वुडरो विल्सन
वुडरो विल्सन
(अंग्रेज़ी: Woodrow Wilson) (१८५६-१९२४) अमेरिका के २८ वें राष्ट्रपति थे। विल्सन को लोक प्रशासन के
प्रकार्यों की व्याख्या करने वाले अकादमिक विद्वान, प्रशासक, इतिहासकार, विधिवेत्ता और राजनीतिज्ञ के रूप में जाना जाता
है।
जीवनी
वुडरो विल्सन का
जन्म २८ दिसम्बर १८५६ को अमेरिका के वर्जीनिया प्रांत में हुआ था। उन्होंने
प्रिन्सटन विश्वविद्यालय से राजनीति, प्रशासन और विधि का अध्ययन करते हुए १८७९ में स्नातक की
उपाधि प्राप्त की। प्रिन्सटन विश्वविद्यालय से ही १८८६ में विल्सन ने पीएच. डी. की
उपाधि प्राप्त की। उनकी पहली रचना कांग्रेसी सरकार (Congressional
Government) १८८४ में प्रकाशित हुई।[1]
विल्सन १८८६ से लेकर १९०२
तक राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रहे। १९०२ से १९१० तक की अवधि में वे प्रिन्सटन
विश्वविद्यालय के अध्यक्ष (President) के पद पर रहे।[2]
राजनीतिक
जीवन[संपादित करें]
विल्सन को १९१०
में न्यू जर्सी राज्य का गवर्नर चुना गया। १९१२ में विल्सन को अमेरिका का २८ वाँ
राष्ट्रपति[3] चुना गया। वे ८
वर्षों तक अमेरिका के राष्ट्रपति के पद रहने के बाद सेवानिवृत्त हो गये। १९१९ में
विल्सन को शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। १९२४ में मस्तिष्क आघात (cerebral
haemorrhage) से उनका निधन हो
गया।[4]
वुडरो विल्सन ने
स्वप्न में भी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन वह संयुक्त राज्य अमेरिका का
राष्ट्रपति बनेगा। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो इस पद पर राजनीतिक अपरिपक्वतापूर्ण
व्यक्तित्व से पहुंचे होंगे। लेकिन राष्ट्रपति बनने के पश्चात् किसी ने इतनी
दृढ़ता, सूझबूझ, राष्ट्र-निर्माण की दक्षता एवं
कर्त्तव्य-परायणता से कार्य नहीं किया होगा, जितना शान्ति के मसीहा विल्सन ने। एक
भविष्यदृष्टता और आदर्शवादी होते हुए भी वह लिंकन के बाद सबसे अच्छा अधिक
यथार्थवादी और निपुण राजनीतिक नेता था। परन्तु 1913 में कोई भी यह नहीं जानता था कि विल्सन महान
व्यक्ति बनेगा। कोई नहीं जानता था कि विल्सन द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका को
प्रथम विश्वयुद्ध में भाग न लेने के सभी प्रयत्नों के बावजूद भी उस राष्ट्र को
युद्ध में निर्णायक भाग लेना होगा। कोइ नही जानता था कि वह अटलाण्टिक के उस पार
जाकर विश्व को स्थायी शान्ति देने का प्रयास करेगा और उसके प्रयत्न कुछ यूरोपीय
राजनीतिज्ञों की स्वार्थपरायणता और घरेलू तुच्छ विरोधों की वेदी पर नष्ट होंगे।
किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने ही आदर्शों एवं योजनाओं को अपने ही लोगों द्वारा
निर्दयतापूर्वक निरस्त एवं पराजित होते हुए नहीं देखा होगा।
विल्सन राजनीति
शास्त्र का प्राध्यापक था। अतएव वह चिंतक था। उसने अमेरिकी प्रशासन पर विशद्
ग्रन्थ लिखे थे। उसका विचार था कि कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका में शक्ति के
बंटवारे से शासन में सामंजस्य नहीं हो पाया। अतएव उसकी इच्छा थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति
को इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री की भांति शक्तिशाली होना चाहिये। जब वह राष्ट्रपति
बना तो उसने निःसन्देह अपने विचारों को कार्यान्वित कर राष्ट्रपति की शासन का
शक्तिशाली केन्द्र-बिन्दु बनाया। उसमें साहसिक निर्भीकता, निरुत्तर कर देने वाली निष्कपटता थी। उसका
विश्वास था कि सात्विक कार्यों की सदैव विजय होगी और सत्य के प्रतिनिधियों को
असत्य, अविवेक एवं
आडम्बर से समझौता नहीं करना चाहिये। अपने शासनकाल के आरम्भिक वर्षों में ही उसने
सम्पूर्ण जनता का ध्यान आकर्षित कर लिया। उसने सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन में समर्पण,
त्याग एवं नैतिकता की
भावना को प्रेरित किया। लेकिन स्वयं की सात्विकता एवं उद्देश्यों के प्रति उसमें
इतना गर्व कर गया कि वह सोचने लगा कि जो उसका विरोध करते थे वे ईश्वर का विरोध कर
रहे थे। उसमें लिंकन की विनम्रता का अभाव था। अपने चुनाव अभियान में उसने पूर्व के
अनुदारवादी विचारों को त्यागकर प्रगतिवाद का नारा दिया था। राष्ट्रपति बनने के बाद
उसने अपने व्यक्तित्व में समझौतावादी जीवन ग्रहण नहीं किया, हालांकि राष्ट्रपति पद के नामांकन के लिए उसने
उस ब्रायन की भी बहुत प्रशंसा की थी जिसके सम्बन्ध मेंं उसकी धारणा यह थी कि ‘उसे कचरे में फैंक देना चाहिए।’ वस्तुतः उसके व्यकितत्व में अनेक गुणों का
सम्मिश्रण था। वह खुशामद पसन्दगी की एवं विनम्र घूसखोरी की कला से परिचित था,
लेकिन साथ ही वह गहरी
नैतिकता, दया एवं
संवेदनशील वृत्ति का भी था। वह अच्छे-बुरे की पहचान रखता था। उसमें ‘पूर्व विमान’ (Old Testament), प्लेटो के ‘दार्शनिक राजा’ एवं मैकियावली के ‘राजकुमार’ (प्रिंस) के तत्त्वों का समावेश था। लिंकन की
भांति वह समय के साथ अपने उत्तरदायित्व के योग्य सिद्ध हुआ।
प्रथम विश्वयुद्ध
एवं लीग आफ नेशन्स
विल्सन शान्ति के
राजनय में विश्वास करता था, मतभेदों को वार्ता के राजनय द्वारा सुलझाने का पक्षधर था। वह आदर्शवादी था। जब
दूसरी बार वह राष्ट्रपति चुना गया तब उसे इस बात की गम्भीर चिन्ता थी कि विश्व की
तनावपूर्ण स्थिति को देखते हुए अमेरिका को तटस्थता के पायदान पर नहीं रखा जा सकता
था। विल्सन शान्ति का समर्थक था। वह अच्छी तरह जानता था कि विश्व युद्ध में
अमेरिकी प्रदेश से अमरीकियों की विचारधारा, दर्शन एवं साहित्य पर युद्धप्रियता का भारी
प्रभाव पड़ेगा। विल्सन ने अमेरिकी प्रस्तावों को शान्ति के लिए प्रस्तुत किया
जिन्हें यूरोपीय शक्तियों ने अस्वीकार कर दिया। अमेरिका ने तटस्थता की घोषणा की। 4 सितम्बर 1914 को कांग्रेस के नाम अपने राजनयिक सन्देंश में
विल्सन ने कहा कि-”यह स्थिति हमारे
द्वारा निर्मित नहीं है लेकिन यह हमारे सामने है। यह हमें प्रत्यक्ष रूप से
प्रभावित करती है मानो हम उन परिस्थितियों के भागीदार हैं जिन्होंने इसे जन्म दिया
है। हम इसका भुगतान करेंगे यद्यपि हमने जानबूझकर इसे जन्म नहीं दिया है।“ अमेरिका महायुद्ध से अछूता नहीं रह सकता था फिर
भी 1914 में कोई अमेरिकी
नहीं जानता था कि उन्हें युद्ध में संलग्न होना पड़ेगा। जब जर्मनी की यू-बोटों (U-Boats)
ने अनियन्त्रित युद्ध
शुरु कर दिया तो जर्मनी के विरुद्ध अन्तिम शक्तिशाली तटस्थ देश अमेरिका भी युद्ध
में प्रविष्ट हो गया। विल्सन ने 2 अप्रैल 1917 को कांग्रेस को
अपना प्रसिद्ध सन्देश भेजा, जिसमें उसने अपने देश को सलाह दी कि यह युद्ध में प्रवेश करे और विश्व को
लोकतन्त्रीय शक्तियों की रक्षा करे। उक्त सन्देश में उसने कहा, ”जिन सिद्धान्तों को हम हृदय से चाहते हैं,
उनकी रक्षार्थ हम अवश्य
लड़ेगे। हम लोकतन्त्र की रक्षा करेंगे। हम उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करेंगे
जो किसी न्यायपूर्ण सत्ता का आदर करते हैं और इस प्रकार अनुशासन में रहकर अपने
शासन में कुछ अधिकार चाहते हैं। हम सभी छोटे देशों और राष्ट्रों के अधिकारों और
स्वतन्त्रताओं की आवश्यक रक्षा करेंगे। हम अवश्य चाहेंगे कि सारे संसार में
स्वतन्त्र लोगों को न्यायपूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त रहे जिससे सभी देशों में शान्ति
और सुरक्षा बनी रहे और इस प्रकार सारा विश्व स्वतन्त्र रहे। आज अमेरिका के सौभाग्य
से वह दिन आ गया है जबकि हमारे नागरिक अपना रक्त और अपनी शक्ति उन सिद्धान्तों की
रक्षार्थ व्यय करेंगे जिनके आधार पर अमेरिका का जन्म हुआ था, जिनके आधार पर अमेरिका को सुख और समृद्धि
प्राप्त हुई थी तथा वह अमूल्य शान्ति प्राप्त हुई जिसे वह अत्यन्त महत्व की दृष्टि
से देखता आया है।“
शान्तिप्रिय
विल्सन विवश था। अमेरिका के भविष्य के लिए यह अत्यन्त महत्व की बात थी कि उसे ऐसा
व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में मिला था जिसने इस युद्ध के आधार को ‘मोक्ष और सुधार की संज्ञा’ में परिणत कर दिया। 17 जनवरी 1917 के भाषण का एक अंश उसकी सम्पूर्ण मानवता के
प्रति संवेदनशील विचारों को अभिव्यक्त करता है-”बिना किसी पक्ष की विजय के शान्ति, प्रत्येक जाति के लिए आत्म-निर्णय का सिद्धान्त,
सामूहिक, स्वतन्त्रता, अस्त्र-शस्त्रों का परिसीमन, उलझाने वाली सन्धियों का उन्मूलन तथा आक्रमण की
रोक के लिए सामूहिक संरक्षण की व्यवस्था।“ 2 अप्रैल को विल्सन ने देश की सर्वोच्च
प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस के सामने उपस्थित होकर युद्ध की घोषणा करने की अनुमति
मांगी। ”इस महान
शान्तिपूर्ण जनता को युद्ध की ओर-जो सबसे अधिक भयानक और विध्वंसक युद्ध है।.ले
जाना भयानक बात है। सभ्यता स्वयं भी संकट के पलड़े में झूल रही है किन्तु न्याय
शान्ति की अपेक्षा मूल्यवान है ओर हम ऐसी वस्तुओं के लिए लड़ेंगे जो हमें अत्यधिक
प्रिय रही हैं। लोकतन्त्र के लिए, ऐसे लोगों के अधिकारों के लिए जो शासन का इसीलिए मान करते हैं कि अपनी सरकार
में उनकी सुनवाई हो, छोटे राष्ट्रों
के अधिकारों और स्वतन्त्रता के लिए लोगों को ऐसे संगठनों द्वारा विश्व के न्याय
शासन के लिए जो सभी राष्ट्रों को शान्ति और सुरक्षा दिलाए और अन्त में सर्व विश्व
को स्वतन्त्र बन सकें। ऐसे ही लोक कार्य को अपना जीवन और अपना सर्वस्व समर्पित कर
सकते हैं। इस अभियान के साथ कि वह दिन आ गया है, जब अमेरिका का अपरा रक्त और शक्ति, अपने सिद्धान्तों के लिए जिन्होंने उसे जन्म और
सुख-शान्ति दी है, जिसे उसने
सुरक्षित रखा है, खर्च करनी चाहिए
यानि ईश्वर की कृपा रही तो वह इसके अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकता।“
युद्ध के पश्चात्,
चाहे विल्सन को पराजय का
सामना करना पड़ा हो और चाहे नाममात्र के वास्तविकतावादियों ने उसकी कटु आलोचना की
हो, उसका भाषण अमेरिकी इतिहास
एवं राजनीति को मोड़ देने वाला था। उनके हृदय से निकलने वाले शब्द इतने मार्मिक थे
कि सारा राष्ट्र उसकी आवाज पर तानाशाही पर प्रजातन्त्र की बर्बरता पर सभ्यता की
विजय के लिए युद्ध में कूद पड़ा। समुद्र पार के देशों में वह न केवल एक अद्वितीय
महापुरुष के रूप में प्रकट हुआ, न केवल एक शक्तिशाली राष्ट्र के नेता के रूप में पहचाना जाने लगा, जो विश्व में शान्तिप्रिय, सुखद व व्यवस्थित जीवन की रक्षा के लिए अवतरित
हुआ हो।
नेविन्स एवं
कौमेजर के शब्दों में- ” 'शक्ति अधिकाधिक शक्ति, शक्ति बिना किसी रुकावट या सीमा के' यह वचन राष्ट्राध्यक्ष विल्सन ने दिया था और राष्ट्र
हठवादिता को थोपने में सफलता प्राप्त की। इस वचन की पूर्ति के लिए अविलम्ब कार्यरत
हो गया। इसके पूर्व की किसी सरकार ने युद्ध में इससे अधिक बुद्धिमानी ओर
कार्यक्षमता नहीं दिखलाई थी। इसके पूर्व अमेरिकावासियों ने भी ऐसी स्फूर्ति,
साधन-सम्पन्नता और
आविष्कार बुद्धि का प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं किया था।“ ‘बिना विजय की शांन्ति’ युद्ध का नारा बन गया था।
युद्ध-विराम
सन्धि के पश्चात् विल्सन जब अपने सचिव की सलाह न मानकर दिसम्बर, 1918 में पेरिस शान्ति सम्मेलन में पहुंचा तो उसका ‘शान्ति के मसीहा’ के रूप में स्वागत हुआ। यूरोप में उस समय यह
भावना विद्यमान थी कि केवल विल्सन ही ऐसा व्यक्ति है जो विभिन्न राष्ट्रों के
राग-द्वेष और उनकी ईर्ष्या-भावना से ऊपर उठा हुआ एवं मानवता का रक्षक है। अतः जब
यह दार्शनिक राजा अपने सिद्धान्तों की पुस्तिका हाथ में लेकर सैनिक-शक्ति से लैस,
सन्धि की शर्तें
निर्धारित करने आया तो यूरोप की जनता ने उसके सम्मान में हृदय खोल दिया। सभी देशों
में उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। जब वह पेरिस पहुंचा तो फ्रांसीसी उसे देखकर
आनन्द-विभोर हो उठे। सड़कों पर अपार जन-समूह ने उसकी स्तुति की और अखबारों ने उसके
गुणगान किए। वास्तव में सभी की आंखें उसकी ओर लगी थीं। विजयी न्याय की, विजित दया की और सामान्य जन-शक्ति की आशा करते
थे।
विल्सन इस
सम्मेलन में शान्ति का दीप बनकर आया था। वह नहीं चाहता था कि पेरिस सम्मेलन 1815 के वियना कांग्रेस जैसे निहित स्वार्थों का गढ़
बन जाये। परन्तु वह अन्दाज नहीं लगा पाया था कि विजेता राष्ट्रों में स्वार्थ की
गन्ध रहती है और यदि वह अन्य तथ्यों को ध्यान में रखता तो वह उस जाल या धोखे से बच
जाता जिसमें वह स्वयं अपने आदर्शवाद के कारण बुरी तरह उलझ गया। उसके पवित्र
उद्देश्य विजेता राष्ट्रों की सत्ता-पिपासा के आगे भस्मसात हो गये। विल्सन ने अपने
विचारों को प्रसिद्ध 14 सूत्रों (Fourteen Points) के रूप में प्रस्तुत किया। उसके 14 सूत्रों में प्रथम सूत्र यही था कि शान्ति के समझौते
सार्वजनिक रूप से किये जायेंगें, कोई गुप्त समझौता नहीं होगा। इन सिद्धान्तों की मित्रराष्ट्रों के
राजनीतिज्ञों ने भी सराहना की थी। उनके पास युद्धोत्तर समस्याओं का समाधान करने के
लिए उपरोक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त और क्या था ? और पराजित राष्ट्रों ने भी इन सिद्धान्तों के
प्रति अपनी सहमति प्रकट की परन्तु आदर्शों एवं सिद्धान्तों की अन्ततः शक्ति-पूजक
राष्ट्रों के सामने कुछ न चल सकी। इस सम्मेलन में भी राष्ट्रवादी विचारों, व्यक्तिगत स्वार्थों का बोलबाला रहा, जिनका वियना कांग्रेस (1815) में प्राधान्य रहा था। फ्रांस का क्लेमेंसी और
इंग्लैण्ड का लॉयड दोनों ने ही विल्सन पर अपनी हठवादिता को थोपने में सफलता
प्राप्त की। आर0बी0 मोबात ने ‘यूरोपियन डिप्लोमेसी’ में लिखा है कि ”क्लेमेंसो प्रातःकाल यह वाक्य दुहराया करता था-
मैं राष्ट्रसंघ (League of Nations) की स्थापना का समर्थन करूंगा।“ किन्तु इटली के ओरलैण्डो से जब एक बार पूछा गया
कि राष्ट्रसंघ के बारे में आपका क्या मत है तो उत्तर दिया था कि ”हम निःसन्देह राष्ट्रसंघ की स्थापना का स्वागत
करेंगे किन्तु फ्यूम (Fiums) का प्रश्न तय किया जाना चाहिये।“ विल्सन सम्पूर्ण सम्मेलन में अकेला पड़ गया था। वियना
कांग्रेस के पश्चात् यूरोप में इस प्रकार इतने विशाल पैमाने पर विश्व स्तर का कोई
सम्मेलन नहीं हुआ था।
प्रिन्सटन में
राजनीति-दर्शन का यह भूतपूर्व प्रोफेसर एक प्रतिभाशाली वक्ता तथा आदर्शवादी विचारक
था। वह कठोर विश्वासों का व्यक्ति था जिसमें राजनीतिक दूरदर्शिता तो उच्च कोटि की
थी, लेकिन इतनी कूटनीतिक योग्यता
नहीं थी कि वह अन्य प्रतिनिधियों को पराजित राष्ट्रों के साथ उदार व्यवहार के लिए
तैयार कर सके। स्टेन्नार्ड बेकर के शब्दों में ”जिस किसी ने भी उसको (विल्सन को) काम करते देखा,
उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई
कि वह विल्सन के समक्ष अथवा उसकी पीठ पीछे निन्दा करने का साहस करता।“ विल्सन का यह विश्वास था कि राष्ट्रसंघ की
स्थापना से ही मानव जाति की रक्षा हो सकती है, अतः वह इसे सब शान्ति-सन्धियों का अनिवार्य अंग
बनाना चाहता था। किन्तु वह मानसिक दृष्टि से लॉयड जॉर्ज तथा क्लेमेंसो के समान
कुशाग्र नहीं था और अपने पूर्व-निर्धारित विचारों पर विशेष रूप से भरोसा रखता था,
अतः वह कूटनीति के
क्षेत्र में और राजनीतिक सौदेबाजी के नौसिखिया सिद्ध हुआ। उसके आदर्शवाद और
राष्ट्रसंघ की स्थापना के अत्यधिक उत्साह का दूसरे देशों ने पूरा लाभ उठाया। अन्य
देश राष्ट्रसंघ के निर्माण की बात मान लें, इसके लिए विल्सन सब कुछ त्यागने के लिए तैयार
था, यहां तक कि राष्ट्रसंघ के
लिए वह अपने 14 सूत्रों के अनेक
सिद्धान्तों की अवहेलना करने के लिए भी तैयार हो गया। पाल बर्डसल (P .
Birdsall) के कथनानुसार वह
क्षतिपूर्ति की समस्या के अतिरिक्त अन्य सभी प्रश्नों पर ब्रिटेन, फ्रांस और जापान से राष्ट्रसंघ के नाम पर
प्रायः अपनी अधिकांश बातें मनवाने में सफल हुआ। चीनी जनता द्वारा बास हुआ
शाण्टुङ्ग का प्रदेश विल्सन के आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के आधार पर चीन को मिलना
चाहिये था, किन्तु विल्सन ने
राष्ट्रसंघ की स्थापना के लिए अन्य महाशक्तियों का सहयोग प्राप्त करने की इच्छा से
इसे जापान को देने का निर्णय किया। यह निर्णय स्वयंमेव विल्सन द्वारा अपने
सिद्धान्तों पर कुठाराघात था। फिर भी, पेरिस-सम्मेलन में यदि पराजितों के साथ थोड़ी नरमी बरती गई
तो वह विल्सन के कारण ही। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि यदि विल्सन सम्मेलन में न
होता तो लॉयड जॉर्ज और क्लेमेंसो न जाने क्या से क्या कर देते। विल्सन ही उनकी
असीम आकांक्षाओं पर अंकुश लगाता रहा। यदि विल्सन न होता तो फ्रांस जर्मनी का
नामोनिशान मिटाकर ही दम लेता।
विल्सन के दो
उद्देश्य थे। प्रथम न्यायपूर्ण समझौता जिसके अनुसार आत्म-निर्णय के सिद्धान्त पर
राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण हो ताकि परस्पर शान्ति स्थापित हो सके। द्वितीय,
राष्ट्रसंघ की स्थापना।
पहले उद्देश्य में वह सफल नहीं हुआ क्योंकि जो शान्ति की गई वह थोपी हुई शान्ति थी
न कि आत्म-निर्णय के आधार पर या समझौता-वार्ता की शान्ति। परन्तु उसे दूसरे
उद्देश्य में सफलता प्राप्त हुई। राष्ट्रों के संघ का विचार मौलिक नहीं था और कई
देशों में कई लोगों ने इस विचार को स्पष्ट करने में योगदान दिया था, किन्तु जिस राष्ट्रसंघ (League of
Nations) की अन्तिम रूप से स्थापना
की गई थी वह विल्सन की ही सृष्टि थी और उसके आदर्शों का मन्दिर था। कुछ विद्वानों
का विचार है कि विल्सन ने स्वयं पेरिस में आकर एक भारी भूल की। यदि वह वाशिंगटन
में रह कर ही अमेरिकन प्रतिनिधियों को आदेश देता रहता तो बहुत सम्भव था कि उसका
प्रभाव अधिक व्यापक होता, पर विल्सन को सर्वाधिक चिन्ता राष्ट्रसंघ की थी और उसकी अभिलाषा थी कि विश्व
संस्था के विधान का निर्माण वह स्वयं करे। वास्तव में यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा
कि जहाँ सम्मेलन में उसकी उपस्थिति स्वयं सम्मेलन के लिए हितकर न रही, वहां अपने देश से दूर होकर वह अमेरिकी जनता से
भी सम्पर्क स्थापित न रख सका जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उसके द्वारा पोषित
राष्ट्रसंघ को उसके स्वयं के देश ने ही अस्वीकार कर दिया। अमेरिकन सीनेट ने विल्सन
के राष्ट्रसंघ की सदस्यता के प्रस्ताव को नहीं माना। 1918 में कांग्रेस के चुनावों में विल्सन विरोधी
रिपब्लिकन दल को कांग्रेस के दोनों सदनों में बहुमत प्राप्त हो गया और सीनेट ने
राष्ट्रसंघ के विधान एवं वर्साय की सन्धि को स्वीकार करने के मसविदे को रद्द कर
दिया। यह मानवता के एक महान पैगम्बर का दुःखमय पराभव था।
लोक प्रशासन
संबंधी विचार[संपादित करें]
मुख्य लेख : लोक
प्रशासन
वुडरो विल्सन का
मानना था कि लोक प्रशासन को राजनीति से पृथक होना चाहिेए। उन्हें सामान्य तौर पर
प्रशासन और राजनीति में विभाजन को रेखांकित करने के कारण याद किया जाता है। विल्सन
के अनुसार किसी संविधान की रचना तो आसान है किंतु उसको क्रियान्वित करना कठिन है।
उन्होंने क्रियान्वयन के क्षेत्र के अध्ययन पर विशेष बल दिया। अपने निबन्ध स्टडी
ऑफ ऐडमिनिस्ट्रेशन (Study of Administration) में विल्सन ने राजनीति और प्रशासन के
अंतरसंबंधों पर चर्चा करते हुए लिखा था कि, प्रशासन राजनीति के विषय क्षेत्र के बाहर है।
प्रशासनिक समस्याएँ राजनीतिक समस्याएँ नहीं होती हैं। यद्यपि राजनीति, प्रशासन के कार्य व स्वरूप निर्धारित कर सकती
है फिर भी उसको यह अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए कि वह प्रशासनिक पक्षों के बारे
में हेर-फेर कर सके।[5][6] प्रशासन को राजनीति से स्वतंत्र करते हुए वुडरो विल्सन ने उसे एक विषय के रूप
में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
अफसरशाही
किसी बड़ी संस्था
या सरकार के परिचालन के लिये निर्धारित की गयी संरचनाओं एवं नियमों को समग्र रूप
से अफसरशाही या ब्यूरोक्रैसी (Bureaucracy) कहते हैं। तदर्थशाही (adhocracy) के विपरीत इस तंत्र में सभी प्रक्रियाओं के
लिये मानक विधियाँ निर्धारित की गयी होती हैं और उसी के अनुसार कार्यों का
निष्पादन अपेक्षित होता है। शक्ति का औपचारिक रूप से विभाजन एवं पदानुक्रम (hierarchy)
इसके अन्य लक्षण है।
यहसमाजशास्त्र का प्रमुख परिकल्पना (कांसेप्ट) है।
अफरशाही की
प्रमुख विशेषताएँ ये हैं-
1. कर्मचारियों एवं अधिकारियों के बीच अच्छी
प्रकार से परिभाषित प्रशासनिक कार्य का विभाजन
2. कर्मियों की भर्ती एवं उनके कैरीअर की
सुव्यवस्थित एवं तर्कसंगत तंत्र
3. अधिकारियों में पदानुक्रम, ताकि शक्ति एवं अधिकार का समुचित वितरण हो,
तथा
4. संस्था के घटकों को आपस में जोड़ने के लिये
औपचारिक एवं अनौपचारिक नेटवर्क की व्यवस्था, ताकि सूचना एवं सहयोग का सुचारु रूप से बहाव
सुनिश्चित हो सके।
कुछ उदाहरण
सरकार, सशस्त्र सेना, निगम (कारपोरेशन), गैर-सरकारी संस्थाएँ, चिकित्सालय, न्यायालय, मंत्रिमण्डल, विद्यालय आदि
परिचय[संपादित
करें]
नौकरशाही
कार्मिकों का वह समूह है जिस पर प्रशासन का केंद्र आधारित है। प्रत्येक राष्ट्र का
शासन व प्रशासन इन्हीं नौकरशाहों के इर्द–गिर्द घूर्णन करता दिखाई देता है। 'नौकरशाही' शब्द जहाँ एक ओर अपने नकारात्मक अर्थों में
लालफीताशाही, भ्रष्टाचार,
पक्षपात, अहंकार, अभिजात्य उन्मुखी, अपनी प्रकृति के लिए कुख्यात है तो दूसरी ओर
प्रगति, कल्याण, सामाजिक परिवर्तन एवं कानून व्यवस्था व सुरक्षा
के सं वाहक के रूप में भी जाना जाता है।
शासन की धूरी इस
नौकरशाही पर व्यापक रूप से शोध–अनुसंधान व विमर्श हुए हैं। वैबर , मार्क्स , बीग, ग्लैडन, पिफनर आदि विद्वानों ने इसको परिभाषित करते हुए
इसकी अवधारणा अर्थ को समझाते हुए विश्लेषण अध्ययेताओं के समक्ष प्रस्तुत किया है।
विश्व में
नौकरशाही अलग–अलग शासनों में
अलग–अलग रूपों में व्याप्त
है। जैसे संरक्षक नौकरशाही, अभिभावक नौकरशाही, जाति नौकरशाही, गुणों पर आधारित
आदि।
परिभाषित दृष्टि
से नौकरशाही शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द 'ब्यूरो' से बना है जिसका अभिप्राय 'मेज प्रशासन' अर्थात् ब्यूरो
अथवा कार्यालयों द्वारा प्रबन्ध। नौकरशाही अपनी भूमिका के कारण इतनी बदनाम हो गई
है कि आज इसका अभिप्राय नकारात्मक सन्दर्भों में प्रयुक्त किया जाने लगा है।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार यह शब्द, ब्यूरो अथवा विभागों में प्रशासकीय शक्ति के
केन्द्रित होने तथा राज्य के क्षेत्राधिकार से बाहर के विषयों में भी अधिकारियों
के अनुचित हस्तक्षेप को व्यक्त करता है। मैक्स वेबर ने नौकरशाही को प्रशासन की एक
ऐसी व्यवस्था माना है जिसकी विशेषता है , विशेषज्ञता, निष्पक्षता और मानवता का अभाव।
उपरोक्त
परिभाषाओं में नौकरशाही शब्द अपने अर्थों में अनेकार्थ कता एवं विवादास्पदता लिए
हुए है। माइकेल क्रोजियर ने ठीक ही लिखा है कि, 'नौकरशाही शब्द अस्पष्ट, अनेकार्थक और भ्रमोत्पादक है। मैक्स वेबरने
नौकरशाही के 'आदर्श रूप'
की अवधारणा पेश की है जो
कि प्रत्येक नौकरशाही में पायी जानी चाहिए। हालांकि यह आदर्श रूप अपनी यथार्थता
में कभी भी उपलब्ध नहीं होता। मैक्स वेबर के नौकरशाही के आदर्श रूप में हमें
निम्नलिखित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं , जैसे – संगठन के सभी कर्मचारियों के बीच कार्य का सुनिश्चित एवं
सुस्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है। कर्त्तव्यों को पूरा करने हे तु सत्ता
हस्तान्तरित की जाती है तथा उनको दृढ़ता के साथ ऐसे नियमों की सीमाओं में बां ध
दिया जाता है जो कि बलपूर्वक लागू किये जाने वाले उन भौतिक एवं अभौतिक साधनों से
सम्बन्धित होते हैं जो कि अधिकारियों को सौंपे जा सकते हैं। कर्त्तव्यों की नियमित
एवं निरन्तर पूर्ति के लिए अधिकारों के उपयोग की विधिपूर्वक व्यवस्था की जाती है
तथा योग्यता के आधार पर व्यक्तियों का चयन किया जाता है।
नौकरशाही
व्यवस्थाओं में पदसोपान (हाइरार्की) का सिद्धान्त लागू होता है तथा लिखित दस्तावेजों,
फाइलों, अभिलेखों तथा आधुनिक दफ्तर प्रबन्ध के उपकरणों
पर निर्भर रहा जाता है। अधिकारियों को प्रबन्धकीय नियमों में प्रशिक्षण के बाद
कार्य करने की व्यवस्था होती है।
एम.एम. मार्क्स
ने पदसोपान, क्षेत्राधिकार,
विशेषीकरण, व्यावसायिक प्रशिक्षण, निश्चित वेतन एवं स्थायित्व को नौकरशाही संगठन
की विशेषताएँ स्वीकार किया है। प्रोफेसर हेराल्ड लास्की ने नौकरशाही एक ऐसी
प्रशासनिक व्यवस्था को माना है जिसमें मेजवत कार्य के लिए उत्कण्ठा, नियमों के लिए लोचशीलता का बलिदान, निर्णय लेने में देरी और नवीन प्रयोगों का
अवरोध, रूढीवादी
दृष्टिकोण आदि बातें प्रभावशाली रहती है।
उपरोक्त विवेचन
से नौकरशाही का एक ऐसा स्वरूप हमारे सामने स्पष्ट होता है जिसमें लोकशाही के प्रति
एक गलत तस्वीर समाज के समक्ष आती है जो कि वस्तुतः सत्य भी है। आज लोकशाही का
उत्तरदायीपूर्ण एवं प्रतिनिधिपूर्ण स्वरूप शंकाओं से ग्रसित है जिसे प्राप्त करने
के लिए पुन: प्रयास करना चाहिए वरना समाज का विकास अवरूद्ध हो जायेगा।
नौकरशाही
अवधारणा[संपादित करें]
मैक्स वेबर की
नौकरशाही अवधारणा[संपादित करें]
जर्मनी के
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने नौकरशाही का विस्तृत विश्लेषण किया है।
उन्होंने नौकरशाही संगठन की कुछ प्रमुख विशेषताएँ मानी हैं –
• (1) संगठन के प्रत्येक सदस्य को कु छ विशेष
कर्त्तव्य सौंपे जाते हैं।
• (2) सत्ता का विभाजन कर लिया जाता हैं ताकि
प्रत्येक सदस्य उसे सौंपे गये कार्यों को पूरा कर सकें।
• (3) इन कार्यों का नियमित रूप से पालन करने के लिए
उचित प्रबन्ध किया जाता हैं।
• (4) संगठन की रचना पद–सोपान के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है।
• (5) लिखित अभिलेखों और दस्तावेजों को अधिक महत्व
दिया जाता है।
• (6) संगठन के आदान–प्रदान पर नियन्त्रण रखने के लिए नियमों की
रचना की जाती हैं।
अमेरिकन
एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार 'नौकरशाही' संगठन का वह रूप
है जिसके द्वारा सरकार ब्यूरो के माध्यम से संचालित होती है। प्रत्येक ब्यूरो
कार्य की एक विशेष शाखा का प्रबन्ध करता है। प्रत्येक ब्यूरों का संगठन, पद–सोपान से युक्त होता है। इसके शीर्ष पर अध्यक्ष होता है
जिसके हाथ में सारी शक्तियाँ रहती है। नौकरशाही प्राय: प्रशिक्षित व अनुभवी
प्रशासक होते है। वे बाहर वालों से बहुत कम प्रभावित होते है। उनमें एक जातिगत
भावना होती है तथा वे लालफीताशाही एवं औपचारिकताओं पर अधिक जोर देते हैं।
ड्यूबिन के अनुसार
नौकरशाही तब
अस्तित्व में आती है जबकि निर्देशन के लिए बहुत सारे लोग होते है। ज्यों–ज्यों संगठन का आकार बढ़ता है त्यों–त्यों यह जरूरी बन जाता है कि निर्देश के कुछ
कार्य हस्तान्तरित कर दिये जाये। यह नौकरशाही के उदय के लिए पहली शर्त है।
नौकरशाही का
स्वरूप प्रत्येक राष्ट्र में भिन्न होता है क्योंकि यह वहाँ के समाज की संस्थाओं
तथा मूल्यों की अभिव्यक्ति करती है। नौकरशाही की एक सामान्य विशेषता यह है कि यह
परिवर्तन का विरोध और शक्ति की कामना करती है। मैक्स वेबर ने बड़े आकार के संगठन
का एक आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। यह आदर्श (मॉडल) अनुसंधान का एक प्रभावशाली
साधन है।
एम. मार्क्स की
नौकरशाही अवधारणा[संपादित करें]
मार्क्स के
अनुसार यह शब्द मुख्य रूप से चार अर्थों में प्रयुक्त होता है , ये निम्नवत् है –
• (1) एक विशेष प्रकार के संगठन के रूप में – पिफनर ने नौकरशाही की जो परिभाषा की है वह उसे
संगठन के रूप में स्पष्ट करती है। इस अर्थ में नौकरशाही को लोक प्रशासन के संचालक
के लिए सामान्य रूपरे खा माना जाता हैं। ग्लैडन ने भी नौकरशाही को इसी रूप में
परिभाषित किया है। उन्हीं के कथनानुसार, यह एक ऐसा विनियमित प्रशासक या तन्त्र है जो अन्त:
सम्बन्धीय पदों की श्रृंखला के रूप में संगठित होता है।
• (2) अच्छे प्रबन्ध में बाधक एक व्याधि के रूप में –
'नौकरशाही' शब्द अनेक दुगुर्णों और समस्याओं का प्रतीक है।
नौकरशाही में व्यवहार का रूप कठोर, यन्त्रद्ध, कष्टमय, अमानुषिक, औपचारिक तथा आत्मारहित होता है। प्रो. लास्की
के मतानुसार, नौकरशाही में ऐसी
विशेषताएँ होती है जिनके अनुसार प्रशासन में नियमित कार्यों पर जोर दिया जाता है ,
निर्णय लेने में पर्याप्त
विलम्ब किया जाता है और प्रयोगों को हाथ में ले ने से इंकार कर दिया जाता है। ये
सब बातें संगठन के अच्छे प्रबन्ध में बाधक मानी जा सकती हैं।
• (3) बड़ी सरकार के रूप में – राज्य के कर्त्तव्य और दायित्व आज इतने विस्तृत
हो गए है कि इनको सम्पन्न करने के लिए विभिन्न बड़ी संस्थाएँ अनिवार्य मानी जाती
है। विभिन्न आर्थिक राजनीतिक एवं व्यापारिक संस्थाएँ अपने बड़े आकार के साथ ही
उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास करती है। यह बड़ा आकार नौकरशाही का मूलभूत कारण
है। पिफनर तथा प्रीस्थस के कथनानुसार जहाँ भी बडे पैमाने का उद्यम होता है वहाँ
नौकरशाही अवश्य मिलती है। वर्तमान समय में सरकार को हर प्रकार के कार्यों को इतने
विस्तृत रूप में सम्पन्न करना पड़ता है कि वह सभी को प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर
सकती। यही कारण है कि नागरिकों और मन्त्रियों के बीच एक नई प्रकार की मध्यस्थ
शक्ति उदित हो गई है। यह शक्ति उन लिपिकों की है जो राज्य के लिए पूर्णतः अज्ञात
होती हैं। ये लोग मन्त्रियों के नाम पर बोलते और लिखते हैं तथा उन्हीं की तरह
पूर्ण और निरपेक्ष शक्ति रखते है। यह अज्ञात रहने के कारण प्रत्येक प्रकार की जाँच
से बचे रहते है।
• (4) स्वतन्त्रता विरोध के रूप में – नौकरशाही का उद्देश्यस्वयं की उन्नति समझा जाता
है। लस्की के कथनानुसार, यह सरकार की एक ऐसी प्रणाली है जिसका नियन्त्रण अधिकारियों के हाथ में इतने
पूर्ण रूप से रहता है कि उनकी शक्ति को संकट में डाल देती है।
नौकरशाही के
प्रकार[संपादित करें]
मार्क्स ने
नौकरशाही को चार भागों में विभाजित किया है –
• 1. अभिभावक नौकरशाही – चीन की नौकरशाही (960 ई.) तथा प्रशा की असैनिक से वा (1640–1740)
को इस प्रकार की नौकरशाही
के उदाहरण के रूप में प्रस्तु त किया जाता है। इसके अन्तर्गत शक्तियाँ उन लोगों को
सौंप दी जाती हैं जो शास्त्रों में वर्णित आचरण से परिचित रहते हैं। ये नागरिक से
वक लोकमत से स्वतन्त्र रहने पर भी अपने आपको लोकहित का रक्षक मानते हैं।
अधिकारपूर्ण तथा अनुत्तरदायी होते हु ए भी ये कार्यकु शल , योग्य, न्यायपूर्ण एवं परोपकारी होते है।
• 2. जातीय नौकरशाही – इस प्रकार की नौकरशाही एक वर्ग पर आधारित होती
है। उब वर्गों अथवा जातियों वाले लोग ही सरकारी अधिकारी बनाए जाते है। मार्क्स के
अनुसार जब किसी पद विशेष के लिए ऐसी योग्यताएँ निर्धारित कर दी जाती है तो केवल
विशेष वर्ग को ही प्राधान्य मिलता है और नौकरशाही का यह रूप प्रकट होता है। प्रो.
विलोबी इसे कुलीनतंत्र कहते है। ब्रिटिश शासन के समय नौकरशाही का यह रूपभारत में
उपलब्ध था। एपिलबी के मतानुसार आज भी भारत में यह दिखाई देता है। उनका कहना है कि
यहाँ कर्मचारी पृथक वर्गों और विशिष्ट सेवाओं में बँट गए है तथा उनके बीच एक बड़ी
दीवार खिंच गयी है।
• 3. संरक्षक नौकरशाही – नौकरशाही के इस रूप को लूट–प्रणाली भी कहा जा सकता है। अन्तर्गत सरकारी पद
व्यक्तिगत कृपा या राजनीतिक पुरस्कार के रूप में प्रदान किए जाते है। सत्रहवीं
शताब्दी के मध्यकाल तक यह प्रणाली ग्रेट ब्रिटेन में प्रचलित थी और वहाँ इसे
अमीरों को लाभ प्रदान करने के लिए प्रयुक्त किया जाता था। संयुक्त राज्य अमेरिका
में यह प्रणाली राजनीतिक दल से प्रभावित थी। अमेरिका में लूट–प्रणाली की 1829 से 1883 तक प्रधानता रही, फिर भी किसी प्रकार के नैतिक अवरोध सामने नहीं
आए।
• 4. गुणों पर आधारित नौकरशाही – इस प्रकार की नौकरशाही का आधार सरकारी
अधिकारियों के गुण होते है। ये गुण कार्यकुशलता की दृष्टि से निर्धारित किए जाते
है। अधिकारियों की नियुक्ति उनके गुणों के आधार पर होती है और उन गुणों की जाँच के
लिए खुली तथा निष्पक्ष प्रतियोगिता होती है। आजकल प्राय: सभी सभ्य देशों में यह
प्रणाली अपनाई जाती है। यह प्रणाली प्रजातंत्र के अनुकूल है। इसमें कर्मचारी अपने
पद के लिए किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल का आभारी नहीं होता। वह अपने उद्यम और
बुद्धिमता के आधार पर इसे प्राप्त करता है। वर्तमान में इसको ही नौकरशाही का
सर्वश्रेष्ठ स्वरूप समझा जाता है।
नौकरशाही की
विशेषताएँ[संपादित करें]
नौकरशाही की
निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –
• 1. तकनीकी विशेषज्ञता – नौकरशाही की महत्वपूर्ण विशेषता विशेषीकरण है।
नौकरशाही के जन्म का एक कारण तकनीकी कुशलता की आवश्यकता भी है। एक विशेष कुशलता
में प्रशिक्षित, उसे बार–बार दोहराने वाला तथा अपने पद को आजीवन मानने
वाला अधिकारी एक विशेष कुशलता में प्रशिक्षित बन जाता है। यह विशेषीकरण इस तथ्य
द्वारा और भी अधिक बढा दिया जाता है जब सेवा में प्रवेश और प्रगति के लिए विशेष
कार्य में तकनीकी योग्यता एवं अनुभव आवश्यक माने जाते है। इस प्रकार नौकरशाही ही
विशेषीकरण का कार्य एवं परिणाम दोनों है।
• 2. कानूनी सत्ता – नौकरशाही संगठन में अधिकारियों की सत्ता कानून
पर आधारित होती है। कानून के अनुसार प्रत्येक अधिकारी उन कार्यों को सम्पन्न करने
के लिए उत्तरदायी होता है। अधिकारी को कुछ बाध्यकारी साधन प्रदान किए जाते है।
• 3. कार्यों का बौद्धिकतापूर्ण विभाजन – मैक्स वेबर द्वारा प्रतिपादित मॉडल में
नौकरशाही की एक मु ख्य विशेषता यह है कि इसमें बौद्धिकता प्राप्त करने का प्रयास
किया जाता है अर्थात् यह प्रयत्न होता है कि नियोजित एवं बौद्धिकतापूर्ण कार्य की
व्यवस्था की जाए। ऐसे संगठन में बौद्धिकतापूर्ण श्रम–विभाजन होता है तथा प्रत्येक पद को कानूनी
सत्ता प्रदान की जाती है ताकि वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। पिफनर ने
नौकरशाही को परिभाषित करते हुए बताया है कि यह कार्यों एवं व्यक्तियों का एक विशेष
रूप में व्यवस्थित संगठन है , जो समूह के लक्ष्यों को प्रभावी रूप से प्राप्त कर सके। व्यक्ति के व्यवहार को
नियमों, दबावों और
व्यवस्थाओं द्वारा एक विशेष रूप दिया जाता है। प्रत्येक स्थान पर अधिकतम की
प्राप्ति का नियम अपनाया जाता है। भविष्यवाणी करने की योग्यता, स्तरीकरण एवं निश्चितता को पर्याप्त मूल्य दिया
जाता है। उदाहरण के लिए सैनिक अनुशासन को लिया जा सकता है। फ्रेडरिक डायर तथा जॉन
डायर के कथनानुसार, नौकरशाही में
कार्य अथवा उत्तरदायित्व के क्षेत्र कठोरता के साथ परिभाषित, विशेषीकृत और उपविशेषीकृत कर दिए जाते है।
• 4. कानूनी रूप से कार्य–संचालन – नौकरशाही में सरकारी अधिकारियों का व्यवहार
कानूनी रूप से कार्य करते है , इसलिए संगठन में लोचहीनता (फ्लेक्सिबिलिटी) बढ जाती है। सरकारी अधिकारियों का
व्यवहार कानून के शासन से सम्बन्धित रहता है , अत: व्यक्तिगत अधिकारों को प्रभावित करने वाले
प्रशासनिक कार्य स्वेच्छा अथवा व्यक्तिगत निर्देश पर आधारित रहने की अपेक्षा
परम्पराओं पर आधारित रहते है। पिफनर तथा प्रेस्थस के कथनानुसार, सरकारी अधिकारियों को अपेन प्रत्येक कार्य का
औचित्य कानून या प्रशासनिक नियमों एवं कानूनी आदेशों के आधार पर सिद्ध करना चाहिए।
जिस क्षेत्र में प्रशासकों को स्वेच्छा दी जाती है , उसमें भी नागरिकों को कुछ अधिकार सौंपे जाते
है। नागरिकों को प्रशासनिक निर्णय की सूचना दी जाती है , अधिकारियों के व्यवहार को संचालित करने वाले
नियम तकनीकी आदर्श भी हो सकते है।
• 5. पद–सोपान का सिद्धान्त – नौकरशाही संगठन में कुछ स्तर होते है। स्तरों
में शीर्ष का नेतृत्व मध्यवर्ती प्रबन्ध, पर्यवेक्षक एवं कार्यकर्ता आदि के पद–सोपान बना दिये जाते है। पद–सोपान के सिद्धान्त के आधार पर ही नौकरशाही के
कार्यों का संचालन किया जाता है। प्रशासनिक कानून, नियम, निर्णय आदि लिखित रूप में निरूपित और अभिलेखित किए जाते है।
विभिन्न अधिकारियों तारा शक्ति का प्रयोग भिन्न–भिन्न रूपों में किया जा सकता है , तो भी उनके बीच समन्वय रहता है।
• 6. मूल्य व्यवस्था – प्रशासन अपने साथियों के प्रभावपूर्ण
सांस्कृतिक मूल्यों से मर्यादित होते है। सामान्यत: वे ऐसी मूल्य व्यवस्था विकसित
कर लेते हैं , वह उनके कार्यों
के अनुरूप होती है। इस प्रकार अधिकारियों का जो दृष्टिकोण बनता है , वह नशे गयी को प्रभावित करता है। वे अपनी
व्यावसायिक योग्यताओं पर विशेष जोर दे कर नैतिक बल को ऊँचा उठाने का प्रयास करते
है। नौकरशाही में स्वामीभक्ति किसी व्यक्ति के प्रति नही वरन् अव्यक्तिगत कार्यों
के प्रति होती है। सिद्धान्त रूप से नौकरशाही को निरपेक्ष माना जाता है , किन्तु व्यवहार में उस पर राजनीतिक दल आदि किसी
भी संस्था का प्रभाव हो सकता हैं दूसरे लोगों की तरह नौकरशाही की भी राजनीतिक
विचारधारा होती है जो उनके निर्णयों को प्रभावित करती है। सामान्य रूप से यह कहा
जा सकता है कि सरकारी अधिकारी व्यावसायिक विशेषता एवं योग्यता को सुरक्षा एवं
निश्चित आय से बदल ले ते है।
• 7. स्टाफ की प्रकृति – नौकरशाही व्यवस्था के अन्तर्गत स्टाफ का एक
परिभाषित क्षेत्र एवं स्थिति होती है। ये अधिकारी तकनीकी योग्यताओं के आधार पर
नियुक्त किए जाते हैं। इनका पारस्परिक संबंध स्वतन्त्र और समझौतापूर्ण होता है।
सभी अधिकारी अपने पद को आजीवन सेवा के रूप में ग्रहण करते है। इनके बीच एक कठोर
तथा व्यवस्थित अनुशासन रहता है। संगठन के समस्त कर्मचारी, अधिकारी और कार्यकर्ता अपनी स्थिति या पद के
स्वामी नहीं होते। वे मूल रूप से वेतनभोगी लोग होते है। संगठन में व्यक्ति को नहीं
वरन् कार्य को नियन्त्रित किया जाता है और उसी का भुगतान किया जाता है। यह जरूरी
है कि व्यक्ति कार्य के अनुरूप अपने आपको ढाले अथवा उस कार्य के अनुकूल अपने को
योग्य बनाये।
• 8. लालफीताशाही – नौकरशाही में अनावश्यक औपचारिकता का अपनाया
जाना लालफीताशाही है। लालफीताशाही को हम 'नियमों–विनियमों के पालन में आवश्यकता से अधिक जड़ता की प्रवृत्ति कह सकते है। जब
लालफीताशाही बहुत बढ़ जाती है तो प्रशासन में लचीलापन समाप्त हो जाता है। फलस्वरूप
प्रशासकीय निर्णयों में दे री होती है और प्रशासकीय कार्यों के संचालन में
सहानुभूति , सहयोग आदि का
महत्व गौण हो जाता है। लालफीताशाही नौकरशाही' को कठोर, यन्त्रवत और अत्यन्त अनौपचारिक कार्यविधि बना
दे ती हैं। लालफीताशाही के कारण ही नौकरशाही को बदनामी सहन करनी पड़ती है।
प्रो. फ्रेड्रिक
ने नौकरशाही के 6 लक्षण बतलाए हैं
, जो इस प्रकार है –
• 1. कार्यों का विभिन्नकरण,
• 2. पद–योग्यताएँ ,
• 3. पद–सोपान क्रम संगठन एवं अनुशासन,
• 4. कार्यविधि की वस्तु निष्ठता,
• 5. लालफीताशाही, एवं
• 6. प्रशासकीय कार्यों में गोपनीयता
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Jul 14, 2012 - Woodrow Wilson was influenced by
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Wilson's Vision on Public Administration | Desi
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Dec 22, 2012 - Woodrow Wilson is considered to be
the father of Public Administration. His article 'The study of Administration'
is considered to be the ...
PUBLIC ADMINISTRATION - Answer Writing Challenge -
INSIGHTS
www.insightsonindia.com/2014/01/.../public-administration-answer-writing-challenge...
Jan 8, 2014 - Wilson's vision of Public
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wilson ; public administration is synonymous ...
Woodrow Wilson on Administration - Heritage
Foundation
www.heritage.org/initiatives/first-principles/.../woodrow-wilson-on-administration
This largely dry essay on public administration,
published by Woodrow Wilson during the time he taught at Bryn Mawr College,
makes a revolutionary argument ...
What is Wilson's vision of public administration? -
Quora
https://www.quora.com/What-is-Wilsons-vision-of-public-administration
May 29, 2015 - Simply said, Woodrow Wilson wanted
to study Public Administration as a seperate discipline which hitherto was not.
[PDF]Part I - PUBLIC ADMINISTRATION PAPER I -
Questions ... - Vision IAS
https://visionias.files.wordpress.com/.../part-i-public-administration-paper-i-questions-...
Q.6- “Calling Woodrow Wilson, the father of Public
Administration is doing injustice ... focus on the current and future visions
in the field of public administration.”.
Politics and Administration: Woodrow Wilson and
American Public ...
https://books.google.co.in/books?isbn=0824770684
Rabin - 1984 - Political Science
Woodrow Wilson and American Public Administration
Rabin ... Wilson's Task for Public Administrators Vinton Fisher Institute of
Public Service, ... THE VISION AND LEGACYOF WILSON AND OSTROM'S CRITIQUE In Woodrow
Wilson's "Study ...
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