पिछले दिनों बाघों के संरक्षण पर केंद्रित तीन दिवसीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत बाघों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है और बाघों को बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा। गौरतलब है कि हाल ही में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ और ग्लोबल टाइगर फोरम ने उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर कहा है कि विश्व में बाघों की संख्या 3890 हो गई है, जबकि 2010 में यह संख्या 3200 थी। विश्व में बाघों की संख्या में वृद्धि के कई कारण हो सकते हैं जिनमें भारत, रूस, नेपाल और भूटान में बाघों की संख्या में वृद्धि, उन्नत सर्वेक्षण और व्यापक संरक्षण शामिल हैं। लगभग एक वर्ष पूर्व केंद्र सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में बाघों की संख्या बढ़कर 2226 हो गई है। 2010 में हुई बाघों की गिनती की तुलना में यह तीस फीसद ज्यादा है। दरअसल, यह रिपोर्ट जारी करने से पहले बाघों की अधिक संख्या वाले सत्रह राज्यों में कुल 3,78,118 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र में सर्वेक्षण किया गया। बाघों की गिनती में रिमोट कैमरा ट्रैप तकनीक का इस्तेमाल करते हुए 9,735 कैमरों का प्रयोग किया गया।
गौरतलब है कि देश के सत्रह राज्यों में चौवालीस नेशनल पार्क हैं जहां बाघों का संरक्षण किया जाता है। दस फीसद बाघ संरक्षित-क्षेत्र से बाहर भी रहते हैं। गौरतलब है कि बाघों की संख्या के हिसाब से दूसरे स्थान पर रूस है जहां 433 बाघ हैं। इंडोनेशिया में 371 तो मलेशिया में 250 बाघ हैं। इसके अलावा नेपाल में 198, थाईलैंड में 189, बांग्लादेश में 106 और भूटान में 103 बाघ हैं। म्यांमा, चीन और लाओस में भी बाघ पाए जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार सौ साल पहले दुनिया में एक लाख से ज्यादा बाघ थे। आजादी के समय भारत में बाघों की संख्या लगभग चालीस हजार थी। भारत में हर चार साल पर बाघों की संख्या का आकलन किया जाता है।
यह सही है कि पिछले कुछ वर्षों में बाघ बढ़े हंै लेकिन बाघों पर अभी विभिन्न कारणों से खतरा मंडरा रहा है। वर्ष 2014 में आपसी लड़ाई, बीमारी व अन्य कारणों से भारत में चौंसठ बाघों की मौत हुई थी। यह आंकड़ा वर्ष 2013 की तुलना में एक अधिक है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के आधिकारिक डाटाबेस के अनुसार देश में वर्ष 2014 में एक जनवरी से 29 दिसंबर तक चौंसठ बाघ मरे, जबकि वर्ष 2013 में मरने वाले बाघों की संख्या तिरसठ थी। दरअसल, देश में बाघों पर मंडराते खतरे के लिए अनियंत्रित शिकार,बीमारी तथा मानव-वन्य जीव संघर्ष जैसे कारक मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं। वनों का नष्ट होना भी बाघों की मौत का कारण बन रहा है। गौरतलब है कि अनेक बाघ अभयारण्योंं में वनक्षेत्र तेजी से कम हुआ है। आश्चर्यजनक यह है कि पिछले कुछ सालों में ही देश के 728 वर्ग किलोमीटर भू-भाग से वन समाप्त हो चुके हैं।
हमारे देश का वनक्षेत्र कुल क्षेत्रफल का लगभग बीस फीसद है। इसमें यदि अन्य वृक्षों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह लगभग तेईस फीसद बैठता है। वैज्ञानिकों के अनुसार अंडमान-निकोबार में सुनामी जैसी आपदाएं, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में बांधों का निर्माण, उत्तर भारत मेंं खेती की जमीन में वृद्धि तथा वृक्षों का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण हमारे देश में तेजी से जंगलों का क्षरण हो रहा है। दरअसल, जब बाघ का प्राकृतिक वास जंगल नष्ट होने लगता है तो वह अपने प्राकृतिक वास से बाहर निकल आता है और आसपास स्थित खेतों व गांवों में घरेलू पशुओं और लोगों पर हमला बोलता है। इस तरह की घटनाओं के कारण बाघों के विरुद्ध गांववालों का गुस्सा बढ़ता है और यह बाघों की हत्याआें के रूप में सामने आता है। यह मानव-वन्य जीव संघर्ष ही विभिन्न ढंग से हमारे पारिस्थितिक तंत्र पर गहरा प्रभाव डालता है। इसके अतिरिक्त, बाघ की खाल प्राप्त करने के लिए तस्कर इनकी हत्याएं भी करते हैं।
पिछली शताब्दी के प्रारंभ से ही हमारे देश में बाघों पर खतरा मंडराना शुरू हो गया था। 1972 में हुई गणना में बाघों की संख्या मात्र 1827 रह गई। 1969 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आॅफ नेचर ऐंड नेचुरल रिसोर्स (आईयूसीएन) की एक सभा में वन्य जीवन पर मंडराते खतरे के मद््देनजर अनेक कदम उठाए गए। इसके बाद 1970 में बाघों के शिकार पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाया गया और 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इसी समय बाघों के संरक्षण के लिए किसी ठोस योजना पर विचार किया गया और 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर के रूप मे यह योजना सामने आई। इस तरह बाघों के संरक्षण के लिए अनेक बाघ संरक्षित क्षेत्र बनाए गए। इन संरक्षित क्षेत्रों को कोर क्षेत्र व बफर क्षेत्रों में बांटा गया। कोर क्षेत्र में सभी प्रकार की मानव गतिविधियां प्रतिबंधित होती हैं जबकि बफर क्षेत्र विद्यार्थियों, शोधार्थियों तथा प्रकृति प्रेमी लोगों के लिए इस शर्त के साथ खुला होता है कि इनके प्रवेश से वन्य जीवन को कोई नुकसान न पहुंचे।
दरअसल, संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अनेक तरह की समस्याएं और विसंगतियां मौजूद हैं। कुछ वन्य क्षेत्रों में दो तरह के समुदायों का दखल है। एक वे जिनके पास दूसरे पशु हैं और उन्हें संरक्षित क्षेत्र में चराते हैं। दूसरे वे गांववाले हैं जो इन इलाकों के संरक्षित क्षेत्र घोषित होने के पहले से वहां रह रहे हैं। इस तरह अनेक लोग व घरेलू पशु संरक्षित वन्य क्षेत्रों के प्राकृतिक स्वरूप में व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं। कुछ संरक्षित वन्य क्षेत्रों से मुख्य सड़क तथा रेल लाइन भी गुजर रही है। इन परिस्थितियों के कारण भी बाघों के प्राकृतिक वास में व्यवधान उत्पन्न होता है। कुछ संरक्षित वन्य क्षेत्रों आसपास मंदिर भी स्थापित हैं, जहां हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। ये श्रद्धालु जहां अभयारण्य में कूड़ा-कचरा फैलाते हैं, वहीं यहां से र्इंधन की लकड़ी भी ले जाते हैं।
इन सब गतिविधियों के कारण संरक्षित क्षेत्र का प्राकृतिक स्वरूप तेजी से नष्ट हो रहा है। यही कारण है कि बाघ मनुष्यों के विरुद्ध लगातार उग्र हो रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम अभी तक प्रकृति के साथ जीने का सलीका नहीं सीख पाए हैं। हम वन्यजीवों के प्राकृतिक वास को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए भी गंभीर नहीं हैं। यही कारण है कि वन्यजीवोें के गांवों और शहरों में घुसने की घटनाएं लगातार प्रकाश में आ रही हैं। हाल ही में मेरठ शहर में तेंदुआ घुसने के कारण जीवन अस्त-व्यस्त रहा। इस तेंदुए को दो दिन की मशक्कत के बाद पकड़ा जा सका। वन्यजीव इंसान के लालच की भेंट चढ़ रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि बाघ की खाल प्राप्त करने के लिए अनेक तस्कर चोरी-छिपे इनकी हत्या करते हैं। कई बार इस षड्यंत्र में वन विभाग के कर्मचारियों की मिलीभगत भी होती है। शिकारी बाघों के शरीर के विभिन्न हिस्सों को चीन के परंपरागत दवा उद्योग को भारी दाम पर बेचते हैं।
हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दक्षिण एशिया वन्यजीव प्रवर्तन नेटवर्क (एसएडब्ल्यूईएन) व्यवस्था अपनाने के लिए अपनी सहमति दे दी है। इस प्रक्रिया से दूसरे देशों से संचालित होने वाले वन्यजीव अपराधों पर काफी हद तक लगाम लग सकेगी। एसएडब्ल्यूईएन एक ऐसा नेटवर्क है जिसमें दक्षिण एशिया के आठ देश- अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका- शामिल हैं। इस नेटवर्क के माध्यम से भारत अन्य सदस्य देशों के साथ विभिन्न तौर-तरीकों से एक मजबूत नेटवर्क बना सकता है। गौरतलब है कि दक्षिण एशिया में बहुमूल्य जैव विविधता को लगातार हानि हो रही है। इस नेटवर्क के माध्यम से वन्यजीव संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य होने की उम्मीद है।
खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर स्थित होने के नाते बाघ पारिस्थितिक-तंत्र की स्थिरता के सूचक हैं। बाघों की बेहतर जनसंख्या के लिए खाद्य श्रृंखला के निचले स्तर पर अन्य जीवों की संख्या भी अच्छी-खासी होनी चाहिए। यह सब व्यवस्थित पारिस्थितिक-तंत्र पर निर्भर करता है। इसलिए जब हम बाघों का संरक्षण करते हैं तो उनके साथ-साथ दूसरे वन्यजीवों और पूरे पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण करते हैं। गौरतलब है कि बाघ और शेर जैसे जानवर जैव विविधता के सजग प्रहरी हैं। इन दिनों जैव विविधता पर संकट गहराता जा रहा है।
यों तो 2007 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया गया। वर्ष 2013-14 में प्रोजेक्ट टाइगर के लिए एक सौ बयासी करोड़ का बजट आबंटित हुआ। पर वन्य जीवन को बचाने की इच्छाशक्ति न ही तो हमारे राजनीतिकों में दिखाई देती है और न आम जनता में। बाघ या शेर जैसे वन्यजीवों को बचाने की किसी भी योजना में उस आदिवासी समाज का जिक्र कहीं नहीं होता है जो मुख्य रूप से वनों पर ही निर्भर है। जबकि वन्यजीवों के बचाने के लिए उन्हें वनों से बाहर पुनर्स्थापित करने की बात हमेशा कही जाती है। अब हमें एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है जिसमें वनों पर निर्भर आदिवासी समाज व वन्यजीव दोनों के बारे में सोचा जाए। इससे आदिवासी समाज वन्यजीवों को बचाने के लिए स्वयं आगे आएगा। अनेक जगहों पर संरक्षित क्षेत्रों में रह रहे आदिवासी संरक्षित क्षेत्रों से बाहर आने के लिए राजी हुए हंै, पर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उन्हें उचित मुआवजा नहीं मिल रहा है। इस तरह से वन्यजीव व आदिवासी दोनों ही अपने प्राकृतिक आवास के लिए तरस रहे हंै।
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