मार्च के महीने में मैं लंदन में था। हाउस ऑफ लॉर्ड्स के एटली रूम में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर प्रमुख और कुछ लॉर्ड एवं राजनयिक वहां अद्र्घवार्षिक चर्चा के लिए एकत्रित हुए थे जो दुनिया के हालात को लेकर की जानी थी। हालांकि वे हमेशा की तरह विनम्र और उत्सुक नजर आ रहे थे लेकिन मुझे उनके व्यवहार में एक खास किस्म का अनमनापन और नाराजगी नजर आई। पूरे सप्ताह के दौरान ब्रिटेन की जनता में भी मुझे ऐसी ही असहजता नजर आई। अगर इस बात को पूरे यूरोप पर लागू करूं तो कह सकता हूं कि मुझे यूरोप भी उबलता नजर आया। आखिर वहां हो क्या रहा है?
फिलहाल तो ब्रिटेन की राजनीति में अहम मुद्दा यही है कि अगले कुछ महीनों के बाद वह यूरोपीय संघ में बना रहेगा या वहां से बाहर हो जाएगा। इस विषय पर जनमत संग्रह होना है। फिलहाल तो इस मसले पर विरोधी विचार ही सुनने को मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री डेविड कैमरन प्राय:
टेलीविजन पर आते हैं और लोगों को यूरोपीय संघ से अलग होने के नुकसानों से अवगत कराते हैं। बदले में फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद की चेतावनी है कि अगर ब्रिटेन यूरोपीय संघ छोड़ता है तो बदले में फ्रांस अपने शरणार्थी शिविर खोल सकता है। जिसका मतलब होगा कि अफ्रीका और पश्चिम एशिया के ये प्रवासी इंगलिश चैनल पार करके रोजगार की तलाश में वहां पहुंचने लगेंगे। लंदन के मेयर और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बोरिस जॉनसन ब्रिटेन के यूरोपीय संघ सेे अलग होने को लेकर मुखर हैं, हालांकि उनको पता होना चाहिए कि कुछ ही ब्रिटिश लोग वे रोजगार चाहते हैं जो पूर्वी यूरोपीयों के कब्जे में हैं।
जॉनसन की नीति ने उनको कैमरन के उत्तराधिकारी बनने की कतार में ला खड़ा किया है। वह जानते हैं कि ब्रिटेन के लोगों को यह पसंद नहीं है कि किसी अन्य देश में बैठे विदेशी पदाधिकारी उनको निर्देशित करें। एक पुरानी कहावत भी तो है जिसका तात्पर्य यह है कि ब्रिटिश लोग लहरों पर सवारी करते हैं वे कभी किसी के दास नहीं हो सकते। जो लोग ब्रिटेन के यूरो क्षेत्र से अलग होने के हिमायती हैं वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि कैसे यूरोपीय संघ
में रहने से ब्रिटिश उत्पादों के निर्यात की गारंटी मिली हुई है और किस तरह पूर्वी यूरोप से सस्ता श्रम देश को हासिल हो रहा है। यह बात देश की उत्पादकता बरकरार रखने में मददगार है।
मोटे तौर पर देखा जाए तो ब्रिटेन के युवा ऐसे रोजगारों को बहुत तवज्जो नहीं देते। उनको सरकारी सब्सिडी की मदद से बेरोजगार बने रहना रास आता है। लंदन में असहजता का दूसरा स्रोत था यह अनुमान कि ब्रिटेन के चांसलर
(वित्त मंत्री)जॉर्ज ऑसबर्न 16
मार्च को सदन में एक भयावह बजट पेश करेंगे। लोगों के पास डरने की वजह भी थी। इससे पहले उन्होंने एक बार पेंशन में कटौती करने की कोशिश की थी। दुखद बात है कि कोई भारतीय अर्थशास्त्री या नौकरशाह वित्त मंत्री अरुण जेटली को पेंशन सुधार पर ब्रिटेन में हुई आपदा से अवगत नहीं करा सका। अगर वित्त मंत्री को इस बारे में जानकारी होती तो शायद वह अपने मौजूदा स्वरूप में पेंशन सुधार को पेश करने और फिर उसे वापस लेने से परहेज करते। यही वजह है कि प्रत्यक्ष कर संहिता पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, बजाय कि उसे खारिज करने के। लेकिन वह एक अलग किस्सा है। वित्त मंत्री राजकोषीय घाटे के मामले में भी अपने आंकड़ों पर टिके रहे। चांसलर भी इस कठिन आंकड़े पर टिके रहने में कामयाब रहे थे। उनकी इस कवायद की मैं पहले भी तारीफ कर चुका हूं। लेकिन देश के किसानों की दुर्दशा और बिटिश आर्थिक माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि राजकोषीय घाटा संभालना कोई जादू की छड़ी नहीं है जो हर समस्या से निजात दिला दे।
परंतु चांसलर द्वारा गत 16
मार्च को पेश किए गए बजट से भी कुछ अच्छे सबक निकले। लंदन में किसी ने उस घोषणा पर ध्यान भी नहीं दिया जिसके तहत मुख्य कॉर्पोरेट कर दर को मौजूदा 20
फीसदी से घटाकर 2020
तक
17 फीसदी करने की बात कही गई। गौरतलब है कि अभी हाल ही में दर को 28
फीसदी से कम करके 20
फीसदी किया गया था। इससे यही अंदाजा लगता है कि बजट से पहले तमाम अंशधारकों के बीच नीतिगत बदलाव को लेकर होने वाली चर्चा ने शायद सभी पक्षकारों को इस कदर परिपक्व बना दिया हो कि उन्होंने बहुत अधिक आश्चर्य तक न जताया। इसके अलावा आयकर में मानक कटौती को वर्ष 2017
से कम करने या उसी साल से छोटे कारोबारों पर कम कर वसूल करने को लेकर कोई खास उत्साह नहीं देखने को मिला। बजट में तमाम ऐसी घोषणाएं हैं जिन पर भारत ध्यान दे सकता है।
यह संभव नहीं है कि यूरोप पर कोई चर्चा हो और वह जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल द्वारा झेली जा रही शेक्सपियराना अंदाज की त्रासदी के उल्लेख के बिना खत्म हो जाए। मार्च में हुए क्षेत्रीय चुनावों में उनकी पार्टी को काफी हद तक पराजय का सामना करना पड़ा। जबकि उन्होंने शरणार्थियों के लिए जर्मनी के दरवाजे खोले रखने का अपना फैसला बरकरार रखा। इस बीच उनके प्रतिद्वंद्वी शरणार्थियों को रोकने के लिए दीवार तक बना देने पर उतारू थे। एंगेला मर्केल ने अतीत में एक दुर्लभ संयोग प्रदर्शित किया है जिसके तहत वह लोगों को पसंद भी थीं और वांछित परिणाम भी हासिल कर रही थीं। लेकिन उनकी मौजूदा हालत देखना दुखद है।
आखिर में बात करते हैं अमेरिका की। अमेरिका में जो कुछ हो रहा है उस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में डॉनल्ड ट्रम्प की बढ़त को देखना आश्चर्य चकित करता है लेकिन यह कोई स्तब्ध करने वाली बात नहीं है। खासतौर पर यह देखते हुए कि अमेरिका जॉर्ज बुश जूनियर जैसे नेता को दूसरा कार्यकाल दे चुका है। बराक ओबामा भी तो दूसरा कार्यकाल हासिल करने में कामयाब ही रहे। जैसा कि हम जानते हैं अमेरिका में दूसरा कार्यकाल सौंपने की प्रवृत्ति है। बल्कि अगर उनको इजाजत होती तो वे शायद मौजूदा राष्ट्रपतियों को तीसरी बार भी राष्ट्रपति का कार्यकाल सौंप देते। मौजूदा कांग्रेस की बात करें या अतीत की, अमेरिका की विधायिका ने ओबामा के साथ काम करने से इनकार ही किया है। यह भी भारत के लिए एक उदाहरण है कि वह राष्ट्रपति शैली के निर्वाचन की आंख मूंदकर हिमायत न करे। वरना होगा यही कि हम एक गतिरोध की स्थिति से उबरेंगे और दूसरी स्थिति के शिकार हो जाएंगे।
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