Tuesday, 12 July 2016

सशक्तिकरण नहीं, सहजता का मसला notes for public administration in hindi( हिन्दी में लोक प्रशासन के लिए नोट)


                           सशक्तिकरण नहीं, सहजता का मसला


चार सौ साल पुरानी मान्यता को खत्म करते हुए महिलाओं ने पहली बार शनि शिंगणापुर मंदिर में पूजा की.
इस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के प्रतिबंधित होने को लेकर मुंबई हाईकोर्ट ने हाल ही में निर्णय दिया, कि किसी भी मंदिर में जाकर पूजा करना महिलाओं का बुनियादी अधिकार है. अदालत के इस निर्णय के बाद मंदिर के ट्रस्ट ने भी इस मंदिर में महिलाओं का प्रवेश स्वीकार किया.
शनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के आंदोलन के साथ ही, मुस्लिम महिलाओं के एक समूह द्वारा मुंबई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की मांग भी सामने आई. मुस्लिम महिलाओं का कहना है कि दरगाह में जा सकने का फैसला इस्लाम धर्म का नहीं है, यह पितृसत्तात्मक फैसला है. संविधान पूजा के समान अधिकार की बात करता है और इस्लाम संविधान का सम्मान करता है.मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने वाला एक समूह, हाजी अली दरगाह के ट्रस्ट के साथ दरगाह के भीतर जाने को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ रहा है. मंदिर में महिलाओं को मिले पूजा के हक को बहुत अलग-अलग तरह से देखा जा रहा है.
कुछ का मानना है कि यह भारतीय संस्कृति पर हमला है. तो कुछ का मानना है कि इससे महिलाओं का सशक्तिकरण होगा. कुछ के मन में सवाल है कि यदि मंदिर में स्त्रियां जा सकती हैं तो, मस्जिद में भी स्त्रियों के जाने के हक पर भी बात होनी चाहिए. हाल के समय में स्त्रियों के मुद्दों से जुड़ी हर बात को अक्सर उनके सशक्तिकरण से जोड़कर देखने का चलन सा है. इस सोच ने महिला सशक्तिकरण के नारे को कुछ मशीनी-सा बना दिया है. असल में मंदिर में जाकर पूजा करने का महिला सशक्तिकरण से कुछ लेना-देना है ही नहीं. अपनी तरह से आस्था प्रकट करना एक बेहद बुनियादी हक है.
जीवन की बहुत सारी चीजें सशक्त या अशक्त होने से नहीं, बल्कि सहजता से ज्यादा जुड़ी हैं. मनचाही चीज को खाने का सुख, मनचाही जगह जाने का सुख, मनचाहे व्यक्ति से मनचाही बात करने का सुख, मनचाहा पढ़ने का सुख, मनचाहा खाने और पहनने का सुख, मनचाहा दिखने का सुख, मनचाही अभिव्यक्ति का सुख, मनचाही आस्था प्रकट करने का सुख..इस तरह की बुनियादी चीजें तो किसी को सशक्त बनाती हैं, ही अशक्त. हां, लेकिन इन छोटी-छोटी चीजों में जिंदा होने का बुनियादी अहसास मिलता है. स्त्रियों के जीवन में देह, दिमाग, व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन से जुड़ी असहजताओं का अंबार है. मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति को छूकर पूजा करना, इतने बड़े जीवन में बेहद मामूली-सा हक है.
पर, यह स्त्रियों, दलितों हाशिये पर जी रहे अन्य बहुत-से तबकों के जीवन की क्रूर विडंबना है कि उन्हें अपने मामूली से हक भी इतने लड़-झगड़ कर मिलते हैं. मंदिर में प्रवेश के हक मिलने से ज्यादा बड़ी खुशी और उत्साह की बात यह है, कि धीरे-धीरे स्त्रियों को अपनी सहजताओं के छिने होने का अहसास हो रहा है. मंदिर में प्रवेश के हक के लिए लड़ रही और उन्हें समर्थन दे रही स्त्रियों से एक सवाल यह है कि क्या वे पीरियड्स के दौरान अपने घर के मंदिरों में प्रवेश करती हैं? यदि नहीं तो, इसका मतलब है कि वे सिर्फ अपने सार्वजनिक जीवन की असहजता के प्रति इतनी ज्यादा जागरूक हैं, लेकिन व्यक्तिगत जीवन की अहसजता के प्रति हद दज्रे की लापरवाह और असंवेदनशील हैं.

मंदिर में प्रवेश का यह संघर्ष तब कहीं और ज्यादा बड़ा होता, जब स्त्रियों को पीरियड्स के दौरान अपने घर के मंदिर में प्रवेश करने की चुनौती देता. इसके लिए किसी पुजारी से या अदालत से भी नहीं टकराना है, बल्कि भीतर बैठी सदियों की जड़ता, अतार्किकता और पीरियड्स के बारे में खुद की असहजता से लड़ना है. यदि आप मंदिर प्रवेश के लिए हिंदू कट्टरपंथियों के सभ्यता और संस्कृति संबंधी कुतकरे की धज्जियां उड़ा रही हैं, तो आपको पीरियड्स के दौरान अपने घर के मंदिर में प्रवेश करने के लिए उन्हीं कुतकरे की आड़ नहीं चाहिए... सभ्यता-संस्कृति के इस लैंगिक दृष्टि से अवलोकन ने अनजाने में मुल्ले-मौलवियों और पंडे-पुजारियों को एक मंच पर खड़ा कर दिया है. शनि मंदिर और हाजी अली दरगाह में स्त्रियों के प्रवेश के हक से जुड़े आंदोलन साफ संकेत दे रहे हैं कि अब स्त्रियां जीवन की असहजताओं के प्रति जागरूक हो रही हैं. आने वाले समय में सहजता से जुड़े ऐसे कई आंदोलनों का बीड़ा स्त्रियां उठा सकती हैं और उन्हें उठाने चाहिए.

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