षे= के बेहतर शासन के लिए नियम, अधयादेश तथा विनिमय बनाने की शक्तियां प्रदान की गई थीं।
कलकता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इस न्यायालय में प्रधाान न्यायाधाीश के अतिरिक्त तीन न्यायाधाीश थे।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
1781 का बंगाल न्यायालय अधिानियम
रेग्यूलेटिंग एक्ट की =ुटियों को दूर करने के लिए लाया गया।
सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों एवं न्यायाधिाकार की व्याख्या की गई।
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के ऊपर अपने प्रभाव को और मजबूत करने के लिए 1784 का पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया।
पिट्स इंडिया एक्ट के विवाद को लेकर ही लार्ड नार्थ एवं फ़ाक्स की मिली जुली सरकार को त्याग प= देना पडा। यह पहला और अन्तिम अवसर था जब किसी भारतीय मामले पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी हो।
कम्पनी के वाणिज्य संबंधाी विषयों को छोडकर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधाी मामलों को एक नियं=ण बोर्ड के अधाीन कर दिया गया।
भारत में प्रशासन गवर्नर जनरल तथा उसकी चार के स्थान पर तीन सदस्यों वाली परिषद के हाथों दे दिया गया।
भारत में कम्पनी द्वारा अधिाड्डत प्रदेशों को पहली बार ब्रिटिश अधिाड्डत भारतीय प्रदेश का नाम दिया गया।
ब्रिटिश सरकार में एक अलग विभाग खोला गया जिसका एकमा= प्रकार्य कंपनी के निदेशकों तथा भारतीय प्रशासन पर नियं=ण रखना था।
इस अधिानियम द्वारा दोहरी शासन प्रणाली की शुरूआत हुई जो 1858 तक चलती रही - एक कंपनी के द्वारा तथा दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेंसियां भी गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधाीन कर दी गई।
1793 का चार्टर एक्ट
इस अधिानियम द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिाकारों को 20 वर्ष के लिए बढा दिया गया।
मुख्य सेना पति को गवर्नर जनरल की परिषद का स्वतः ही सदस्य होने का अधिाकार समाप्त हो गया।
1813 का चार्टर एक्ट
इस एक्ट द्वारा कम्पनी का भारतीय व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया यद्यपि उसके चीन के तथा चाय के व्यापार का एकाधिाकार चलता रहा।
प्रथम बार अंग्रेजों की भारत पर संवैधाानिक स्थिति स्पष्ट की गई थी।
1813 के अधिानियम से नियं=ण बोर्ड की अधाीक्षण तथा निर्देशन की शक्ति को न केवल परिभाषित अथवा स्पष्ट किया गया अपितु उसका पर्याप्त रूप से विस्तार किया गया।
जिस बात ने इस एक्ट को महत्वपूर्ण बना दिया वह था शिक्षा के मद में 1 लाख रूपए वार्षिक खर्च करना।
1833 का चार्टर एक्ट
1833 के चार्टर एक्ट पर इंगलैण्ड की औद्योगिक क्रांति, उदारवादी नीतियों का क्रियान्वयन तथा लेसेज फ़ेयर के सिद्धांत की छाप थी।
नियं=ण बोर्ड के सचिव मेकाले तथा बेंथम के शिष्य जेम्स मिल का प्रभाव 1833 के चार्टर एक्ट पर स्पष्ट रूप से प्रतिधवनित होता है।
इस अधिानियम ने कम्पनी को 20 वर्षो के लिए नया जीवन दिया तथा उसे एक ट्रस्टी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
कम्पनी के व्यापारिक अधिाकार समाप्त कर दिए गए और उसे भविष्य में केवल राजनैतिक कार्य ही करने थे।
इस अधिानियम से कम्पनी के डायरेक्टर के संरक्षण को कम कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा भारत के प्रशासन का केन्द्रीकरण कर दिया गया।
बंगाल का गवर्नर जनरल भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया।
सपरिषद् गवर्नर जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियं=ण, निरीक्षण तथा निर्देशन सौंप दिया गया।
बम्बई, मद्रास तथा बंगाल एवं अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियं=ण में दे दिए गए।
सभी कर गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही लगाए जाने थे और उसे ही इसके व्यय का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने की शक्ति का भी केन्द्रीकरण कर दिया गया अब केवल सपरिषद गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने का अधिाकार दिया गया।
कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में एक विधिा सदस्य चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित कर लिया गया। सैद्वांतिक रूप से उसे केवल कानून बनाते समय परिषद की बैठक में भाग लेने तथा मत देने का अधिाकार था।
सर्वप्रथम मैकाले को विधिा सदस्य के रूप में गवर्नर जनरल की परिषद में शामिल किया गया।
इस एक्ट की धाारा 87 के अनुसार नियुक्तियों के लिए योग्यता संबंधाी मापदंड अपनाकर भेदभाव को समाप्त किया गया।
कम्पनी के भारतीय चाय तथा चीन के व्यापार का एकाधिाकार समाप्त कर दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा दासता को अवैधा घोषित किया गया।
कम्पनी के ऋणों की जिम्मेदारी भारत सरकार ने अपने ऊपर ले ली।
1853 का चार्टर एक्ट
भारत के लिए एक पृथक विधाान परिषद की स्थापना की गई, इस परिषद की कार्यप्रणाली अंग्रेजी संसद के अनुसार निश्चित की गई।
डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें 6 क्राउन द्वारा मनोनीत किए जाने थे।
भारत में प्रशासकीय सेवाओं में नियुक्तियों को शासित करने के लिए नियम एवं विनियम तैयार करने के लिए नियं=क मंडल को अधिाड्डत किया गया।
सिविल सेवा परीक्षा भारतीय लोगों के लिए खोल दी गई और एक खुली प्रतियोगिता के माधयम से इस सेवा में प्रवेश संभव बनाया गया।
विधिा सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
विधाान सभा द्वारा पारित विधोयक को गवर्नर जनरल विटो कर सकता था।
परिषद में वाद-विवाद का रूप मौखिक था। परिषद का कार्य गोपनीय नहीं अपितु सार्वजनिक होता था।
विधाान परिषद एक प्रकार का एंग्लो इंडियन का हाउस ऑफ़ कामन्स बन गया।
1858 का अधिानियम
इस एक्टको एक्ट फ़ॉर द बेटर गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया, नाम दिया गया।
1857 की क्रांति के दमन के बाद ब्रिटिश संसद ने इस अधिानियम को पारित किया।
इस अधिानियम द्वारा भारत का शासन कम्पनी से हटाकर क्राउन को हस्तांतरित कर दिया गया।
भारत का प्रशासन भारत विषयक मं=ी अथवा भारत राज्य सचिव जो कि ब्रिटिश कैबिनेट मंत्रियों में से एक था, को सौंप दी गई।
भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों वाली एक परिषद (8 की नियुक्ति क्राउन द्वारा तथा 7 की नियुक्ति बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा) का गठन किया गया।
अब तक निदेशक मंडल या नियं=ण मंडल द्वारा प्रयोग की जा रही समस्त शक्तियां भारत राज्य सचिव को सौंप दी गई।
इस प्रकार 1784 के पिटस इंडिया एक्ट के द्वारा लागू दोहरी शासन व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
भारत राज्य सचिव तथा उसके परिषद के खर्च का वहन भारतीय राजस्व से किया जाना था।
परिषद की भूमिका केवल परामर्शदाता की थी और प्रायः बहुत से मामलों में राज्य सचिव का निर्णय ही अन्तिम होता था।
गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधिा दी गई। वह क्राउन का सीधाा प्रतिनिधिा बन गया।
संभावित जानपद सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी जिसके लिए राज्य सचिव ने जानपद सेवा आयुक्तों की सहायता से नियम बनाए।
भारत के राज्य सचिव को निगम निकाय घोषित किया गया।
राज्य सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
1861 का भारतीय परिषद अधिानियम
1861 के अधिानियम ने भारत में प्रतिनिधिा संस्थाओं को जन्म दिया।
वायसराय की कार्यकारी परिषद में एक पांचवा सदस्य सम्मिलित कर दिया गया जो एक विधिावेता था।
वायसराय की परिषद को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई जिसके तहत लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरूआत की।
कैनिंग ने भिन्न-भिन्न विभाग भिन्न सदस्यों को दे दिए। इस प्रकार भारत सरकार की मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव रखी गई।
वायसराय की कार्यकारी परिषद का विस्तार किया गया। न्यूनतम संख्या 6 और अधिाकतम संख्या 12 निर्धाारित की गई।
इनको वायसराय मनोनीत करेगा और वे दो वर्षो तक अपने पद पर बने रहेंगे। इनमें से कम से कम आधो सदस्य गैर सरकारी होंगे।
विधाान परिषद का कार्य केवल कानून बनाना था, इसको प्रशासन अथवा वित अथवा प्रश्न इत्यादि पूछने का कोई अधिाकार नहीं था।
इस अधिानियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रांतों को अपने लिए कानून बनाने तथा उनमें संशोधान करने का अधिाकार दे दिया गया।
इन प्रांतीय परिषदों द्वारा बनाए गए कोई भी कानून उस समय तक वैधा नहीं माने जाएंगे जब तक कि वह गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त न कर ले।
गवर्नर जनरल को संकटकालीन अवस्था में विधाान परिषद की अनुमति के बिना ही अधयादेश जारी करने का अधिाकार दे दिया गया।
ये अधयादेश अधिाक से अधिाक छः महीने लागू रह सकते थे।
1892 का भारतीय परिषद अधिानियम
इस अधिानियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि की गई।
केन्द्रीय विधाान परिषद में न्यूनतम 10 तथा अधिाकतम सदस्य संख्या 16 निर्धाारित की गई।
वायसराय के सदस्यों के नामांकन का अधिाकार सुरक्षित रखा गया।
परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिाकार मिला।
सदस्य पूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों को बम्बई तथा मद्रास में इस अधिानियम द्वारा न्यूनतम 8 तथा अधिाकतम 20 अतिरिक्त सदस्याें द्वारा बढ़ा दिया गया।
केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधाान परिषद के सदस्यों को सार्वजनिक हितों के मामलों में 6 दिन की सूचना देकर प्रश्न पूछने का अधिाकार दिया गया।
इस अधिानियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधाान चुनाव पद्वति की शुरूआत करनी थी।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अधिाकारियों के अतिरिक्त 5 गैर सरकारी सदस्य होते थे, जिन्हें चार प्रांतों के प्रांतीय विधाान मण्डल के गैर सरकारी सदस्य तथा कलकता के वाणिज्य मंडल के सदस्य निर्वाचित करते थे।
प्रांतीय विधाान मंडलों के सदस्यों को नगरपालिकाएं, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय तथा वाणिज्य मंडल निर्वाचित करते थे।
निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी तथा निर्वाचित सदस्यों को मनोनीत की संज्ञा दी जाती थी।
1909 का भारतीय परिषद एक्ट (मॉरले-मिण्टो सुधाार)
मॉरले - भारत राज्य सचिव
मिण्टो - गवर्नर जनरल
फ़रवरी 1909 में पारित
1909 के अधिानियम द्वारा भारतीयों को विधिा निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधिात्व प्रदान किया गया।
केन्द्रीय विधाान मंडल में अतिरिक्त सदस्यों की अधिाकतम संख्या 60 कर दी गई।
इनमें 37 शासकीय तथा 32 अशासकीय वर्ग के थे।
शासकीय सदस्यों में 9 पदेन सदस्य थे तथा 28 सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए गए जाते थे।
32 अशासकीय सदस्यों में 5 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए जाते थे और शेष 27 निर्वाचित होते थे।
निर्वाचक मंडल को तीन भागों में बांटा गया था - साधाारण निर्वाचक मंडल, वर्गीय निर्वाचन मंडल तथा विशिष्ट निर्वाचक मंडल।
इस अधिानियम द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिाकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रें की स्थापना की गई।
इस अधिानियम द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के साथ-साथ प्रांतीय कार्यकारी परिषदों में भी एक भारतीय व्यक्ति की नियुक्ति का प्रावधाान किया गया था।
बंगाल, मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणी संख्या बढाकर 4 कर दी गई।
परिषद के सदस्यों को विदेशी संबंधाों तथा देशी राजाओं से संबंधाों, कानून के सामने निर्णय के लिए आए प्रश्नों को उठाने की अनुमति नहीं थी।
एक्ट पर विचार
महात्मा गांधाी - मॉरले मिण्टो सुधाारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया।
के- एम- मुंशी - इन्होंने उभरते हुए प्रजातं= को मार डाला।
मॉरले - पृथक निर्वाचन मंडल स्थापित करके हम नाग के दांत बो रहे हैं और इसका फ़ल भीषण होगा।
मजूमदार - 1909 के सुधाार केवल चन्द्रमा की चांदनी के समान हैं।
1919 का भारत सरकार अधिानियम (मॉटफ़ोर्ड या मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधाार)
इस अधिानियम में पहली बार उतरदायी शासन शब्द का प्रयोग किया गया।
प्रांतों में आतंरिक उतरदायी शासन तथा द्वैधा शासन की स्थापना की गई।
1793 से भारत राज्य सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था अब वह अंग्रेजी राजस्व से मिलना था।
केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिाक प्रभावशाली भूमिका दी गई। वायसराय की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किए गए और उन्हें विधिा, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा उद्योग आदि विभाग सौंपे गए।
इस अधिानियम के अनुसार सभी विषयां को केन्द्र तथा प्रांतों में बांट दिया गया।
केन्द्र सूची के विषय - विदेशी मामले, रक्षा, डाक-तार सार्वजनिक ऋण आदि।
प्रांतीय सूची के विषय - स्थानीय स्वशासन, शिक्षा चिकित्सा, भूमिकर, ड्डषि, अकाल सहायता आदि।
सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास थीं।
क्ेन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गई - एक सदन राज्य परिषद तथा दूसरा केन्द्रीय विधाान सभा।
राज्य परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निश्चित की गई (34 निर्वाचित तथा 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत)।
केन्द्रीय विधाान सभा में सदस्यों की संख्या 145 निर्धाारित की गई (104 निर्वाचित तथा 41 मनोनीत, मनोनीत सदस्यों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय)।
द्विसदनीय केन्द्रीय विधाान मंडल को पर्याप्त शक्तियां दी गई। यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी।
सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी। प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पर कोई रोक नहीं थी। सदस्यों को बोलने का अधिाकार तथा स्वतं=ता थी।
इस विधोयक के तहत प्रांतों में द्वैधा शासन प्रणाली लागू की गई।
प्रांतीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - आरक्षित तथा हस्तांतरित।
आरक्षित विषयों पर प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था जिन्हें वह मनोनीत करता था।
हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल निर्वाचित सदस्यों के द्वारा करता था।
1919 के अधिानियम के द्वारा पंजाब में सिक्खों को कुछ प्रांतों में यूरोपीयनों, एंग्लों इंडियन को पृथक प्रतिनिधिात्व दिया गया।
इस अधिानियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गई और मताधिाकार 3 प्रतिशत से बढाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया।
भारत शासन अधिानियम 1935
सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गई।
संघ के अधाीन तीन इकाइयां रखी गई थीं
क) ब्रिटिश भारतीय प्रांत ख) चीफ़ कमीश्नरों के प्रांत
ग) देशी रियासतें
इस अधिानियम द्वारा प्रांतों में द्वैधा शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैधा शासन लागू किया गया।
संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया - संरक्षित और हस्तांतरित।
संरक्षित विषय - प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धाार्मिक विषय और जनजातीय मामले।
इस अधिानियम की सबसे बड़ी विशेषता प्रांतीय स्वायतता की स्थापना थी।
इस अधिानियम के अन्तर्गत प्रांतीय विधाान मंडलों का विस्तार किया गया।
इस अधिानियम द्वारा बर्मा को भारत से पृथक कर दिया गया।
दो नए प्रांतों सिंधा तथा उडीसा का निर्माण हुआ, प्रशासन के लिए बरार को मधय प्रांत का अंग बना दिया गया।
गवर्नर जनरल के सभी कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह से होते थे। इंडिया कौंसिल का अन्त कर दिया गया।
मताधिाकार का विस्तार किया गया, प्रांतों के करीब 11 प्रतिशत जनता को मतदान का अधिाकार दिया गया।
1935 के अधिानियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया -
1- संघ सूची 2- प्रांतीय सूची
3- समवर्ती सूची
संघ सूची में 59 विषय थे, प्रांतीय सूची में 54 विषय थे तथा समवर्ती सूची में 36 विषय थे।
अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनाएगा।
इस अधिानियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
संघीय न्यायालय के विरूद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा कसती थी। संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिाकारिता प्राप्त थी।
प्रारंभिक, अपीलीय, तथा परामर्शदा=ी।
प्रारंभिक अधिाकारिता के अन्तर्गत संघीय न्यायालय संविधाान के उपबंधाों का निर्वाचन करता था या उससे संबंधिात विवादाेंं का।
अपीलीय अधिाकारिता के अन्तर्गत संघ न्यायालय भारत स्थित उच्च न्यायालयों के विनिश्चयों से अपील की सुनवाई करता था।
संघीय न्यायालय को सिविल तथा दांडिक मामलों में अपीलीय अधिाकारिता नहीं दी गई।
परामर्शदा=ी अधिाकारिता के अन्तर्गत गवर्नर जनरल को विधिा एवं तथ्य के किसी विषय पर सलाह देने का अधिाकार प्राप्त था।
नेहरू ने 1935 के अधिानियम के बारे में कहा कि ‘यह अनेक ब्रेकों वाला इंजन रहित गाड़ी के समान है।’