Honesty in governance(शासन व्यवस्था में ईमानदारी) in hindi
ऑकसफोर्ड शब्दकोष में ईमानदारी
को इस प्रकार परिभाषित किया गया है ‘ उच्च नैतिक सिद्धांतों ; अच्छा चरित्र,
शुचिता और शालीनता’ के गुण या स्थिति का होना। ईमानदारी का कर्म उच्चतम सिद्धांतों और प्रतिमानों से जुड़ा है न कि भ्रष्ट
या बेईमानीपूर्ण चरित्र से । यह लोगों के स्वार्थों और समुदायगत सेवा के मध्य
संतुलन बनाये रखता है।
ईमानदारी को प्रकियागत सत्यनिष्ठा
को बनाए रखने के एक जोखिम प्रबंधन के रूप में वर्णित किया जाता है। यह परिणामों की
अपेक्षा प्रकिया, रीतियों और प्रणाली से ज्यादा संबंधित है। बेहतर ईमानदारी इस
बात की गारंटी नहीं देती कि इससे समस्याएं या आलोचना उत्पन्न नहीं होगीं। इसमें
आवश्यकता नैतिकीय, निष्पक्षता, शुचिता और बिना भेदभाव के काम करने की है।
शासन में ईमानदारी बहुत महत्वपूर्ण
है और शासन की प्रभावी और क्षमतावान तंत्र की महत्वपूर्ण जरुरत भी है ताकि
सामाजिक- आर्थिक विकास हो सके। शासन में ईमानदारी के लिए आवश्यक है कि भ्रष्टाचार
की उपस्थिति नहीं हो। इसके अलावा प्रभावी विधियां, नियम और अधिनियम हो जो कि
सार्वजानिक जीवन के प्रत्येक पहलू को नियमित कर सकें और इसमें महत्वपूर्ण यह है
कि इन कानूनों को प्रभावी और बिना भेदभाव के लागू भी किया जाए। वास्तव में एक
उचित, निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से कानून लागू करने अनुशासन बनाये रख्ने का महत्वपूर्ण
पहलू है। दुर्भाग्य से भारत के लिए अनुशासन सार्वजनिक जीवन से बहुत तेजी से गायब
हो रहा है और बिना अनुशासन के जैसा कि स्कैंडीनेवियन आर्थिक-समाजशास्त्री गुन्नार
मिर्डल का मानना है कि वास्तविक प्रगति संभव नहीं है। अनुशासन सार्वजनिक और निजी
क्षेत्र में नैतिकता और शुचिता की भावना के साथ साथ अन्य बातों को भी इंगित करता
है। पश्चिम में एक व्यक्ति जब उच्च पद पर पहुंच जाता है तो वह कानूनों के प्रति
और अधिक सम्मान से पेश आता है जबकि हमारे देश में ठीक इसके विपरीत होता है। हमारे
यहां ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति समझता है कि वह कानूनों और नियमों की अवहेलना कर
सकता है। यह भी देखने में आता है कि चाहे सार्वजनिक हो या निजी, हमारी संस्कृति
में अनुशासन, झूठ का बोलबाला है। यह सत्य है कि नागरिकों में अनुशासन लाना समाज
का कार्य ज्यादा है जबकि नेता, राजनीतिक दल और सार्वजनिक महत्व के लोगों का कम।
तब भी इस ये चीजें इस प्रकार हैं कि इन पर विचार करना आवश्यक है।
भ्रष्टाचार निजी लाभ के लिए
सार्वजनिक जीवन में कार्यरत लोगों को संसाधनों के दुरुपयोग से उत्पन्न होता है।
जब लोक प्रशासन का नियंत्रण कमजोर हो जाता है तो भ्रष्टाचार में वृद्धि होती है।
इसके अलावा राजनीतिक, कार्यपालिका और नौकरशाही में शक्ति के विभाजन के लेकर मौजूद
अस्पष्टता के कारण भी भ्रष्टाचार आता है। राजनीति भ्रष्टाचार जिसे कभी कभी नौकरशाही के जरिए होने वाले भ्रष्टाचार
से अलग नहीं समझा जाता है उसकी प्रवृत्ति निरंकुश शासन में ज्यादा फैलने की होती
है। ऐसे राज्यों में लोगों की राय और प्रेस की आवाज दबा दी जाती है और वे भ्रष्टाचार
के मामले सामने नहीं ला पाते हैं इसलिए ऐसे राज्यों में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा
होता है। भारत के मामले में विचित्रता यह है कि हालांकि यहां पर प्रेस और लोगों को
राय रखने की अनुमति होने के बावजूद भ्रष्टाचार का स्तर बहुत ज्यादा है। संभवतया
इसकी वजह संवेदनाहीन होना, शर्म की कमी होना और घूसखोरों के मध्य किसी प्रकार का
नैतिक दबाव नहीं होना आदि है।वास्तव में वे भ्रष्टाचार के तमगे को बेशर्मी के
साथ सीने पर लटकाये रहते हैं। इसके अलावा राज्य के सामाजिक जीवन और आर्थिक मामलों
में बढते हस्तक्षेप के कारण भ्ज्ञी राजनीतिक और नौकरशाही के भ्रष्टाचार के अवसर
बढ जाते हैं। खासकर तब जब राजनीति एक पेशे के रूप में उभरती है। हमारे पास ऐसे
पेशेवर राजनीतिज्ञ हैं जो कि पूर्णकालिक तौर पर राजनीति को बतौर पेशा अपनाए हुये
हैं चाहें वे किसी पद पर नहीं भी आसीन हों। भारत को एक स्वयं सेवी संगठन
ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल के बनाए गए भ्रष्टाचार प्रत्यक्ष सूचकांक में शामिल 99
देशों में से 73 वां स्थान मिला है। भ्रष्टाचार आज न केवल शासन की गुणवत्ता के
लिए खतरा बन गया है अपितु यह अब समाज और राज्य के स्तर पर चुनौती भी देने लगा
है।
रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार ,
अन्य प्रकार की खरीद में भ्रष्टाचार और ठेकेदारी से देश की सुरक्षा को खतरा बढ
गया है। शक्तिशाली लोगों के मध्य आपसी समझौतों से कारण किसी किसी राज्य में वित्तीय
संकट बढ गया है और राज्य कर्जे में डूब गया हैं। ऐसा समझा जाता है कि राजनेता,
तस्करों, नशीले पदार्थ के व्यापारियों और आतंकवाद के बीच साठगांठ भी है । इस तथ्य
की वोहरा समिति ने अपनी रिपोर्ट में इंगित किया है।
सार्वजनिक जीवन के सात सिद्धांत
निस्वार्थ : सार्वजनिक विभागों में कार्यरत लोगों को अपने निर्णय केवल आम
लोगों के हित में लेने चाहिये। उन्हें अपने निर्णयों से स्वयं को, अपने परिवार
को या अपने मित्रों केा किसी प्रकार के वित्तीय या भौतिक प्रकार के लाभ नहीं होने
चाहिये।
सत्यनिष्ठा:
सावर्जनिक कार्यालयों में कार्यरत लोगों को अपने सरकारी कर्तव्यों के निष्पादन में स्वयं पर बाहर के व्यक्तियों या
संगठनों से किसी भी वित्तीय या अन्य दायित्व नहीं वहन करने चाहिये।
वस्तुनिष्ठता :
सार्वजनिक नियुक्तियों देने , ठेके देने, या
पुरस्कार और लाभ के लिए व्यक्तियों की सिफारिश सहित
अन्य सार्वजनिक प्रकार के कार्य करने में , सार्वजनिक कार्यालय के
कर्मचारियों को योग्यता के आधार पर चयन करना चाहिए
जबावदेही :
सार्वजनिक कार्यालय के धारकों को
अपने फैसलों और जनता के लिए
कार्यों के लिए जवाबदेह हैं और कार्यालय के लिए
उपयुक्त जांच के लिए
खुद को प्रस्तुत करना होगा.
खुलापन :
सार्वजनिक कार्यालय धारकों को अपने
सभी निर्णयों और कार्य करने में यथासंभव खुला होना चाहिए।
उन्हें अपने निर्णय के लिए कारण देने चाहिये और स्पष्ट रूप से व्यापक सार्वजनिक हित मांग के संदर्भ में संबंधित
जानकारी को प्रतिबंधित कर देना
चाहिए.
शुचिता:
सार्वजनिक कार्यालय धारकों का कर्तव्य है कि वे
अपने सार्वजनिक कर्तव्यों से संबंधित किसी भी निजी
हितों की घोषणा करें और सार्वजनिक हित
के संरक्षण के लिए रास्ते में आने वाले सभी प्रकार के द्वंद्वों को हल करें।
नेतृत्व :
सार्वजनिक कार्यालय धारकों को चाहिये कि वे इन
सिद्धांतों का नेतृत्व एवं उदाहरण देकर उनका प्रचार और समर्थन करें
प्रत्येक लोकतंत्र में इन सिद्धातों को सार्वजनिक जीवन में सामान्य
अनुप्रयुक्त के स्तर पर देखा जा सकता है। सार्वजनिक कार्यालय के प्रत्येक धारक
को इन सिद्धांतों को आचरण को करते समय हमेशा मन में रखना चाहिये।
यह एक घिसी पिटी
बात है कि सार्वजनिक कार्यालयों के धारकों को कुछ शक्तियां प्रदान कर दी गईं है और वे उनका
प्रयोग केवल लोक कल्याण के कार्यों में करते हैं और , इसलिए लोगों को उन पर विश्वास
करना चाहिये। उनमें से किसी का ईमानदारी के रास्ते से भटकाव लोगों का विश्वास
भंग करता है इसलिए उनके साथ सख्ती से पेश आना चाहिये न कि मामले को ठंडे बस्ते
में डाल देना चाहिये। यदि कोई आचरण अपराध के तुल्य है तो इसकी तुरंत जांच होनी
चाहिये और प्राथमिक तौर पर दोषी प्रतीत हो रहे व्यक्ति के खिलाफ विस्तार से जांच
की जानी चाहिये ताकि देश में विधि का शासन रहे।
मामला अध्ययन:
ईमानदारी
एक शहर में दमकल
कर्मियों ने 25 बडे पेड़ों को काट डाला। दमकल कार्य प्रमुख संजय ने कहा कि
उन्होंने समझा कि दमकलकर्मी इस लकडी को घर ले जा सकते हैं। इससे उन्हें और उनके
कर्मियों को मदद मिलेग। लेकिन आयोग ने संजय की कड़ी फटकार लगाते हुये कहा कि उन्हें
यह मालूम होना चाहिये था कि वह इस लकडी को घर नहीं ले जा सकते थे। आयोग के कार्यकारी निदेशक रंजन ने कहा कि "प्रत्येक लोकसेवक को चाहिये कि वह नैतिक नियमों के अनुसार कार्य करे। इनमें
से एक नियम यह है कि आप को अपनी स्थिति से किसी प्रकार का आर्थिक लाभ नहीं हो
"। "उन्होंने शहर के पेड़ों और दमकल विभाग के उपकरणों का प्रयोग किया और वह इस
लकडी को घर में जलाने के लिए ले जा रहे थे। " एक सेवानिवृत्त दमकल कर्मी ने मामले का
भंडाफोड़ तब किया जब उन्होंने विभाग के प्रमुख के घर पर लकड़ी का ढेर देखा।
" उनके पास इतनी लकड़ी थी जो कि उनके घर की छत पर इससे पहले कभी नहीं थी
"। उन पर जुर्माने के बजाए
अनुशस्ति देने की अनुशंसा की गई क्योंकि उन्होंने उस लकडी को अभी जलाया नहीं था।
इस कटी हुई लकडी को ऐसी एजेंसी को दिया गया जो कि मानसिक बीमारी से जूझ रहे लोगों
की मदद का काम कर रही थी। संस्था के प्रमुख संजय ने कहा कि सारा मामला "अनुचित संप्रेषण की उपज थी "।
विचारणीय प्रश्न
:
1. क्या इसमें यह महत्व रखता है कि इस काम को
करते समय दमकलकर्मी डयूटी पर नहीं थे?
2. इस कहानी में यह बात नहीं बताई गई है कि क्या
दमकलकर्मी अपने साथ लकडी ले गया अथवा नहीं। अगर वे ले गये तो उनके मामले से किस
तरह पेश आना चाहिये?
3. संस्था के प्रमुख को इसे किस प्रकार विभाग के
अंतर ही हल करना चाहिये था।?
4. शहर के प्रबंधक या मेयर को क्या यदि हो , तो
नैतिकता संबधी कानूनी को लागू करने में कोई भूमिका निभाई चाहिये?
5. आपके विचार में इस घटना को श्रेष्ठ परिणाम क्या
हो सकता है?
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